Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

खंडहर से हाउसफुल तक (1983 - 2010)

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खंडहर से हाउसफुल तक (1983 - 2010)

 

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मृणाल सेन की फिल्म खंडहर (1983) मूल रूप से वेटिंग फॉर गोदो की संरचना से प्रभावित ठेंठ भारतीय फिल्म है। इसमें मृणाल सेन की पत्नी गीता सेन ने एक अंधी और बूढ़ी मां का रोल निभाया था जो इंतजार कर रही है उस आदमी का जो लौटने का और लौटकर उसकी बेटी से शादी करने का वायदा करके गया था। बेटी है शबाना आजमी, जो यह जानती है कि वह आदमी कभी नहीं आएगा। वह तो पहले ही शादी करके कोलकाता में रह रहा है और एक बच्चे का पिता भी है। अंधी मां के पास प्रतीक्षा का आशावाद है। वह खंडहर होते जीवन के बीच उम्मीद के विजन को ध्वस्त नहीं होने देगी। वह एक खंडहर में  मैले - कुचैले बिस्तर पर पड़ी रहती है। यह खंडहर पुराने मूल्यों का खंडहर है। जान पड़ता है कि अंधी मां भारतीय जनता है, जो यथार्थ की तह में नहीं जा पाती और एक रोमांटिक कुहासे के पार नहीं देख पाती। वह एक अनंत प्रतीक्षा के छोर पर है। खंडहर ने एक ऐसा बियाबान सृजित किया था, जो भारतीय उजाड़ को बड़ी तकलीफ के साथ आकार देता था कि जैसे वह लोकतंत्र का वीराना हो। भारतीय मुफलिसी का मेटाफर। एक ढहता हुआ राजनीतिक और अर्थतंत्र का प्रतीकात्मक छवि। सारी बड़ी रचनाओं में दृश्य और दृश्य के पार जाने के बीच निरंतरता का गुण हुआ करता है।
1983 में मृणाल सेन की 'खंडहर', जितेन्द्र - श्रीदेवी की 'हिम्मत वाला' और एकदिवसीय क्रिकेट में कपिलदेव के नेतृत्व में वर्ल्ड कप एक साथ आया था। उससे पहले 1982 में एशियन गेम्स हुआ था और रंगीन टेलीविजन पर मनोरंजक सिरियल का आगमन हो चुका था। मृणाल सेन की 'खंडहर व्यावसायिक रूप से असफल फिल्म थी।' हिम्मतवाला को छप्पड़ - फाड़ सफलता मिली थी। 1991 में नरसिम्हाराव ने उदारीकरण शुरू किया। 1991 में अमिताभ बच्चन की 'हम' आयी। यह अपने एक फूहड़ गाने के कारण चर्चित हुई। गोविन्दा भी 'हम' में था। लेकिन गोविन्दा को फूहड़ता का बादशाह डेविड धवन ने बनाया। 1992 में डेविड धवन ने गोविन्दा के साथ 'शोला और शबनम' बनाकर सफलता का झंडा गाड़ा। 1993 में 'ऑंखे' आई और गोविन्दा का युग शुरू हुआ। 2001 तक गोविन्दा युग चलता रहा। 1999 में सलमान खान ने डेविड धवन के साथ 'बीबी नम्बर वन' की। इसी साल 'हेलो ब्रदर' आई और 1989 से सफल सलमान खान का फूहड़ फेज शुरू हुआ। सन 2000 में प्रियदर्शन ने एक्सन हीरो अक्षय कुमार को 'हेरा - फेरी' का नायक बनाया और अक्षय कुमार की कॉमेड़ी शुरू हुई। सन 2000 से 2010 के 'हाउसफुल' तक अक्षय कुमार की सफलता 1990 के दशक के गोविन्दा और 1980 के दशक के जितेन्द्र की तरह थी।
समकालीन भारतीय समाज धीरे धीरे फूहड़ मनोरंजन का प्रशंसक होता जा रहा है। अक्षय कुमार इसका प्रतीक है। हाउसफुल (2010 निर्देशक साजिद खान) इसका प्रतीक है। साजिद खान ने पहले भी अक्षय कुमार को लेकर 'हे बेबी' बनाया था। 'हे बेबी' भी हिट थी। 'हाउसफुल' सुपरहिट है। साजिद की बहन फराह खान भी अक्षय कुमार को लेकर 'तीस मार खां' बना रही है। अब तक फराह खान शाहरूख खान को लेकर 'मैं हूँ ना' और 'ओम शांति ओम' बना चुकी है। फराह के पति शिरीष कुंदुर की फिल्म 'जानेमन' में भी अक्षय कुमार और सलमान खान थे। यह असफल फिल्म थी। 'ओम शांति ओम' में शाहरूख - फराह खान ने तथा 'सिंह इज किंग' में अक्षय कुमार और अनीस बज्मी ने दर्शकों को मूर्ख बनाया था। दोनों की सफलता प्रायोजित थी। इनकी तुलना में राजकुमार संतोषी की पिछले वर्ष (2009) में रिलीज कॉमेड़ी फिल्म 'अजब प्रेम की गजब कहानी' एक बेहतर फिल्म है। इश्किया (अभिषेक चौबे) भी एक औसत दर्जे की मनोरंजक फिल्म है। वेक अप सिड़ (अयान मुखर्जी) भी एक औसत दर्जे की पारिवारिक फिल्म है। लाइफ इन ए मेट्रो (अनुराग बसु) की तरह इसमें सामाजिक बदलाव को पकड़ने की कोशिश की गई है। जबकि इश्किया माइन्डलेस मनोरंजक की फिल्म है। 1983 से जितेन्द्र, 1993 के आसपास से गोविन्दा 1999 से सलमान खान तथा 2000 से अक्षय कुमार ने हास्य फिल्मों में फूहड़ चरित्रों को निभाना शुरू किया। 2003 से राजू हीरानी ने हास्य फिल्मों को नया आयाम देना शुरू किया। इसके बावजूद अक्षय कुमार की सफल फिल्मों की संख्या सब पर भारी पड़ने लगी।

1982 - 1983 से भारतीय समाज में फूहड़ आधुनिकता और पूंजीवादी मूल्यों के प्रति मध्यवर्गीय आकर्षण बढ़ने लगा। इसी की परिणदी हिन्दी सिनेमा और टेलीविजन सीरियलों में अभिव्यक्त हुआ है। मृणाल सेन ने 1969 में भुवन शोम बनायी थी। इससे हिन्दी में समानांतर सिनेमा का जन्म हुआ था। 1983 तक आते - आते समानांतर सिनेमा का अंत हो गया। खंडहर (1983) के द्वारा मृणान सेन ने इसको भी अभिव्यक्ति दी। भुवन शोम  (1969) की एक मनोरंजक फिल्म थी।

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