भारत में विकास
फिलहाल भारत में 3400 छोटे व मंझोले आकार की शहरी बस्तियां हैं और करीब पांच लाख 93 हजार 643 गांव हैं। इनमें करीब 92 हजार गांव ऐसी हैं जिनकी आबादी 200 से भी कम है और करीब 1 लाख 28 हजार ऐसे गांव हैं, जहां की आबादी 200 से 500 के बीच है। करीब 15 हजार ऐसे गांव हैं जिनकी आबादी पांच से दस हजार के बीच है और चार हजार ऐसे गांव हैं जिनकी आबादी 10 हजार से ज्यादा है। भारत का घरेलू उपभोग इसके जीडीपी का 68 फीसदी है, जबकि चीन में यह अनुपात 38 फीसदी है। भारतीय रूपया नौ साल में सबसे मजबूत होकर उभरा है। इससे आई.टी व दवा कंपनियों जैसे निर्यातकों के नुकसान बढ़े परन्तु अर्थव्यवस्था के बुनियादी घटक और ताकतवर हुए हैं। उपरोक्त स्थिति में भारत का विकास जिस तरह होना चाहिए नहीं हो पा रहा है। इसका एक बड़ा कारण नौकरशाही और ठेकेदारों के साथ-साथ दलालों का बढ़ता महत्व है। इसने देश की स्वतंत्रता को एक जवान स्त्री के विधवा होने की तरह का अवसर माना। और उसकी स्वतंत्रा एवं अस्मिता को लूटने में प्रभुवर्ग को अपना पुरूषार्थ नजर आने लगा। इसके बावजूद देश रूपी विधवा के बच्चे जवान हो रहे हैं और उन्हें अपने माँ की गुलामी पर न शर्म आती है और न अपराधबोध है। उन्होंने पुरानी नैतिकता को मानने या समझने से इंकार कर दिया है। नई नैतिकता विकसित नहीं हुआ है। इस संक्रमण काल में प्रभुवर्ग का आकार और इसकी आंतरिक संरचना बदल रही है। नए प्रभुवर्ग में अलग-अलग अभिरूचि और अलग-अलग पृष्ठभूमि के लोग हैं। ज्यादातार को केवल अपने तथा अपने परिवार से मतलब है। धर्म में इनकी आस्था है लेकिन संस्कृति एवं सभ्यता के सवाल इनके लिए गौण हैं। ये उपभोक्ता की भाषा समझते और बोलते हैं। इन्हें पश्चिमी संरचना में अपने लिए जगह और सुविधा चाहिए। अन्य चीजों के प्रति न इनका आग्रह है और न दुराग्रह। इन्हें नहीं तो इनके बच्चों को स्कूल, टी.वी., सिनेमा एवं आश्रमों-मंदिरों के माध्यम से बदला जा रहा है तथा और भी बदला जा सकता है। क्रिकेट में इसका अच्छा और बुरा प्रभाव पिछले दस-पंद्रह वर्षों से दिख रहा है और राजनीति में भी दिखेगा। गठबंधन की राजनीति के स्थिर होते ही इसकी सहायक व्यवस्था भी संस्थाबद हो जाएगी। जो संगठन इसमें शुरूआती बढ़त लेगा गठबंधन की राजनीति का वही नियामक होगा। लेकिन एक बात गौर करने लायक है तुलनात्मक रूप से भारत की दलित जातियां ज्यादा धार्मिक हैं जबकि पिछड़ी जातियां ज्यादा धर्म निरपेक्ष हैं अथवा युक्तिवादी नास्तिक हैं। राजनीति में एजेंडा और लीडरशिप (कार्यसूचि एवं नैतृत्व)। कार्यसूचि का महत्व सर्वोपरि है। अंग्रेजी में एक कहावत है - मूवमेंट इज द शौर्टेस्ट रूट टू पावर यानि आंदोलन के द्वारा सबसे कम समय में सत्ता पाई जा सकती है। किसी भी पुरानी पार्टी को सुधार कर के शक्तिवान बनाना मुश्किल काम है। हर रानीतिक दल का अपना ऐतिहासिक विरासत होता है जो नई पीढ़ी के लिए अक्सर बोझ बन जाता है। पुराने दल में अक्सर शातिर लोग भरें होते हैं। वे किसी नए आदमी को आसानी से नहीं आने देते। काम नहीं करने देते। कांग्रेस पार्टी एवं भाजपा के पास न तो कोई एजेंडा बचा है और न वोटबैंक। इनके परंपरागत समर्थक समूह एक-एक करके इनसे छिटकते चले गए। इनके पास राष्ट्रीय नेतृत्व के नाम पर 70 साल से ज्यादा उम्र के कुछ सीमित लोग बचे हैं । इनके नए नेतृत्व के पास न तो राष्ट्रीय दृष्टि है न भारतीय समाज की जमीनी समझ और न हीं उभरती हुई विश्व व्यवस्था के बारे में जरूरी जानकारी। देश की राजनीति में बिखराव काफी बढ़ गया है। दुर्भाग्य से कांग्रेस एवं भाजपा के अलावे राष्ट्रीय दलों के रूप में कोई उर्जावान दल उपलब्ध नहीं है। माकपा अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। और बसपा अपनी सफलता के उत्कर्ष पर दिशाहीन होने लगी है। ब्राहमण वोट या तो बसपा से अलग हो जाएगा या दलित वोटबैंक में बिखराव होने लगेगा। दोनों वोट बैंक को एक साथ बनाए रखने के लिए एक मघ्यमार्गी एजेंडा चाहिए जो बसपा के पास फिलहाल नहीं है। इस तरह एक नए राष्ट्रीय दल के लिए भारतीय राजनीति में जमीन तैयार है। आने वाले समय में युवा वर्ग अपने लिए अनुकूल नेतृत्व का निर्माण एवं विकास अपने बीच से कर लेगी। भारत उभरती हुई विश्व व्यवस्था में एक महाशक्ति बनने की तैयारी में है। इसके लिए उपयुक्त नेतृत्व का उभरना आवश्यक है।
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