लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067
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भारतीय राजनीति की विडंबना
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भारतीय राजनीति की विडंबना
1. कांग्रेस पार्टी का पराभाव:-
नब्बे के दशक के शुरूआती दौर में मंडल और मंदिर की राजनीति ने यू.पी. को सबसे ज्यादा ध्रुवीकृत किया। जाति व सांप्रदायिक ताकतों से आक्रामक रूप से लड़ने में कांग्रेस की नाकामी ने इसके संकट को गंभीर बना दिया। लेकिन बड़ी समस्या संगठन के तौर पर इसमे जान फूंकने के लिए उपयुक्त नेतृत्व का अभाव ही है। इसके लिए नेतृत्व के पास दूरदृष्टि और युगानुकुल राजनीतिक एजेंडा दोनो चाहिए। इस आम चुनाव में राहुल ने खुद को एक गंभीर, कर्मठ राजनेता के रूप में दर्शाया है। ये खूबियां उन्हें भारत की नयी पीढ़ी का दुलारा बना सकती है। लेकिन सच्चे मायनों में एक राष्ट्रीय नेता बनने के लिए राहुल को हिन्दी भाषी क्षेत्र में खुद को स्थापित करना होगा। इसके लिए उन्हें कठिन समय में आखिर तक डटे रहना होगा। यदि प्रियंका भी मैदान में उतरना चाहती हैं, तो उन्हें राजनीति को गंभीर प्रतिबध्दता के तौर पर देखना होगा, परिवार केंद्रित शगल की तरह नहीं।
2. बिहार बनाम यू.पी.-
2004 से यू.पी. की तुलना में बिहार की राजनीतिक औकात बढ़ी रही। लालू, पासवान को मिलाकर भी मुलायम सिंह और बसपा से कम सीटें मिली थीं। इसके बावजूद यू.पी.ए. की सरकार में मुलायम या मायावती को वह सम्मान नहीं मिला जो लालू या रामविलास को मिला। यू.पी. के नुमाइंदे श्रीप्रकाश जायसवाल जैसे छुट भैये नेता थे। लालू यू.पी.ए. के जार्ज फर्नांडिस (सबसे बड़े संकट मोचक) बने रहे। इसकी राजनीतिक व्याख्या नहीं हो सकती। इसकी केवल ज्योतिषीय और वास्तुगत व्याख्या हो सकती है।
3. काला धन:-
काला धन की समानांतर अर्थव्यवस्था ने भारत को मंदी की मार से काफी हद तक बचा लिया है, वर्ना बेरोजगारी और मंदी की दो तरफा मार से, देश में हाहाकार मच जाता और समाज के भीतर सिविलवार या गृहयुध्द की स्थिति पैदा हो जाती। राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार के बावजूद इस देश का वर्तमान और भविष्य अच्छा है।
2002 से 2009 के बीच इस देश में काफी महत्वपूर्ण संक्रमण काल था। 2009 के बाद इस देश को पीछे मुड़कर देखना नहीं पड़ेगा।
पश्चिमी लोकतंत्र के तजुर्बे से हासिल किए गए 'लिबरल फैंटेसी' के कारण भारतीय मध्यवर्ग भी दो दलीय या तीन दलीय प्रणाली के अलावा किसी और स्थिति को ग्राह्य नहीं मानता। कांग्रेस के झंडे तले राजनीतिक भागीदारी के जिस मॉडल से भारत के विभिन्न जातीय ,भाषाई और धार्मिक समुदायों को बराबरी की भागीदारी देने का वादा किया गया वह एक नारा ही बना रहा। दरअसल यह वादा सहभागिकता और सत्ता के बंटवारे के नाम पर एक चतुर प्रभु वर्ग का वर्चस्व बनाए रखने वाली व्यवस्था का लुभावना रूप था। भारतीय संदर्भ में अनुभव से यह उजागर हो चुका है कि किसी एक पार्टी में शामिल होने के बजाए हर समुदाय अपनी छोटी ताकत के दम पर राज्य और देश में अपनी अलग पार्टी बनाकर सत्ता में कहीं ज्यादा सार्थक हिस्सेदारी कर सकते हैं। इस तरह गठजोड़ों के युग को भारत के राजनीतिक भविष्य का आवश्यक शर्त एवं लोकतंत्र के विकास-क्रम का स्वाभाविक चरण माना जाना चाहिए। भारत की विविधता का प्रतिनिधित्व एक राजनीतिक दल और एक विचार धारा द्वारा किया जाना एक अव्यवहारिक अपेक्षा है। केरल की राजनीति के बावजूद केरल का विकास नहीं रूका। केरल में लंबे समय से गठजोड़ों की सफल राजनीति चल रही है। इस यर्थाथ को स्वीकार कर तैयारी करना चाहिए।
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