भारत में नातेदारी व्यवस्था
भारत में नातेदारी व्यवस्था विवाह से संबंधित प्रथाओं एवं रीतियों की विविधता को अभिव्यक्त करती है। अखिल भारतीय स्तर पर भारत में नातेदारी के बारे में सामान्यीकरण करना संभव नहीं है। भारत में एक संगठन के रूप में नातेदारी व्यवस्था काफी हद तक क्षेत्रीय संस्कृति का एक आयाम है। इरावती कर्वे ने भारत में नातेदारी व्यवस्था के चार क्षेत्रों (उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम) की चर्चा की है। कई अन्य लोग भारत में दो नातेदारी व्यवस्थाओं की चर्चा करते हैं : उत्तर भारतीय नातेदारी व्यवस्था एवं दक्षिण भारतीय नातेदारी व्यवस्था। उत्तर भारतीय एवं दक्षिण भारतीय नातेदारी व्यवस्थाएँ आर्य एवं द्रविड़ नातेदारी व्यवस्था के रूप में भी जानी जाती हैं।
उत्तर भारतीय एवं दक्षिण भारतीय नातेदारी व्यवस्थाएँ दक्षिण भारतीय क्षेत्र में एक खास प्रकार के करीबी रिश्तेदारों, खासकर ममेरे- फुफेरे भाई-बहनों में विवाह विशेष रूप से पसन्द किया जाता है। परन्तु चचेरे या मौसेरे भाई-बहनों का विवाह कभी नहीं होता। कुल मिलाकर पति-पत्नी के माता-पिता (या आपस में विवाह करने वाले समूहों) की प्रस्थिति बराबर होती है। अक्सर दोनों समूह भौगोलिक रूप से एक-दूसरे के काफी नजदीक होते हैं, कई बार तो एक ही गांव में रहते हैं। दुल्हन अपने विवाह संबंधियों से पूर्व परिचित होती है। दक्षिण भारत में नये वैवाहिक संबंध के द्वारा पूर्व स्थापित नातेदारी संबंध मजबूत बनते हैं परंतु नातेदारी का दायरा विस्तृत नहीं होता।
इसके विपरीत, उत्तर भारत में ममेरे-फुफेरे भाई-बहनों के बीच विवाह को स्वीकृति नहीं है। सच तो यह है कि उत्तर भारत में पहले से नजदीकी नातेदारी संबंधों में बंधे लोगों के बीच वैवाहिक संबंध का निषेध है। सामान्यत: एक गांव या शहर के लोग भौगोलिक रूप से काफी दूर-दूर विवाह करना पसन्द करते हैं। ज्यादातर लोग ग्राम बहिर्विवाह के नियम को भी मानते हैं। इस क्षेत्र में नातेदारी संबंध के दायरे को विस्तृत करने पर जोर दिया जाता है न कि पूर्व स्थापित संबंधों के दायरे को ज्यादा गहरा करने पर। उत्तर भारतीय नातेदारी व्यवस्था में दुल्हन पति के परिवार में एकदम अपरिचित की तरह आती है। अपने वैवाहिक संबंधियों के द्वारा किए गये असहिष्णुतापूर्ण व्यवहार के कारण वह कभी-कभी काफी निरीह महसूस करती है। उत्तर भारत में ऐसे विवाह सामान्यत: सामाजिक रूप से असमान सामाजिक पस्थिति वाले समूहों को जोड़ते हैं। वर - मूल्य की प्रथा (डाउरी) के कारण्ा कन्या पक्ष और दुल्हन को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से कई समस्यायें झेलनी पड़ती है।
समकालीन भारत में नातेदारी नातेदारी संबंध ज्यादातर भारतीयों के लिए आज भी महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। संकट काल में ज्यादातर भारतीय प्राथमिक रूप से अपने नातेदारी संबंधों पर ही भरोसा करते हैं। जब किसी संबंधी की मृत्यु होती है तो नातेदारी से जुड़े सभी स्त्री-पुरूष शोक संतप्त परिवार को सहयोग देने के लिए तत्पर रहते हैं। जब कोई व्यक्ति किसी नये स्थान में प्रव्रजन करता है तो वह सबसे पहले अपने रक्त या विवाह संबंधियों को ही संपर्क करता है। जब किसी व्यक्ति को नौकरी की आवश्यकता होती है तो उसके संबंधियों द्वारा हर संभव मदद की जाती है। जब वह किसी नई जगह में जाता है तो शुरू में वह अपने संबंधियों के यहां ही ठहरता है। जब उसे विवाह करना होता है तो उसके विवाह के लिए प्रस्ताव उसके नातेदारी संबंधियों की मधयस्थता से ही आता है। इसी प्रकार जब किसी परिवार में विवाह संपन्न होता है तो नातेदार ही दूल्हे तथा दुल्हन को उपहार देने का आवश्यकर् कत्तव्य निभाते हैं। अधिकांश भारतीयों के जीवन में नातेदारी सामाजिक एवं सांस्कृति जीवन की रूपरेखा प्रस्तुत करता है। जाति, वर्ग एवं पड़ोस भी महत्त्वपूर्ण होता है परंतु नातेदारी की भूमिका इनमें से किसी से भी ज्यादा प्रभावकारी होती है।
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