Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज

हिन्द स्वराज की प्रासंगिकता

 


महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज

गुलाम भारत में संप्रभुता एवं स्वावलंबन के सूत्रो की खोज

खण्ड घ
सनातन सभ्यता का नया शास्त्रा 
   
सच्ची सभ्यता कौन सी?

 

गांधीजी कहते हैं कि जो सभ्यता हिन्दुस्तान ने विकसित की है, उसकी बराबरी दुनिया में अब तक कोई और सभ्यता कर नहीं पायी है। जो बीज हमारे पुरखों ने बोये हैं, उनकी बराबरी कर सके ऐसी कोई चीज देखने में अब तक नहीं आयी है। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए गांधीजी कहते हैं कि रोम मिट्टी में मिल गया, ग्रीस सिर्फ नाम की सभ्यता रह गया है। मिस्र की बादशाही चली गई, जापान पश्चिम के शिकंजे में फंस गया और चीन का कुछ भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन गिरी-टूटी जैसा भी हो, हिन्दुस्तानी सभ्यता आज भी अपनी बुनियाद में मजबूत है। अनुभव से जो हमें ठीक लगा उसे हम क्यों बदलेंगे? बहुत से अक्ल देनेवाले आते-जाते रहते हैं, पर हिन्दुस्तान अडिग रहता है। यह उसकी खूबी है, यह उसका लंगर है। सभ्यता वह फ्रेमवर्क या व्यवस्था पध्दति है जिससे आदमी अपना फर्ज अदा करता है। फर्ज अदा करने का मतलब है, नीति का पालन करना। नीति के पालन का मतलब है अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखना। ऐसा करते हुए हम अपने को (अपनी असलियत को) पहचानते हैं। यही सभ्यता है। इससे जो उलटा है वह विनाश करनेवाला है।

गांधीजी कहते हैं कि ''हमने देखा है कि मनुष्य की वृत्तियाँ चंचल हैं। उसका मन बेकार की दौड़-धूप किया करता है। उसकी आवश्यकतायें असीम हैं। उसका शरीर जैसे-जैसे ज्यादा दिया जाय वैसे-वैसे ज्यादा मांगता है। ज्यादा पाकर भी मनुष्य का शरीर और मन सुखी नहीं होता। भोग भोगने से भोग की इच्छा बढ़ती जाती है। इसलिए हमारे पुरखों ने भोग की हद बाँधा दी। बहुत सोचकर उन्होंने देखा कि सुख-दु:ख तो मन के कारण हैं। अमीर अपनी अमीरी की वजह से सुखी नहीं है परंतु गरीब अपनी गरीबी के कारण दुखी नहीं है। अमीर लोग देखने में दुखी नजर आते हैं और गरीब आदमी सुखी दिखता है। करोड़ों लोग तो गरीब ही रहेंगे। ऐसा देखकर उन्होंने भोग की वासना छुड़वाई। हजारों साल पहले जो हल काम में लिया जाता था, उससे हमने काम चलाया। हजारों साल पहले जैसे झोंपड़े थे, उन्हें हमने कायम रखा। हजारों साल पहले जैसी हमारी शिक्षा व्यवस्था थी वही चलती रही। हमने नाशकारक होड़ को समाज में जगह नहीं दी; सब अपना-अपना धंधा करते रहे। उसमें उन्होंने दस्तूर के मुताबिक दाम लिये। ऐसा नहीं था कि पारंपरिक यंत्रों से बेहतर यंत्र वगैरह की खोज करना हमें नहीं आता था। लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग अगर अपने स्वभाविक सामर्थ्य के बदले परिष्कृत यंत्र वगैरह के झंझट में पड़ेंगे, तो वे तकनीक एवं यंत्र के अंतत: गुलाम ही बनेंगे और अपनी नीति एवं धर्म को छोड़ देंगे। उन्होंने सोच-समझकर कहा कि अधिकांशत: हमें ऐसे ही काम करना चाहिए जो हाथ-पैरों से हो सके। हाथ-पैरों का इस्तेमाल करने में ही सच्चा सुख है, उसी में तंदुरूस्ती है।''

''उसी तरह, उन्होंने सोचा कि बड़े महानगर खड़े करना बेकार का झंझट है। उनमें कुल मिला कर लोग सुखी नहीं रहेंगे। उसमें स्थानीय समुदाय और नैतिक बंधानों का क्षरण होगा तथा झुग्गी-झोपड़ियाँ पैदा होगी, धूर्तों की टोलियाँ एवं वेश्याओं की गलियाँ पैदा होंगी; गरीब अमीरों से लूटे जायेंगे। इसलिए उन्होंने छोटे आकार के गाँव एवं नगरों से संतोष किया। उन्होंने देखा कि राजाओं और उनकी तलवार की वनिस्बत नीति का बल ज्यादा बलवान है। इसलिए उन्होंने राजाओं को नीतिवान पुरूषों, ऋषियों और फकीरों से कम दर्जे का माना।'' गांधी कहते हैं कि हिन्दुस्तान जैसी सभ्यता दूसरों को सिखाने लायक है; न कि दूसरों से सीखने लायक। इस राष्ट्र में पारंपरिक अदालतें थी, आधुनिक वकीलों के पारंपरिक विकल्प थे, पारंपरिक डॉक्टर-वैद्य भी थे। लेकिन वे सब ठीक ढ़ंग से, नियम के मुताबिक चलते थे। सब जानते थे कि ये पेशेवर धन्धो अन्य धन्धो एवं पेशों से अपने आप में बड़े नहीं हैं और पारंपरिक पेशेवर लोग समाज में लूट नहीं चलाते थे, वे तो लोगों के स्वजन एवं आश्रित थे।

भारत की पारंपरिक सभ्यता अब भी दूर-दराज के गांवों में एवं कस्बाई शहरों के पारंपरिक मुहल्लों में जीवंत बनी हुई है। उनमें कालक्रम से कुछ दोष भी आ गये हैं परंतु इन दोषों को लोग खुद भी दोष मानते हैं। उन्हें कोई सभ्यता नहीं कहता। वे दोष सभ्यता के बावजूद कायम रहे हैं। उन्हें दूर करने के प्रयत्न हमेशा हुए हैं, और होते ही रहेंगे। हममें जो नया जोश पैदा हुआ है, उसका उपयोग हम इन दोषों को दूर करने में कैसे कर सकते हैं? इस प्रश्न के उत्तार में गांधीजी कहते हैं कि किसी भी देश में, किसी भी सभ्यता के मातहत सभी लोग सम्पूर्णता तक नहीं पहुँच पाये हैं। हिन्दुस्तानी सभ्यता का झुकाव नीति को मजबूत करने की ओर है; पश्चिम की आधुनिक सभ्यता का झुकाव अनीति को मजबूत करने की ओर है। पश्चिम की आधुनिक सभ्यता अनीश्वरवादी है, हिन्दुस्तान की सभ्यता ईश्वर को मानने वाली है। इसीलिए आधुनिक पश्चिम की सभ्यता एवं इसका प्रतिनिधित्व करने वाली अंग्रेजी राज को विनाशकारी मानना पड़ता है।

  डा० अमित कुमार शर्मा के अन्य लेख  

 

top