भारतीय संस्कृति में नगरीय समुदाय
नगरीय समुदाय विभिन्न प्रकार के होते हैं। आकार की विभिन्नता के बावजूद कुछ निश्चित लक्षण पारंपरिक सामान्य रूप से पाए जाते हैं। पारंपरिक नगर प्राय: बड़ी-बड़ी दीवारों से घिरे रहते थे, ये किले-रूपी दीवारें नगरीय समुदाय को ग्रामीण समुदाय से पृथक करती थीं। केन्द्रीय क्षेत्र प्राय: एक विशाल सार्वजनिक स्थल होता था और कभी-कभी दूसरी आंतरिक दीवार से घिरा रहता था जो बाजार का काम करती थी। मुख्य भवन सामान्यत: धार्मिक अथवा राजनीतिक स्वरूप के होते थे जैसे मंदिर, मस्जिद, चर्च, राजमहल एवं अदालत। प्रशासक एवं कुलीन वर्ग के आवास मुख्यत: केन्द्र अथवा उसके समीप होते थे तथा साधारण जनता नगर की परिधि के आस-पास निवास करती थी। केन्द्रीय क्षेत्र, जहाँ पर उत्सव के अवसर पर लोग जमा होते थे, में सारे लोग आसानी से एक साथ बैठ सकते थे। नगरों के विस्तार का मुख्य कारण जनसंख्या वृध्दि और बाहरी लोगों का दूसरे गरीब देशों से प्रव्रजन था। डेविड पोकोक ने बल देकर कहा है कि भारत में गाँवों एवं पारंपरिक नगरों में कोई विभाजन नहीं है। दोनों एक समान भारतीय सभ्यता के तत्तव हैं। दूसरी ओर पारंपरिक भारतीय नगरों एवं उपनिवेशिक भारतीय नगरों में बहुत सी विभिन्नताएँ विद्यमान हैं। जहाँ पारंपरिक भारतीय नगर भारतीय सभ्यता के दृष्टिकोण से बसाये गये हैं, वहीं औपनिवेशिक भारतीय नगर पाश्चात्य अथवा आधुनिकता के प्रभावों के वाहक हैं। दोनों प्रकार के नगर एक साथ दो अंगों के रूप में एक ही नगर संस्थिति के रूप में अस्तित्व में रह सकते हैं। उदाहरणस्वरूप, पुरानी दिल्ली और नई दिल्ली। पोकोक उन समाजशास्त्रियों का सुव्यवस्थित रूप से प्रतिकार करते हैं जिनका मानना है कि भारत में नगरीकरण का तात्पर्य जाति व्यवस्था एवं संयुक्त परिवार के विखंडन से है। उनका यह भी मानना है कि भारतीय संदर्भ में नगरीकरण का तात्पर्य पश्चिमीकरण नहीं है। इसके विपरीत एम.एस.ए.राव का मानना है कि पोकोक ने भारतीय गाँवों एवं पारंपरिक नगरों में समानता को अतिरंजित कर दिया है। गाँव एवं नगरों की संस्था में संगठनात्मक एवं क्रियात्मक विभिन्नताएँ हैं। उदाहरणस्वरूप जहाँ गाँवों में जजमानी व्यवस्था होती है वहीं पारंपरिक नगरों में महाजन अथवा शिल्पसंघ प्रमुख हैं। दूसरे, यद्यपि जाति एवं सगोत्रता गाँवों और प्राचीन भारतीय नगरों में आम थे, परन्तु उनके संगठनात्मक स्वरूप में महत्तवपूर्ण अन्तर थे। तीसरे, यह दर्शाना आवश्यक है कि पैक्स ब्रिटेनिका ने भारतीय जीवन में अलग प्रकार की नागरिक संस्कृति एवं नगरीकरण को प्रोत्साहित किया। इस नगरीकरण का प्रभाव पारंपरिक नगरों पर पड़ा। इस प्रकार की पारस्परिक अंत: क्रिया से ग्रामीण एवं नगरीय परिवेश के संदर्भ में एक नए प्रकार के संयुक्त पारिवारिक संरचना का विकास देखा जा सकता है। नगरीय संदर्भ में संयुक्त परिवारों के स्वामित्व (संपत्ति) के संबंधों एवं पारस्परिक व्यक्तिगत व्यवहारों में अन्तर आया है। नगरों एवं गाँवों के बीच अन्त: क्रियाओं का स्वरूप कालक्रम में बदलता रहा है। नगरीय समुदाय की विशेषताएँ समकालीन भारत में नगरीय समुदायों की विशेषताएं निम्नलिखित हैं :- 1. सामाजिक विषमता : एक बड़ी जनसंख्या का छोटे क्षेत्र में केन्द्रीकरण सामाजिक विषमता को प्रेरित करता है। जनसंख्या घनत्व अपेक्षित लाभ के लिए प्रतियोगिता को प्रेरित करता है तथा इसके फलस्वरूप विशिष्टीकरण की प्रक्रिया में वृध्दि होती है। नगर हमेशा से ही एक ऐसे बर्तन के समान रहा है, जिसमें विभिन्न प्रकार के लोगों एवं संस्कृतियों का मिलन होता है। यह विश्व के विभिन्न भागों से लोगों को आकर्षित करता है एवं उन्हेें न केवल सहन करता है, बल्कि विशिष्ट स्थान देता है। 