Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

डोर (2006) - एक समाजशास्त्री दृष्टिकोण

डोर (2006) - एक समाजशास्त्री दृष्टिकोण

 

डोर (2006) नागेश कुकुनूर द्वारा लिखित एवं निर्देशित एक महत्वपूर्ण लेकिन व्यावसायिक रूप से असफल फिल्म है। वास्तव में फिल्मों की सफलता एवं असफलता के विषय में भारत के समीक्षकों में दो तरह की राय रही है। एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि भारतीय सिनेमा के दर्शक भारतीय मतदाता की तरह अजीब तरह के मनोविज्ञान का शिकार है जिसे समझना आसान नहीं है। फलस्वरूप हर चुनाव विश्लेषक (सिफोलॉजिस्ट) एवं सिनेमा समीक्षक भारतीय मतदाता एवं सिनेमा दर्शकों के संभावित व्यवहार को समझ पाने में असफल रहा है। कौन सी पार्टी जितेगी और कौन सी फिल्म दर्शकों की उपस्थिति की दृष्टि से सफल होगी इसका पूर्वानुमान लगाना भारी जोखिम का काम है। इस वर्ग के विद्वानों का मानना है कि यह स्थिति भारतीय मतदाता एवं भारतीय सिनेमा दर्शकों की नासमझी और सांस्कृतिक - राजनैतिक मूढ़ता का द्योतक है।
दूसरी ओर, एक छोटे से वर्ग का मानना है कि भारतीय मतदाता और भारतीय सिनेमा का दर्शक पश्चिमी अर्थों में साक्षर या शिक्षित नहीं होने के बावजूद काफी चतुर-सुजान है और उसके निर्णयों के बारे में पूर्वानुमान नहीं लगा पाने वाले चुनाव विश्लेषक एवं सिनेमा विश्लेषकों की विश्लेषण पध्दति की अपूर्णता एवं पेशेवर अनुभवहीनता का द्योतक है। वास्तव में दोनों प्रकार के दृष्टिकोण में एक प्रकार का सरलीकरण है। भारतीय सिनेमा एवं भारतीय राजनीति के स्वरूप एवं प्रकार्य को समझने का व्यवस्थित तरीका अभी अपने प्रारंभिक दौर में हैं। भारतीय सिनेमा का प्रारंभ 1913 से माना जाता है और भारत में चुनावी राजनीति का प्रारंभ1952 से माना जाता है। लेकिन भारतीय राजनीति एवं चुनाव विश्लेषण की पध्दति राजनीति विज्ञान एवं राजनीतिक समाजशास्त्र के दायरे में हुआ है जिसका प्रारंभ 1856 के आसपास भारत में शुरू हो गया था। जबकि सिनेमा विश्लेषण का प्रारंभिक प्रयास भारत में 1950 के दशक से पहले नहीं हो पाया था। इस दृष्टि से भारत में चुनावी राजनीति का प्रारंभ और सिनेमा विश्लेषण का प्रारंभ करीब-करीब साथ-साथ शुरू हुआ जबकि भारत में स्वतंत्रता संग्राम का जनोन्मुखी स्वरूप तिलक महाराज के गणेश महोत्सव, बंगाल के स्वदेशी आंदोलन एवं भारतीय भाषाओं में उपन्यास लेखन की विद्या के विकास के साथ-साथ शुरू हुआ। भारत में सिनेमा का जन्म भी कमोबेश इसी के आसपास शुरू हुआ।

