डा. भीम राव अम्बेडकर - वंचित समूहों के प्रमुख सिध्दांतकार
वंचित समूहों के सबसे प्रमुख सिध्दांतकार के रूप में बाबा साहब 1990 के दशक में ही स्थापित हो पाये। भारतीय समाजशास्त्र में उन्हें एक सिध्दांतकार का दर्जा 1990 के उत्तरार्ध्द में मिलना शुरू हुआ। इससे पहले उन्हें केवल दलित नेता या दलित विचारक माना जाता था। उनको महाराष्ट्र के संदर्भ में दलित उध्दार से जोड़ा जाता था, संविधान निर्माण के लिए बनी प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में, भारतीय संविधान के निर्माता के रूप में आदर दिया जाता था तथा अनुसूचित जाति जनजातियों के आरक्षण के संदर्भ में याद किया जाता था। उनके वंचित समूहों के दृष्टिकोण के सबसे प्रमुख सिध्दांतकार के रूप में उभरने में 1977 के बाद की भारतीय समाज की ऐतिहासिक-सामाजिक घटनाओं की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका है। रणजीत गुहा एवं उनके सहयोगियों ने सपनों में भी नहीं सोचा था कि उनके सहयोगी प्रयाासों से भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन की जो प्रक्रिया शुरू होगी उससे नव-मार्क्सवादी दृष्टिकोण के बदले बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर महिमामंडित होंगे। प्रारंभ में तो यही लगा था कि वंचित समूहों में जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया या चारूमजूमदार लोकप्रिय होंगे या बिरसा मुंडा जैसे स्थानीय महानायक की पुनर्प्रतिष्ठा होगी और भारतीय समाज के ऐतिहासिक विकास में राज्य और बाजार के मुकाबले ज्यादा मानवीय, पयार्वरण को संपुष्ट करने वाली विकेंन्द्रित समाजवादी मूल्यों की प्रतिष्ठा होगी। इसमें अम्बेडकर के दलित विमर्श या एन.जी.ओ., ईसाई मिशन केंद्रित जनजाति एवं नारीवादी विमर्श को महत्त्व मिलेगा लेकिन केंद्रियता तो नव-मार्क्सवाद प्रेरित समाजवादी विमर्श को ही मिलेगी। दूसरे शब्दों में रणजीत गुहा और उनके सहयोगियों ने वंचित समूहों के स्थानीय प्रतिरोधी आंदोलनों को नव-मार्क्सवादी भाष्य देकर मिश्रित व्यवस्था केंद्रित नेहरूवादी समाजवाद को रूपांतरित करने का उपक्रम किया। समाजवाद के भीतर से पूँजीवादी रूझान की नीतियों को रूपांतरित करके भारतीय समाज को पूरी तरह साम्यवादी या समाजवादी विकास के मार्ग पर जोड़ने की हसरत 1967 से 1969 के बीच पश्चिमी विश्वविद्यालयों में पढ़े-लिखे भारतीय मार्क्सवादियों में फलने-फूलने लगी थी। यह सोवियत संघ के नेतृत्व वाले समाजवादी देशों और अमेरिका के नेतृत्व वाले पूँजीवादी देशों के बीच 'शीत युध्द' (वैचारिक युध्द) का चरमकाल था। इसी काल खण्ड में फ्रांस में छात्र आंदोलन एवं उत्तर-आधुनिकतावादी आंदोलन का सूत्रपात हुआ। इसी काल में महाबली अमेरिका वियतनाम जैसे छोटे से देश को हराने में नाकाम रहा। उन दिनों अमेरिका समेत पश्चिम के अधिकांश देशों में हिप्पी आंदोलन, बीट्लस एवं उत्तर-आधुनिक जीवन मूल्यों को अपनाने का फैशन चरम पर था। 