भारत में सांस्कृतिक परिवर्तन
भारत में सांस्कृतिक परिवर्तन का एक दौर 1989 से शुरू हुआ है जिसकी शुरूआत सूरज बरजात्या की फिल्म मैने प्यार किया एवं हम आपके है कौन से मानी जाती है। बाद में आदित्य चोपड़ा की दिल वाले दुलहनिया ले जाएंगे एवं करन जौहर की कभी खुशी कभी गम जैसी फिल्मों ने और पुख्ता किया । लेकिन इसी के साथ अन्य सांस्कृतिक परिवर्तन भी हो रहे हैं जिनका मिला जुला स्वरूप है। इसको समझना आवश्यक है । जैसे जो फिल्में दिखाते थे, वे अब फिल्में बनाने लगे हैं। राजनीति में यह प्रवृत्ति स्थापित हो चुकी है। मीडिया में यह प्रवृत्ति स्थापित हो चुकी है। अब गुंडे दूसरों को चुनाव नहीं जितवाते, खुद जीतते हैं। और जीत कर गुंडा नहीं रहते, व्यापक स्वीकार्यता के लिए समाज सेवा करने लगते हैं। अब मीडिया वाले दूसरों को प्रोमोट नहीं करते, अपने को प्रोमोट करके पावर ब्रोकर इमेज मैनेजर चैनल एवं अखबार के मालिक बन जाते हैं। अब फिल्मों में भी यह होने लगा है। फिल्म निर्माण करने के बाद कम कीमत की वीसीडी और डीवीडी बनाकर सीधे दर्शकों को बेचे जा सकते हैं। भारतीय मनोरंजन व मीडिया उद्योग का आकार अभी 353 अरब रूपये का है। और साधरणतया 19% की दर से कम कम पांच वर्षों तक बढ़ेगा (फिक्की-प्राइसवाटर हाउस कूपर्स के अनुमान के अनुसार)। बाजार की ताकतों ने क्रिकेट विश्वकप की पटकथा लिखी थी, परंतु क्रिकेट की अनिश्चितता ने उनका कारोबारी आकलन पलट दिया। हमारे खिलाड़ी बुरा जरूर खेल सकते हैं, परंतु उनमें से कोई भी पैसे के लिए हार नहीं सकता, क्योंकि जीतने पर मिलने वाले धन के आगे सटोरिए के पैसे का कोई मतलब नहीं रहता। किक्रेट के बुखार को कैश करने वाली फिल्मों ने भी पानी नहीं मांगा। हमारे दर्शक एक अच्छी को फिल्म को पसंद करते हैं। फार्मुला पर आधारित फिल्में उसी तरह पिटती हैं जिस तरह सट्टेबाजों द्वारा तैयार किया गया क्रिकेट की पटकथा पिटता है। भारत देश हीं ऐसा है जिस को आसानी से फार्मुले में फिट नहीं किया जा सकता। हमारे यहां दर्जनों हिल स्टेशन हैं, जहां पर पिच बनाने से गेंद 'सीम' हो सकती है। परंतु हिल स्टेशन पर पैसा फेंकने वाली भीड़ नहीं जुटेगी। अत: BCCI हमेशा महानगरों में मैच कराती है। महानगरों से करोड़ो रूपए मिल सकते हैं। जिस तरह सिनेमा में बॉक्स ऑफिस की खातिर निर्देशक अपनी आत्मा भी बेच सकता है, उसी तरह क्रिकेट संगठन धन कमाने के लिए कुछ भी कर सकता है। हमारे यहां नवाब पटौदी, कपिल देव, सुनील गावस्कार, मेहिंदर अमरनाथ, सैय्य्द किरमानी और बिशन सिंह बेदी की तरह अनेक महान क्रिकेटर हैं, परंतु विदेशी कोच की सेवाएं ली जाती हैं। और रिजल्ट वही होता है जो ग्रेगचैपल के कोच बनने पर हुआ। चैपल ने भारतीय क्रिकेट टीम में फूट डाला और एक निरंकुश कोच की तरह राज किया। अंग्रेजों को भगाने के बाद भी गोरी चमड़ी के प्रति हमारा भाव गुलामों जैसा ही है। क्रिकेट प्रेमी इसलिए आहत हैं, क्योंकि बाजार ने उसे गरमा दिया था। सारे क्रिकेट प्रमियों को बाजार की ताकतों ने सिक्के में बदल दिया और जब खिलौना पहले ही टूट गया तो ये बेचारे पत्थर मारने लगे, पोस्टर जलाने लगे, घास की अर्थियां फूकने लगे। आने वाली कोई भव्य फिल्म हो, क्रिकेट का विश्वकप हो या विराट आम चुनाव, आम आदमी को प्रचार की ताकतें उत्तेजना की नकली तरंग पर बिठा देती हैं। आम आदमी की भावनाओं के साथ हमेशा होली खेली जाती है। उसके हाथ में पत्थर दे दिया जाता है, मुंह में गालियां भर दी जाती हैं, सीने में आग भर दी जाती है। इस तरह एक अच्छे खासे आम आदमी को हुडदंगी बना दिया जाता है। ये कौन सी ताकते हैं, जो हमें कठपुतलियों में तब्दील कर देती हैं। वह कौन सा नशा है, जो सत्य से विमुख करके हमें नकली समस्याओं में फसा देता है? ये कौन है, जो हमें गाफिल रखना चाहता है? हमने अपनी स्वतंत्र विचार शक्ति क्यों खो दी? थियोडोर अडोर्नो के अनुसार यह उत्तर पूंजीवादी तंत्र का सांस्कृतिक उद्योग है जो हमें उपरोक्त स्थिति में पहुंचा चुका है। इससे बचने का तरीका अडोर्नो के अनुसार साम्यवाद है जो 1989 से 1991 के बीच पूर्वी युरोप एवं चीन में अपनी प्रासांगिकता खो चुका है। 1991 के बाद पूंजीवाद को एकमात्र विकल्प माना जा रहा है। फलस्वरूप सांस्कृतिक उद्योग का पूंजीवादी ढांचा पूरी दुनिया में महत्वपूर्ण बनता जा रहा है। भारत भी इसका अपवाद नहीं है। लेकिन भारत में इस सांस्कृतिक प्रदूषण से लड़ने का हथियार महात्मा गांधी ने हिन्द स्वराज में विकसित किया था। धीरे-धीरे गांधीवादी विमर्श का महत्व भारतीय फिल्म उद्योग में भी स्थापित हो रहा है। उदाहरण के लिए स्वदेश, वीर जारा, लगे रहो मुन्नाभाई एवं चक दे इंडिया के केन्द्रीय पात्र गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित नज़र आते हैं।
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