2. सामाजिक नियंत्रण : नगर में व्यक्ति प्राय: सघन सामाजिक नियंत्रण से मुक्त होते हैं। सामाजिक जीवन में विलगाव एवं अकेलापन नगरीय देन है। बडे नगरों में नियंत्रण की समस्या भी बढ़ जाती है एवं द्वितीय नियंत्रण के साधन जटिल हो जाते हैं। सामाजिक न्याय एवं सांस्कृतिक पहचान को कायम रखने के लिए दबाब समूह का महत्व बढ़ जाता है। 3. स्वैच्छिक संस्थाएँ : जनसंख्या घनत्व व आकार, सांस्कृतिक विभिन्नताएँ और सहज संपर्क स्वैच्छिक संस्थाआें के विकास के लिए नगर को एक आदर्श स्थान बना देते हैं। नगरों में सभी द्वितीयक समूह एक प्रकार की स्वैच्छिक विशेषता प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार के समूह में सदस्यता रिश्तेदारी एवं प्रदत्त प्रस्थिति पर निर्भर नहीं करती है। नगरों में विभिन्न प्रकार के क्लब, संस्थाएँ एवं अपूर्व-स्वशासित संगठन पाए जाते हैं। 4. व्यक्तिवाद : नगरीय संगठन का द्वितीयक एवं स्वैच्छिक स्वरूप, अवसरों की बाहुल्यता एवं सामाजिक गतिशीलता, व्यक्ति को बाधय करते हैं कि वह अपना निर्णय स्वयं ले एवं अपने भविष्य को नियोजित करे। नगरीय जीवन की प्रतियोगिताएँ पारिवारिक देखभाल एवं वचनबध्दता के लिए बहुत कम अवसर देती हैं फलस्वरूप नगरीय जीवन में स्वार्थ एवं व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिलता है। 5. सामाजिक गतिशीलता : नगर सामाजिक गतिशीलता को चरितार्थ एवं प्रोत्साहित करते है। नगरों में विस्तृत एवं योजनाबध्द श्रम विभाजन होता है। यह किसी व्यक्ति की प्रदत्ता प्रस्थिति पर निर्भर नहीं करके उसकी उपलब्धि पर निर्भर करता है। अपने जीवन काल में ही नगरीय व्यक्ति अपने प्रयासों से अपनी प्रतिष्ठा बढ़ा व घटा सकता है। प्रतिष्ठा के लिए प्रतियोगिता नगरवासियों के लिए एक अन्तहीन कार्य बन जाती है। नगरीय संगठन एक औपचारिक संगठन (जिसको क्षमता दक्षता एवं नवीनता के आधार पर चुना जाता है) के द्वारा संचालित होता है। यह एक खुले वर्गीकरण को प्रोत्साहन देता है जिसकी विशेषता विजातीयता होती है। 6. अत्यधिक असमानता : नगरीय जनसंख्या की विभिन्नता एवं अवैयक्तिक संबंधों को धयान में रखते हुए नगरों में विचारों एवं रूचियों के विषय में एक निश्चित सीमा तक सहिष्णुता पाई जाती है। नगरों में एक निश्चित सीमा तक बाह्य समरूपता, शिष्टाचार एवं सुविञ होती है। नगरीय क्षेत्रों में अत्यधिक गरीबी एवं समृध्दि दोनों ही पाई जाती है। नगरीय समुदाय में झुग्गी झोपड़ी एवं अभिजात क्लब अत्यधिक विषमता के मुख्य उदाहरण हैं। 7. स्थानिक वियोजन : विषमतापूर्ण एवं क्रियाशील नगर में स्थान के लिए प्रतियोगिता एक प्रकार के पृथक्करण को जन्म देती है जो वर्ग एवं क्रियाओं के आधार पर होता है एवं इसका स्वरूप स्थानिक होता है। नगरीय क्षेत्र के केंद्र पर वित्त एवं शासन संबंधी क्रियाकलापों में लगी स्ंस्थाओं का व्यवसायिक केंद्र खर्चीले शौकों की पूर्ति करते हैं। उदाहरणस्वरूप, बड़ी विभागीय दुकानें, थियेटर, बडे होटल, आभूषण की दुकानें इन्हीं केंद्रों में स्थापित होती हैं। अत्यधिक मँहगी व्यवसायिक सेवाएँ जैसे अस्पताल, स्वस्थ्य केन्द्र, प्रशिक्षण संस्थान, कानूनी दफ्तर, बैंक इत्यादि भी नगर के केन्द्रीय भाग में ही पाए जाते हैं।
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