1970 के दशक में पर्यावरणवादी आंदोलनों को भी पश्चिमी समाज के युवक आशाभरी निगाह से देख रहे थे। पश्चिमी युवाओं के एक बड़े वर्ग ने गिरिजाघरों में जाना बंद कर दिया था और इन में से एक बड़े वर्ग का पूर्व के देशों में प्रचलित आध्यात्मिक संप्रदायों, आश्रमों एवं धर्म गुरूओं में आकर्षण पैदा हो गया था। दलाईलामा, ओशो रजनीश, इस्कॉन आंदोलन के प्रभुपाद, महर्षि महेशयोगी, पंडित रविशंकर, जुबिन मेहता, आनंदमुर्ति प्रभातरंजन सरकार के अनुयायियों की संख्या पश्चिमी युवाओं में अचानक बहुत बढ़ गई। मीडिया में इनके प्रचार से भारतीय मध्यवर्ग में भी इनके प्रति आकर्षण बढ़ा। 1980 के दशक में भारतीय मूल के पेशेवर मध्यवर्ग (इंडियन डायसपोरा) का अमेरिका में प्रभाव एवं संख्याबल काफी बढ़ा। इसमें दलित डायसपोरा भी अच्छी संख्या में थे। 1980 में इंग्लैंड में मार्गरेट थैचर और अमेरिका में रोनाल्ड रीगन के नेतृत्त्व में पूँजीवादी नव-उदारवाद ने नये जोश के साथ पूँजीवादी व्यवस्था को मजबूत करना शुरू किया। 1977 से 1979 तक आते-आते जनता पार्टी की सरकार अपने अंतर्विरोधों से बिखरने लगी। मोरारजी के नेतृत्त्व में चरण सिंह और राजनारायन जैसे समाजवादी रूझानों वाले पिछड़े वर्ग के हिमायती नेताओं ने असहजता महसूस किया। मोरारजी के स्थान पर जनता पार्टी के नेता बाबू जगजीवनराम निवार्चित हुए। वे बाबा साहब अम्बेडकर के बाद अनुसूचित जनजातियों (दलितों) के सबसे प्रतिष्ठित नेता रहे हैं। बाबा साहब अम्बेडकर के कांग्रेस छोड़ने के बाद भी 1980 के दशक के पूर्वाध्द तक देशों के अधिकांश दलित कांग्रेस पार्टी के साथ बने रहे थे। इसको दो महत्त्वपूर्ण कारण माना जाता है। पहला, महात्मा गांधी द्वारा अछूतों की भलाई के लिए किया गया कार्य और दूसरा बाबू जगजीवनराम जैसे जमीन से जुड़े नेताओं का कांग्रेस पार्टी से जुड़ा होना। लेकिन जब 1980 में पिछड़े वर्ग के दबंग जातियों के नेताओं (चौधरी चरण सिंह, नीलम संजीव रेड्डी आदि) ने विधि सम्मत तरीके से जनता पार्टी में मोरारजी देशाई के स्थान पर चुने गये नेता बाबू जगजीवनराम को प्रधानमंत्री बनने नहीं दिया और बिना संसद में एक भी दिन का बहुमत पाये चौधरी चरण सिंह को तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने कांग्रेस के जबानी आश्वासन पर प्रधानमंत्री की शपथ दिला दी तो अनुसूचित जनजातीयों का कांग्रेस और सर्वण नेताओं पर से भरोसा उठना शुरू हुआ। इसका लाभ मान्यवर कांशीराम ने उठाया। कांशीराम और मायावती 1977 के आस-पास एक-दूसरे से मिले। तबतक कांशीराम अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के फलस्वरूप नौकरी कर रहे अञ्किारियों एवं कर्मचारियों को संगठित करने के क्रम में महाराष्ट्र के अम्बेडकरवादी नेताओं की तुलना में ज्यादा लोकप्रिय तथा प्रभावी संगठक साबित हो चुके थे। जल्द ही उन्हें मायावती जैसी चमत्कारी नेता का सहयोग मिला। 1980 के चुनाव में इंदिरा गांधी की वापसी हुई। चुनाव जीतने के कुछ माह बाद ही उनके बदनाम पुत्र संजय गांधी की मृत्यु हो गई। संजय गांधी ने युवा कांग्रेस को 1970 के दशक में अनुशासनविहीन सत्तालोलुप युवाओं एवं बाहुबलियों का अखाड़ा बना दिया था। इमरजेंसी के दिनों में युवा कांग्रेस के हुल्लड़ ब्रिगेड की तूती बोलती थी। जबकि विश्वविद्यालयों के पढ़ाकू युवाओं में माओ, चेग्वेरा, हो ची मिन्ह, ज्याँ पॉल सार्त्र एवं चारू मजूमदार जैसे लोकप्रिय मार्क्सवादी नायकों के साथ-साथ उत्तर-आधुनिक विचारधारा एवं प्रवृत्तियों का आकर्षण फल-फूल रहा था।
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