Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

तीसरी कसम (1966) बासु भट्टाचार्य

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तीसरी कसम (1966) बासु भट्टाचार्य

 

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    इसके बाद वह सवारी ढ़ोने लगता है। इसी क्रम में उसकी मुलाकात शहर की एक नौटंकी कंपनी की नर्तकी हीराबाई से होती है। वह हीराबाई को शहर के रेलवे स्टेशन से दूर के कस्बे में ले जाता है जहां नौटंकी होने वाली है। उस कस्बे में बहुत से गाड़ीवान एक छोटे से कस्बाई होटल के सामने बैठकर लोकगीत गाते हैं। हीरामन भी अपने साथी गाड़ीवानों के साथ उस लोकगीत का हिस्सा बन जाता है। हीराबाई हीरामन के बैलगाड़ी में रात को आराम करती है। हीरामन का एक दोस्त रात को उसकी रखवाली करता है। दूसरे दिन हीराबाई नौटंकी कंपनी के टेंट में चली जाती है लेकिन हीरामन से आग्रह करती है कि वह नौटंकी देखने के लिए कस्बे में रूक जाए। हीरामन रूक जाता है। दरअसल रास्ते में ही दोनों के बीच रागात्मक संबंध विकसित हो गया था जो धीरे - धीरे प्रेम के रूप में ठोस शक्ल लेता है। हीराबाई के जीवन में प्रेम की ऐसी निश्छल अनुभूति अनोखी घटना थी। उसने हीरामन जैसा पुरूष कभी पहले देखा ही नहीं था। न हीरामन ने हीराबाई जैसी किसी स्त्री को देखा था। हीराबाई ने दुनिया देखी थी, दुनियादारी देखी थी लेकिन ऐसा निश्छल प्रेम, इतना भोला इंसान, ऐसा रागात्मक संबंध नहीं देखा था। लेकिन वह जमाने के डर से डर जाती है और हीरामन को छोड़कर शहर चली जाती है। हीरामन उसे जाते देखता है। उसे रोकने की कोशिश नहीं करता है। लेकिन उसका दिल टूट जाता है और वह तीसरी कसम खाता है कि अब वह किसी कंपनी की बाई को अपनी गाड़ी पर नहीं बैठायेगा। और फिल्म यहीं समाप्त हो जाती है। हीरामन अपने गांव और अपने घर लौट जाता है। 1966 के दर्शकों को यह अंत अच्छा नहीं लगा। दर्शक चाहते थे कि हीराबाई हीरामन के साथ अपनी गृहस्थी बसाती और इस फिल्म का सफल अंत होता। यदि इस फिल्म के निर्देशक राजकपूर होते तो नि:संदेह इसका सुखद अंत होता। 'आग' से 'रामतेरी गंगा मैली' तक अपनी सभी फिल्मों में राजकपूर की फिल्मों का अंत संखद रहा है। दरअसल वे आशावादी फिल्मकार थे। जबकि बिमल रॉय की फिल्मों के अंत निश्चित नहीं होते थे। बासु भ्रट्टाचार्य एक प्रयोगवादी फिल्मकार थे जिनके फिल्मों में निराशा या अवसाद का स्थायी भाव रहा है। परंतु 'तीसरी कसम' मूलत: शैलेन्द्र एवं रेणु की फिल्म थी बासु भ्रट्टाचार्य मात्र  इसके निर्देशक थे। तीसरी कसम का अंत त्रासदी में रूपांतरित नहीं होता। हीरामन देवदास की तरह एक ट्रैजिक हीरो नहीं है। वह हृषिकेश मुखर्जी के नायक 'आनंद'(1970) से मिलता - जुलता जिंदादिल इंसान है। वह कसम खाकर अपनी जिन्दगी का गुबार निकाल कर आगे बढ़ जाता है। वह अपने सनातनी जीवन दृष्टि के साथ हर स्थिति में मस्त रहता है। अपने इसी मस्त चरित्र के कारण 'तीसरी कसम' का नायक हीरामन एक कालजयी चरित्र बन गया है। हीरामन के रचयिता रेणु का जन्म 4 मई 1921 को हुआ था और 11 अप्रैल 1977 को उनकी मृत्यु हुई। 'तीसरी कसम' के निमार्ता एवं गीतकार शैलेन्द्र का जन्म 30 अगस्त 1930 को हुआ था और उनकी मृत्यु 14 दिसंबर 1966 को हुई। रेणु को डर था कि औद्योगीकरण की पश्चिमी प्रक्रिया को अपनाने के क्रम में भारत अपनी पहचान खो सकता है। शैलेन्द्र को भय था कि इस परिवर्तन की प्रक्रिया में भारतीय सिनेमा को गेर - भारतीय बनाने के प्रयास होंगे। शैलेन्द्र अपने फिल्मी गीत लेखन के क्षेत्र में रेणु के साहित्यिक काम को ही विस्तार दे रहे थे। 'तीसरी कसम' दोनों की श्रेष्ठतम रचना है। यह घोर भारतीय रचना है। इसमें भारतीय संस्कृति के बीज तत्व हैं। 

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