Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

छोटे बजट बनाम बड़े बजट की फिल्में: भविष्य एवं सामाजिक संदर्भ

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छोटे बजट बनाम बड़े बजट की फिल्में: भविष्य एवं सामाजिक संदर्भ

 

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 भक्ति संप्रदायों के मध्यकालीन स्वरूप में रूपांतरण तो हुआ है लेकिन अब भी धर्म का महत्व सिनेमा से ज्यादा है। परन्तु मंदिरों के गर्भगृह और सिनेमा हॉल के पर्दे के बीच सहधर्मिता भी रही है। फलस्वरूप उत्तार भारत के अभिनेता - अभिनेत्रियों के प्रशंसकों की कमी नहीं रही है परन्तु प्रशंसक समूह फैंनक्लबों में उस तरह संगठित नहीं रहे हैं जिस तरह दक्षिण भारत में संगठित रहे हैं। 1969 में शुरू हुए सिनेमा आंदोलन के केन्द्र में पटकथा एवं निर्देशक होते थे। अभिनेताओं एवं अभिनेत्रियों की भूमिका गौण थी। ज्यादातर सिनेमा सोसाइटी वामपंथी या कांग्रेसी विचारधारा से जुड़े हुए थे। कुछ सोसाइटी सूफी विचारधारा से जुड़े हुए थे। नये संदर्भ में वैश्विक पूंजीवाद या उदारीकरण का प्रभुत्व बढ़ा है। विचारधारा का महत्व राजनीति में भी सीमित हुआ है। राजनीति में अवसरवाद का बोलबाला है। ऐसे में फिल्म निर्माण की प्रक्रिया से भी संगठित विचारधारा का महत्व घटा है और व्यक्तिगत चेतना एवं रूझान के आधार पर प्रयोग धर्मी पटकथाओं का उत्थान हो रहा है। पश्चिमी समाजविज्ञान की भाषा में इसे उत्तार आधुनिकता कहते हैं। पश्चिमी समाज में यह 1968 के आसपास शुरूहुआ। लेकिन भारतीय सिनेमा में यह 1990 के दशक के उत्तारार्ध्द में आया। पश्चिमी समाज में उत्तर आधुनिक चेतना 1990 के दशक तक आते - आते प्रौढ़ हो चुकी थी। इसका विकास हैरी पौटर, दा विची कोड, ईटी, ग्लैडिएटर, ट्रॉय, एलेक्जांडर, स्टार वार जैसी फिल्मों की पटकथा में सामने आयी। ये छोटी बजट की फिल्में नहीं हैं परंतु इनकी पटकथा पश्चिमी आधुनिकता के ग्रैंड़ नैरेटिव (प्रमुख कथा विन्यास) से नहीं निकल कर आधुनिकता - पूर्व की परंपरा की उत्तार आधुनिक विश्लेषण से निकली है। इसके विपरीत हिन्दी सिनेमा में उत्तर आधुनिकता अभी शैशवावस्था में है। यह 1940 - 50 के दशक में स्थापित फिल्मी कैनन (कथात्मक संरचना की रूढ़ियां) को तोड़ अवश्य रही हैं लेकिन इसमें गुस्सा, छटपटाहट एवं तड़प का असहाय भाव ज्यादा है सुनिश्चित एवं व्यवस्थित विकल्प प्रस्तुत करने का भाव कम है। उदाहरण के लिए मुंबई मेरी जान, समर 2007, आमिर, लव आजकल, देव डी, रेस, गुलाल, जाने तू या जाने ना, गजनी, जन्नत, न्यू यार्क, रब ने बना दी जोड़ी, कमीने या ए वेडनेश डे। इसके विपरीत विवाह, खोसला का घोसला, चक दे इंडिया, जब वी मेट, रॉक ऑन, किस्मत कनेक्शन आदि सरल कथाओं पर भूल भुलैया, आधारित, साफ - सुथरी, छोटी फिल्में हैं। इनमें तकनीकी तड़क - भड़क कम है। कथा में एक प्रवाह है लेकिन इनकी सफलता एक समान नहीं है। इनकी कथा एक जैसी नहीं है। इनको प्रोमोट करने का तरीका एक जैसा नहीं था। 

फिल्म निर्माण, राजनीति और क्रिकेट एक टीम गेम है। इनको केवल बजट के आधार पर नहीं समझा जा सकता। परंतु बजट की बढ़ती भूमिका से इंकार भी नहीं किया जा सकता। भारतीय समाज में गरीबों की संख्या ज्यादा है। मल्टीप्लेक्स में टिकट दर इतना ज्यादा है कि गरीब आदमी इनमें बार - बार नहीं जा सकता। छोटे बजट की फिल्में मल्टीप्लेक्स में आसानी से दर्शक नहीं बटोर पातीं। छोटे बजट की फिल्मों का भविष्य सिंगल स्क्रीन थियेटर या एकल ठाठिया सिनेमा हॉल में आज भी ज्यादा है। इनका भविष्य डी. वी. डी मार्केट और इन्टरनेट पर और भी ज्यादा है। बड़े बजट की फिल्मों को मल्टीप्लेक्स में तीन दिन हाउसफुल चल जाने पर पैसा वसुल नहीं होता। बिना स्टार की फिल्में मल्टीप्लेक्स में सामान्यत: हाउसफुल नहीं चल पातीं। छोटे सिनेमा घरों में अगर टिकट रेट कम हो तो छोटे बजट की फिल्मों का ज्यादा अच्छा भविष्य होगा। कम टिकट रेट वाले एकल ठाठिया सिनेमा हॉल में सीटों की संख्या इतनी ज्यादा होती है कि छोटे बजट की फिल्में हाउसफुल नहीं हो पातीं। इसका एक उपाय मध्यम बजट की फिल्मों का निर्माण हो सकता है। ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी, गुलजार जैसे बिमल रॉय के अनुयायी ऐसी फिल्में बनाया करते थे। रमेश सिप्पी, मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा और यश चोपड़ा बड़े बजट की फिल्में बनाया करते थे। राजश्री वाले, श्याम बेनेगल आदि छोटे बजट की फिल्मों केक स्थापित ब्रांड थे। राम से ब्रदर्स की डरावनी फिल्में भी छोटे बजट में बनती थीं। 1970 के दशक का यह विभाजन आज भी उपयोगी है। 1940 से 1960 के दशक तक श्वेत - श्याम फिल्मों का स्वर्णयुग था। 1970 का दशक रंगीन फिलमों का स्वर्ण युग था। 1980 का दशक रंगीन टी. वी. का युग था। 1990 के दशक से सिनेमा की वापसी हुई। 2000 ईस्वी में फिल्म निर्माण को इंडस्ट्री का दर्जा मिला। अचानक कॉरपोरेट हाउसों के आने से सितारों के पारिश्रमिक आसमान छुने लगे। फिल्म निर्माण में फिजुल खर्ची  आया। बिकाऊ सितारे सीमित थे। निर्माताओं में उन्हें साइन करने की होड़ मच गई। पटकथा एवं निर्देशन का महत्व बड़े बजट की फिल्मों में सितारों को करीब - करीब अचानक मिल गया। जिससे बड़े बजट की असफल फिलमों की बाढ़ आ गई। इससे कॉरपोरेट हाउसों ने भी छोटे बजट की फिल्मों में धन लगाना शुरू किया। यह शुभारंभ है। लेकिन आज भी स्तरीय पटकथा लेखन करने वालों की भयानक कमी है। स्तरीय गीतकारों एवं संगीतकारों की कमी है।

 

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