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लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067
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भारत में संसदीय लोकतंत्र का भविष्य
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भारत में संसदीय लोकतंत्र का भविष्य
भारतीय परिस्थिति के अनुरूप संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था सबसे उपयुक्त व्यवस्था है। भारत में जैसी विविधता है उसका प्रतिनिधित्व राष्ट्रपति प्रणाली में नहीं हो सकता। भारतीय मध्यवर्ग का एक तबका अमेरिका की तरह भारत में भी राष्ट्रपति प्रणाली लागू करने का समर्थन करता है। उनको लगता है कि संसदीय प्रणाली काफी दोषपूर्ण व्यवस्था है। इसमें नेता का निवार्चन सीधे जनता नहीं करती है। फलस्वरूप देश का प्रधानमंत्री जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं होकर जिस संसद, संसदीय दल और दलों के बेमेल गठबंधन की राजनीति के प्रति है, वह भ्रष्टाचार एवं महंगाई के लिए जिम्मेदार माना जा रहा है। माना जाता है कि मनमोहन सिंह एक भले इंसान और ईमानदार प्रधानमंत्री हैं। लेकिन गठबंधन की मजबूरी के कारण वे द्रमुक मंत्री ए. राजा एवं शरद पवार जैसे भ्रष्ट मंत्रियों को नकेल नहीं डाल पाते या मंत्री बनाते हैं। लेकिन उसके बिना तब भारत की राजनीति विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा अमेरिकी दवाब में 2007 - 2008 से ही बर्बादी की तरफ बढ़ चुकी होती। अमेरिकी लॉबी ने भारतीय अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर दिया होता। मनमोहन सिंह या राहुल गांधी राष्ट्रपति बन कर तानाशाह की तरह अमेरिकी नीतियों को उसी तरह लागू करते जिस तरह मिस्र के भूतपूर्व राष्ट्रपति हुश्नी मुबारक और पाकिस्तान के अधिकांश शासकों ने अपने देशों में किया था। विश्व अर्थव्यवस्था का दबाव भारत जैसे राष्ट्रों की नीतियों को 1947 से ही प्रभावित करता रहा है, जिससे देशों में गरीब परस्त एवं भारत परस्त नीतियां लागू नहीं हो पातीं। लेकिन राष्ट्रपति प्रणाली में मीडिया, पूंजी एवं मध्यवर्ग का खेल ज्यादा खुले रूप से खेला जाता है।
आज के समय में उपरोक्त दोनों प्रणालियों के अलावे कोई तीसरा विकल्प व्यावहारिक स्तर पर उपलब्ध नहीं है। गांधी जी ग्राम स्वराज की बात करते थे। राष्ट्रीय स्तर पर ग्राम स्वराज भारत में पिछले 2500 वर्षों में नहीं रहा है। ग्राम स्वराज स्थानीय स्तर पर काफी हद तक एक स्वायत्त व्यवस्था रही है लेकन क्षेत्रीय स्तर पर सामंत एवं राज्य स्तर पर राजा या बादशाह होते रहें हैं। इस देश में प्राचीन काल से ही कई राज्य रहे हैं। मध्यकाल में भी कोई अखिल भारतीय राज्य नहीं रहा है। अंग्रेजी राज्य भी अखिल भारतीय नहीं थी। अंग्रेजी राज के दौरान करीब 600 देसी राज्य थे। स्वतंत्रता मिलने के बाद इस देश का बंटवारा हो गया। इस तरह, लोकतंत्र के जमाने में संसदीय प्रणली के तहत ही इस देश की प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक विविधता का प्रतिनिधित्व हो पाता है। धीरे-धीरे भारतीय लोकतंत्र परिपक्व हो रहा है। अत: स्वाभाविक तौर पर बेहतर क्षेत्रीय दलों का विकास हो रहा है। गठबंधन की राजनीति लोकतंत्र के लिए सबसे स्वाभाविक राजनीति है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कांग्रेस एक राष्ट्रीय गठबंधन का निर्माण करने में सफल हुई थी। लेकन 1977 आते-आते कांग्रेस पार्टी का चरित्र बदलने लगा था। फलस्वरूप जनता पार्टी शासन में आयी। 1980 में जनता पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर अप्रभावी हो गई लेकिन उत्तर भारत में जनता पार्टी के विभिन्न घटक अब तक प्रभावी हैं। दक्षिण भारत में क्षेत्रिय दलों का विकास अभी और होने वाला है। वामपंथी दल मूलत: क्षेत्रिय दल हैं। अब भाजपा भी मूलत: क्षेत्रिय दलों की तरह ही स्थानीय नेताओं को केन्द्र में रख कर विकसित हो रहा है। धीरे-धीरे कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय चरित्र भी सिमट रहा है। इसके बावजूद 1998 से देश परिपक्व गठबंधन की राजनीति की ओर बढ़ रहा है। धीरे-धीरे दोनों गठबंधनों की धूरी में कांग्रेस एवं भाजपा की केन्द्रीयता भी समाप्त हो जा सकती है। तब भी देश में स्थिरता एवं सुव्यवस्था कायम रहेगी। दोनों गठबंधनों को चलाने के लिए फाउन्डेशंस एवं थिंक टैंक का विकास होगा जो गठबंधन की राजनीति को वैचारिक एवं नैतिक आधार देंगे। दोनों गठबंधन उदार-प्रजातांत्रिक-पूंजीवाद को चाहे-अनचाहे अपनायेंगी। सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक मुद्दों पर दोनों गठबंधन अलग-अलग नीतियां अपनायेंगी। दूसरा गठबंधन, गरीब परस्त, किसान केन्द्रित, ग्राम विकास की नीति अपनायेगी। भारत में संसदीय लोकतंत्र का भविष्य उज्जवल है। धीरे-धीरे पंचायती राज व्यवस्था तर्क संगत एवं मजबूत होगी। मई 2011 में बिहार में पंचायतों एवं नगर निगमों का जो चुनाव हुआ है उसमें सकारात्मक परिवर्तन हुआ है। अब पढ़े-लिखे एवं स्वच्छ छवि के मुखिया, सरपंच एवं नगर सेवक चुनाव जीतने लगे हैं। इससे पंचायती राज व्यवस्था मजबूत होगी। इससे विकेन्द्रीकरण बढ़ेगा। यह प्रक्रिया देश के अन्य राज्यो में भी बढ़ेगी। इससे लोकतंत्र और मजबूत होगा।
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