Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

डा. बी. आर. अम्बेडकर का बौध्द धर्म के विकास में सैध्दांतिक योगदान

डा. बी. आर. अम्बेडकर का बौध्द धर्म के विकास में सैध्दांतिक योगदान

 

डा. अम्बेडकर और उनके अनुयायियों के धर्म परिर्वतन (1956) के बाद भारत में बौध्द धर्म का नवोदय शुरू होता है। डा. अम्बेडकर ने भारत में बौध्द धर्म को दलितों के संस्कृतिकरण के वैकल्पिक मॉडेल के रूप में तो विकसित किया ही, इसे गृहस्थ धर्म के रूप में युगानुकूलित भी किया। भगवान बुध्द ने खुद भिक्षुओं के लिए और गृहस्थों के लिए अलग-अलग धर्मों का उपदेश किया था। अनागरिक धर्मपाल ने थेरवादी परंपरा के भिक्षुओं को संगठित करने के क्रम में भिक्षु धर्म को ही बौध्द धर्म के रूप में प्रतिष्ठित किया था। यूरोप के प्राच्यविदों के प्रभाव में ज्यादातर जापानी एवं अन्य बौध्द विद्वानों ने भी बौध्द धर्म के टेक्युअल (धार्मिक साहित्य एवं पाठों) स्त्रोतों के आधार पर जो बौध्दिक विमर्श प्रस्तुत किया उसमें भी भिक्षु धर्म की आध्यात्मिक साधना और आत्मसाक्षात्कार एवं निर्वाण प्राप्ति की यौगिक एवं तांत्रिक क्रियाओं पर ही ज्यादा जोर था। कुल मिलाकर 1956 तक के बौध्द विमर्श में शास्त्र पक्ष एवं भिक्षु धर्म पर जोर था। कुमारस्वामी ने बौध्द कला को दुनिया के सामने रखा। लेकिन बौध्द धर्म के  लोकपक्ष एवं गृहस्थ धर्म को दुनिया के सामने समकालीन परिपेक्ष्य में रखने वाले डा. अम्बेडकर पहले व्यक्ति हुए। इसी प्रक्रिया में उन्होंने थेरवादी परम्परा के लोकपक्ष को महायान बौध्द धर्म के सामूहिक निर्वाण वाले आध्यात्मिक पक्ष के साथ जोड़कर व्यक्तिगत निर्वाण के थेरवादी भिक्षु धर्म को अपने बौध्द विर्मश का गौण स्थान दिया। बौध्द तत्व मीमांसा के इतिहास में एक महान धर्मसुधार आंदोलन का सूत्रपात था। इसकी तुलना काल्विन द्वारा शुरू किये गए ईसाई धर्म के प्रोटेस्टैंट ईसाई नैतिकता (इथिक) ने पूँजीवादी कार्य संस्कृति के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी, उसी तरह डा. अम्बेडकर के बौध्द नैतिकता वाले लोक धर्म ने भारत के दलित समुदाय के बीच राजनीतिक कार्य संस्कृति विकसित कर गैर-उपनिवेशवादी प्रजातंत्रीय व्यवस्था को संपुष्ट करने में निर्णायक भूमिका निभाया है।

डा. अम्बेडकर के विचार में स्वविवेक एवं बहुजन के हित और बहुजन के सुख को बढ़ाने वाला सामाजिक कर्म बौध्द धर्म की सबसे प्रमुख नीति है। बौध्द धर्म की नैतिक व्यवस्था के केन्द्र में आत्म-प्रकाश से भरा हुआ स्वतंत्र व्यक्ति है जो समाज के सभी सदस्यों को समान समझता है तथा उनके प्रति भ्रातृत्व या बंधुत्व की भावना रखता हो। इस धर्म में जन्म पर आधारित जाति या छुआछूत के लिए कोई स्थान नहीं है। जो धर्म मनुष्य-मनुष्य में भेद करे और दूसरे समुदाय के लोगों को चाहे किसी भी आधार पर तुच्छ समझे वह धर्म हो ही नहीं सकता। डा. अम्बेडकर के अनुसार बौध्द धर्म सम्पूर्ण मानवता का धर्म है। 'धम्म' के अनुसार सभी मनुष्य समान हैं। सत्य, अहिंसा, करूणा और दया बौध्द धर्म की पारिभाषिक विशेषता हैं। बौध्द धर्म भारत देश की परंपरा और संस्कृति का अभिन्न अंग है लेकिन हिन्दू धर्म की भाँति इसमें असमानता एवं छुआछूत जैसी भावना या शोषण और उत्पीड़न को धार्मिक मान्यता नहीं है।

     डा. अम्बेडकर एक ऐसे धर्म की खोज में थे जो किसी वर्ग-विशेष का नहीं बल्कि सारी मानवता का धर्म हो सके। साम्यवादी दृष्टिकोण को डा. अम्बेडकर एक खतरा मानते थे। उनकी दृष्टि में सामाजिक व्यवस्था के संतुलन के लिए धर्म एक सामाजिक आवश्यकता है। साम्यवादी व्यवस्था की भौतिकता के प्रति अति आग्रह और वर्ग संघर्ष में हिंसा की वकालत उन्हें मानवता के लिए अभिशाप लगती थी। उनके अनुसार बौध्द धर्म ही एक ऐसा धर्म है जो साम्यवाद का विकल्प हो सकता है। अगर कोई दर्शन कार्ल मार्क्स का सम्पूर्ण उत्तर दे सकता है तो वह बौध्द धर्म ही है। उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि बौध्द धर्म,  ईसाई मत वालों के लिए मान्य हो सकता है। क्योंकि ईसाई मत की 90 प्रतिशत मान्यताएँ बौध्द-मान्यताओं के अनुरूप है। जेलियट जैसे विद्वानों ने तो साफ कहा है कि ''अम्बेडकर की नव धर्म दीक्षा, मार्क्सवाद के विरूध्द की गई मोर्चा बंदी है।'' जबकि एडमंड वेबर के अनुसार यह ईसाई धर्म परिर्वत्तन की संभावना को अछूतों के बीच नहीं पनपने देने की डा. अम्बेडकर की दूरदर्शी नीति थी।

     जो भी हो, आज डा. अम्बेडकर वंचित समूह के सबसे प्रमुख सिध्दांतकार बन चुके हैं। आज महात्मा गांधी और डा. अम्बेडकर भारतीय सभ्यतामूलक विमर्श के समकालीन सिध्दांतकार हैं। महात्मा गांधी का विमर्श भारतीय समाज के बहुसंख्यक हिन्दूओं के दृष्टिकोण की सभ्यतामूलक अभिव्यक्ति है तो डा. अम्बेडकर का विमर्श भारतीय समाज के अल्पसंख्यक बौध्दों की दृष्टिकोण की सभ्यतामूलक अभिव्यक्ति है। वे एक अन्य अर्थ में दलित समुदाय के सबल्टर्न दृष्टिकोण के भी प्रवक्ता रहे हैं। वे पश्चिमी लिब्रल डेमोक्रेसी और गैर साम्यवादी व्यवस्था के नेहरू युग में गिने-चुने प्रवक्ताओं के रूप में भी तत्कालीन विकास चर्चा में गौण धारा (सबल्टर्न का एक अर्थ वंचित समूह है तो दूसरा अर्थ गौण धारा भी है) के प्रतिनिधि थे।

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