आधुनिक नास्तिकता
अपनी हर खूबी के बावजूद आधुनिकता नास्तिक जीवन दर्शन पर आधारित है। जबकि अपनी समकालीन कमियों के बावजूद परम्परा एक आशावादी आस्तिक जीवन दर्शन पर आधारित है। परम्परा में हर प्रयास अर्थपूर्ण है। आधुनिकता में केवल सांसरिक सफलता का अर्थ है। इसीलिए सांसारिक सफलता का अर्थ है। इसीलिए सांसारिक सफलता के लिए इतनी मार- काट है। इसके लिए गला- काट प्रतियोगता है। इतनी बदहवाशी है कि दुर्घटनाएं एवं 'साइको-सोमैटिक'(मानसिक-भावनात्मक) बीमारी सामान्य परिस्थिति बन चुकी है। आधुनिक सभ्यता केवल वीर एवं सफल लोगों के उपभोग के लिए है जबकि पारम्परिक सभ्यता सर्वोदय एवं सबके कल्याण के लिए है। उपभोग के हर संभव प्रतीक को ताबडतोड अपनाकर हम जल्दी से जल्दी आधुनिक हो जाना चाहते हैं। समाज का हर वर्ग इस जल्दी से सहमत लगता है। आधुनिकता की वैचारिक तैयारी की बात सुनकर विश्वविद्यालय स्तर के छात्र- छात्राएं बोर हो जाते हैं। उनकी पढ़ाई स्वयं एक प्रतीक होती है। बिरले ही कोई बौध्दिक चुनौती महसूस करते हैं। ज्यादातर युवा यह माने या जाने बगैर शिक्षा पूरी कर लेते हैं कि पश्चिम की आधुनिकता एक लंबे और कष्टप्रद मंथन से उपजी थी। औपनिवेशिक दुनिया का यह सुख शिक्षित शहरी समाज को लपेटे रहता है कि किसी चीज का वरण या त्याग सिर्फ एक नकल है। जबकि पश्चिम की आधुनिकता तेरहवीं शताब्दी से बीसवीं शताब्दी के पूर्वाध तक काफी संघर्ष करके अपने वर्तमान स्वरूप में संस्थाबध्द हुई है। भारत में भी राजा राम मोहन राय के समय से यानि 18वीं शताब्दी के अंतिम दशकों से आधुनिकता और परम्परा के बीच रस्सा-कशी चलती रही है और भारत ने एक प्रकार के हाइब्रिड यानि मिश्रित आधुनिकता को अपनाया है। इस आधुनिकता के झंडा बरदार स्वामी विवेकानन्द एवं स्वामी दयानन्द हैं जिन्होंने आस्तिकता एवं आधुनिकता के बीच एक प्रकार का स्वादिष्ट व्यंजन बनाने की कोशिश किया जिससे एक नास्तिक दुनिया में आस्तिक हिन्दुओं का किसी तरह गुजारा हो सके और इनके प्रभाव में पश्चिम के आधुनिक लोगों का भी कुछ कल्याण हो सके। उपनिवेशवादी व्यवस्था एवं मानसिकता का सबसे प्रमुख सिध्दांतकार इमैनुएल कैंट था। मैक्स वेबर एवं पार्सन्स ने इसको समाजविज्ञानों में स्थापित किया। यह नास्तिक व्यवस्था है। यह शैतानी व्यवस्था है। यह राक्षसी व्यवस्था है। नित्से ने कैंट की शैतानी पैराडाइम का अकादमिक खंडन किया। विल्फ्रेड पैरेटो (एवं कुछ हद तक कार्लमार्क्स) एवं लेवी स्ट्रॉस ने नित्से से बिना प्रत्यक्ष प्रेरणा लिए ही समाज विज्ञान में इसकी जमीन तैयार की। मिशेल फुको, ल्योतार और डेरिदा आदि उत्तरआधुनिकतावादियों ने समाज विज्ञान में इसे झिझकते हुए साबित किया। इसी तरह का प्रयास मैकिस मैरियट ने भी किया। उत्तरआधुनिकता एक प्रकार से पैगनिज्म एवं वर्णव्यवस्था की झिझकते हुए ही सही स्वीकृति है। लेकिन यह काफी नहीं है। इसके लिए pagan theology का नया political economy उपलब्ध नहीं है। इसके लिए trained missionarie नहीं हैं। अत: इसका भी cooption हो चुका है। यह स्वाद बदलने वाली जायका बन गई है।
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