भारत में मंदिर
भारत में मंदिर केवल देव स्थान नहीं है बल्कि यह अपने आप में एक पवित्रतम जगह है । मंदिर में प्रवेश करते हीं हमारी आत्मा एक शुध्द वातावरण में प्रवेश करती है। मंदिर हमारे भीतर दैवीय अनुभूतियों को भरता है। यह हमें ईश्वरीय प्रेरणा एवं शांत वातावरण की परिधि में लपेट कर विशिष्ट बना देता है। नास्तिक व्यक्ति को भी थोड़ी देर के लिए हीं सही आस्तिक अनुभूतियों से भर देता है। भारत में मंदिरों के कई प्रकार है। इन्हें मूलत: उत्तर भरतीय एवं दक्षिण भारतीय मॉडेलों में समझा जा सकता है। उत्तर भारतीय मंदिर, उत्तर भारतीय समाज एवं हिन्दी सिनेमा के बीच अन्योनाश्रित संबंध है जिसे दक्षिण भारतीय संदर्भ से अलग करके देखना एवं समझना पड़ेगा। दक्षिण भारतीय मंदिर, दक्षिण भारतीय समाज तथा दक्षिण भारतीय सिनेमा ऐतिहासिक रूप से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। ऐतिहासिक विकास एवं भाषाई विन्यास की दृष्टि से दक्षिण एवं उत्तर भारत का विकास अलग अलग तरह से हुआ है। फलस्वरूप इनको एक साथ समझने में व्यवहारिक कठिनाईयां आती हैं। सैध्दांतिक स्तर पर भी इनको एक फ्रेमवर्क में नहीं समझा जा सकता। अंग्रेजी राज में शंकराचार्य के सैध्दांतिक फ्रेमवर्क में भारत के मंदिरों की व्यवस्था समझने समझाने की कोशिश होती रही है जबकि भारतीय समाज के भीतर रामानुजाचार्य एवं वल्लभाचार्य जैसे भक्तिआचार्यों का प्रभाव ज्यादा रहा है। शकराचार्य की व्यवस्था के अनुसार भारत के चारों कोनों में मठों का निर्माण हुआ था जो दक्षिण में श्रृंगेरी, उत्तर में बद्रीकाश्रम, पूर्व में पुरी, एवं पश्चिम में द्वारका में शंकरपीठ बनाए गए। इसके साथ शंकराचार्य ने नागा संन्यासियों का दसनामी सम्प्रदाय भी बनाया था। लेकिन गृहस्थ हिन्दुओं के लिए भक्ति आंदोलन के दौरान अनगिनत मंदिरों का निर्माण हुआ और इनकी पूजा पध्दति विकसित हुई जिस पर भक्ति साहित्य का प्रभाव है। दुर्भाग्य से भक्ति साहित्य के धार्मिक् एवं सम्प्रदायिक महत्व का अब तक अघ्ययन नहीं हुआ है। इसे मात्र साहित्य मानकर अध्ययन हुआ है। बारहवीं शताब्दी से सतरहवीं शताब्दी तक खासकर उत्तर भारत में भक्ति साहित्य की अविरल धारा लगातार बहती रही जिसके प्रभाव में उत्तर भारत का समाज और उत्तर भारत के मंदिरों की पूजा पध्दति विकसित हुई। 18वीं शताब्दी से अंग्रेजी राज भारत में आया जिसने भारतीय समाज का आधुनिकीकरण शुरू किया परंतु इसका दक्षिण एवं उत्तर भारत में अलग अलग प्रभाव पड़ा। इस प्रभाव को उत्तर एवं दक्षिण भारत के आधुनिक साहित्य एवं सिनेमा में आसानी से देखा जा सकता है। परंतु समाज विज्ञानों में इनडोलौजिकल स्टडीज़ के तहत पश्चिमी विद्वानों ने हिन्दू शास्त्रों के आधिकारिक पाठों को संपादित एवं प्रकाशित किया जिस पर यूरोपीय मान्यताओं स्पष्ट असर है। यूरोपीय मान्याताओं के अनुसार शंकराचार्य को अखिल भारतीय स्तर का एक मात्र सिध्दांतकार घोषित किया गया तथा उत्तर भारतीय मंदिरों को दक्षिण भारतीय मंदिरों का भग्नावशेष माना गया। यह माना गया कि मुस्लिम आक्रमण के दौराण उत्तर भारत की व्यवस्था टूट गई थी फलस्वरूप उत्तर भारत के श्रध्दालु मंदिरों में ईश्वर की प्रतिमाओं को स्पर्श करने लगे जबकि दक्षिण में श्रध्दालु मंदिरों में ईश्वर की प्रमिाओं का स्पर्श नहीं कर सकते केवल दूर से दर्शन कर सकते हैं। यह एक प्रकार का कृत्रिम अनुमान है जिसका उत्तर भरतीय समाज से कोई लेना देना नहीं है। साहित्य, ज्योतिष, आयुर्वेद, दर्शन, नीतिशास्त्र, कृषि, त्योहार, व्रत, मंत्रोपचार और सामाजिक रीतिरिवाज का पारंपरिक फ्रेमवर्क में समन्वित अध्ययन होना अभी बाकी है। समकालीन समय में स्वामी विवेकानन्द एवं महात्मा गांधी ने भारतीय समाज को समझने के लिए अलग अलग विमर्श विकसित किया है। दोनो विमर्शों में भारतीय समाज की समकालीन परिस्थिति के लिए एक प्रकार का क्षोभ एवं क्रोध है जबकि भारत के पारंपरिक विमर्श की भाषा में करूणा पाई जाती है। उदाहरण के लिए भगवान बुध्द और रामकृष्ण की भाषा में करूणा है। ईश्वर की बनाई दुनिया में ईश्वरीय सत्ता की सूक्ष्म उपस्थिति हर जगह है। इस उपस्थिति के प्रति मनुष्य का अज्ञान ही उसे एक त्रासदी से दूसरे त्रासदी में घसीटता है। माया महाठगनी हम जानी। लोभ, मोह, मद, क्रोध ने बहुतों को नचाया। नारद जैसे महामुनी को नचाया। विश्वामित्र जैसे महर्षि को भरमाया। रावण जैसे महान योध्दा और महान पंडित को कुर्माग पर ले गया। संतोष नहीं हो तो माया बहुत छकाती है। मंदिर के दर्शन से माया की ताकत घटती है और विवेक बढ़ता है । इसिलिए हिन्दू मंदिरों में अधिकांश समय श्रध्दालुओं की भीड़ लगी रहती है।
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