Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय समाज की अंतर्धारा: समाज, खेल एवं सिनेमा

भारतीय समाज की अंतर्धारा: समाज, खेल एवं सिनेमा

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हिंदी सिनेमा के क्षेत्र में भी प्रयोगों की भरमार हो रही है। संजय लीला भंसाली, विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप ,राकेश ओमप्रकाश मेहरा, अब्बास टायरवाला, नीरज पांडेय, इम्तियाज अली, निशिकांत कामक, जोया अखतर जैसे नए निर्देशकों ने प्रयोगधर्मी फिल्में बनायी है। इनमें से कुछ सफल रहीं और कुछ असफल। रंग दें बसंती की सफलता के बाद राकेशओमप्रकाश मेहरा का आत्मविश्वास काफी बढ़ गया था। लेकिन अपनी 2009 के पुर्वाध्द में रिलीज हुई फिल्म 'दिल्ली 6' को मिली दर्शकों की ठंडी प्रतिक्रिया से राकेश ओमप्रकाश मेहरा का आत्मविश्वास डगमगा गया है। शरूआत में उन्हें काफी गुस्सा आया, फिर लगा कि कहानी कहने का यह एक नया अंदाज है और हिन्दी दर्शक धीरे धीरे ही इसके आदी हो सकेंगे। राकेश ओमप्रकाश मेहरा, संजय लीला भंसाली, विशाल भारद्वाज और अनुराग कश्यप, आदि लोग प्रतिभाशाली तो हैं लेकिन ये लोग इस देश के दर्शकों का मिजाज और भारतीय सिनेमा के समकालीन बाजार को उसी तरह नहीं समझते जिस तरह धोनी ब्रिगेड या कपिल देव से पहले महानगरों में स्थित अभिजात पृष्ठभूमि के क्रिकेट खिलाड़ी क्रिकेट के भीतर भारतीय संभावनाओं को नहीं समझते थे। भारतीय क्रिकेट का यह स्वर्णयुग है। भारतीय सिनेमा का स्वर्णयुग 1949 से 1979 के बीच का कालखंड माना जाता है। कुछ लोग 1943 से 1982 तक का कालखंड कहेंगे। 1982 से सिनेमा का पराभव और टी. वी. का उत्थान शुरू हुआ। भारतीय क्रिकेट का उभार 1983 में विश्वकप जीतने के बाद से शुरू हुआ। विश्वकप जीतने के बाद भारतीय क्रिकेट बदलने लगा। भारतीय क्रिकेट में अजहरूदीन का युग काले अध्याय के तरह आया। फिर ग्रेग चैपल युग भी गतिरोध की तरह आया। 2007 से भारतीय क्रिकेट का स्वर्णयुग शरू हुआ। इसे धोनी युग भी कहेंगे। यह टेलीविजन और क्रिकेट का सम्मिलित युग है। इसमें IPL का भी जन्म हुआ। अब टीम कुछ खिलाडियों पर निर्भर नहीं है। अब भारतीय टीम में 11 खिलाड़ी दमखम से खेलते हैं। अनुभव और तरूणाई का मिश्रण इस टीम की ताकत है। सचिन, सहवाग, धोनी, युवराज और हरभजन जैसे खिलाडियों का अनुभव टीम को सहारा देता है तो गौतम गंभीर, सुरेश रैना, युसुफ पठान और ईशांत जैसे युवाओं की जीवटता मारकता प्रदान करती है। धोनी टीम के प्रेरक होने के साथ-साथ योजनाकार भी हैं। जीत ही उनका मूलमंत्र है और पूरी टीम का इस मंत्र को साधने में जुटी रहती है। वे हर स्थिति में संयत बने रहते हैं। हर मैच उनके और उनकी टीम के लिए नया मैच होता है जिसमें पुरानी सफलता या विफलता को भुलाकार वे नए सिरे से प्रदर्शन करते हैं। शायद यही वजह है कि न्युजीलैंड के खिलाफ ट्वेंटी-20 सीरीज के दोनों मैच गंवाने के बाद भी भारतीय टीम ने एक दिवसीय मैचों में शानदार वापसी की। इससे पहले विदेशी जल वायु और अंजान पिचों का भय हर सीरीज से पहले भारतीय खिलाड़ियों पर हावी हो जाता था। आस्ट्रेलिया, श्रीलंका, इंग्लैंड और न्युजीलैंड में एक दिवसीय के सीरीज जीतने से साफ हो गया है कि भारतीय टीम पर विदेशी धरती का खैफ कम होता जा रहा है।

1989 में भारतीय सिनेमा में सूरज बड़जात्या, आदित्य चोपड़ा जैसे फिल्मकारों का जन्म हुआ। इनके प्रभाव में करन जौहर, राम गोपाल वर्मा, फरहान अख्तर, नागेश कुक्कुनूर जैसे फिल्मकारों ने लोकप्रिय सिनेमा का नया व्याकरण एवं नया छंदशास्त्र विकसित किया। क्रिकेट एवं सिनेमा के क्षेत्र में नई उद्यमशीलता की पूरक्ता आर्थिक व्यावसाय के क्षेत्र में भारतीय उद्यम की सफलता के रूप में सामने आई। नारायण मूर्ति, लक्ष्मी मित्तल, मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी, के पी सिंह जैसे उद्यमियों की विश्वग्राम में तूती बोलने लगी। विश्वनाथन आनंद शतरंज के नए बादशाह बने। भारतीय समाज की अंतर्धारा में स्वभाविकता एवं सनातनता की जीत अब होने लगी है। यदि राजनीतिक नेतृत्व परिपक्व हो जाए तो हम नई महाशक्ति बन कर एक बेहतर दुनिया के निर्माण में अपनी भूमिका निभा सकते हैं।

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