भारत में विश्वविद्यालयों का जन्म अंग्रेजी राज के सक्रिय प्रयास या अप्रत्यक्ष सहयोग के फलस्वरूप हुआ। विश्वविद्यालयी विमर्शों में पश्चिम के शास्त्रों एवं सिध्दांतों का प्रभाव आजतक बना हुआ है जबकि भारतीय सिनेमा की मुख्यधारा में भारतीय लोक संस्कृति एवं लोक परंपराओं का प्रभाव प्रारंभ से ही प्रमुख रहा है। इसमें संदेह नहीं कि सिनेमा की तकनीक एवं इसके यांत्रिक उपकरण पश्चिम से ही आए हैं लेकिन इसके माध्यम से जो कथा कही जाती है और जो उसकी शैली एवं संस्कार रही है वह यूरोपीय या अमेरिकी सिनेमा से बहुत कम प्रभावित रहा है। जबकि भारतीय सिनेमा के ज्यादातर समीक्षक यूरोपीय या अमेरिकी सिनेमा के दर्शक रहे हैं या पश्चिमी सिनेमा विश्लेषण पध्दति एवं मानदंडों के कायल रहे हैं। फलस्वरूप भारतीय दर्शकों एवं भारतीय समीक्षकों की दृष्टि में अक्सर अंतर्विरोध देखने को मिलता है। भारतीय समीक्षक जिन फिल्मों की तारीफ करते नहीं अघाते वे फिल्में सिनेमा दर्शकों द्वारा अक्सर नकार दी जाती हैं या पूरी तरह अपरिचित रह जाती हैं। कुछ महत्वपूर्ण अपवादों को छोड़कर भारतीय सिनेमा की मुख्यधारा पारंपरिक मूल्य बोध से सिंचित कही जा सकती है जबकि भारतीय सिनेमा के समीक्षकों का मूल्यबोध आधुनिक या उत्तारआधुनिक रहा है। उपरोक्त अंतर्विरोध को समझने के लिए हम लोग फिल्म डोर को एक 'टेस्ट केस' या अकादमिक उदाहरण के रूप में ले सकते हैं।
समीक्षकों ने इसे एक गंभीर फिल्म माना है। नागेश कुकुनूर की पहचान एक बुध्दिजीवी फिल्मकार की मानी जाती है। हैदराबाद ब्लूज(1998),रॉकफोर्ड(1999),बॉलीवुड कॉलिंग(2001), तीन दीवारें (2003),हैदराबाद ब्लूज 2(2004),इकबाल(2005) और डोर(2006) उनकी महत्वपूर्ण कृतियां हैं। अनुराग बसु ने उन्हें अपने जैसे मध्यमार्गी सिनेमा के प्रयोगधर्मी फिल्मकारों का प्रेरणा पुरूष माना है। वे क्रॉसओवर सिनेमा के भी महत्वपूर्ण फिल्मकार माने जाते हैं। उनकी फिल्में (इकबाल को छोड़कर) मूलत: अंग्रेजीदां लोगों, प्रवासी भारतीय और मल्टीप्लेक्स दर्शकों के बीच लोकप्रिय हैं। इकबाल से उन्होंने मुख्यधारा के सिनेमा में छोटे बजट की साफ-सुथरी फिल्मों के जेनर में प्रवेश किया था। डोर इस श्रृंखला की दूसरी फिल्म है। नागेश कुकुनूर को फिल्म निर्माण या निर्देशन का प्रशिक्षण नहीं मिला है। उस्ताद-शार्गीद परंपरा में भी दीक्षित व्यक्ति नहीं हैं। मुंबई या हैदराबाद के आम फिल्मकारों की तरह उनको सफलता के लिए संघर्ष भी नहीं करना पड़ा। अमेरिका की अपनी सफल पेशा छोड़कर वे एक हैंडी कैमरा लेकर आए और अंग्रेजीदां भारतीय एवं प्रवासी दर्शकों के बीच उसी तरह छा गए जिस तरह रामगोपाल वर्मा भारतीय दर्शकों पर 1990 के दर्शकों पर अपनी प्रयोगधर्मी अनुभवहीनता के नयेपन से छा गए थे। आदित्य चोपड़ा, करण जौहर या सूरज बड़जात्या फिल्मी परिवारों से आए हैं और इन लोगों ने अपनी शुरूआत सहायक निर्देशक के रूप में अनुभव प्राप्त करने के बाद अपनी फिल्में बनायी थी। रामगोपाल वर्मा और नागेश कुकुनूर ने एक नई मिशाल कायम की। इन्होंने न तो विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त किया और न सहायक निर्देशक के रूप शार्गिर्रीकी और न ही सुभाषघई, राकेश रोशन या आशुतोष गोवरीकर की तरह असफल अभिनेता से सफल निर्देशक बनने की यात्रा पूरी की। इन लोगों ने फिल्म निर्माण को अपने व्यक्तिगत अनुभवों की अभिव्यक्ति से जोड़ा। महेश भट्ट इस तरह के फिल्म निर्माण की शुरूआत कर चुके थे। लेकिन एक तो महेश भट्ट नानू भाई भट्ट के बेटे थे। दूसरे वे राजखोसला जैसे बड़े फिल्मकार के शार्गिद रह चुके थे। फिर उन्होंने 1974 (मंजिलें और भी हैं) से 1980 (अभिमन्यु) तक 5 असफल फिल्मों का अनुभव प्राप्त करने के बाद अर्थ(1982) से आत्मकथात्मक फिल्मों की श्रृंखला शुरू जिसमें उन्हें संतुलित बजट, चुस्त कथानक एवं पेशेवर दक्षता के कारण सफलता मिलती गई। लेकिन रामगोपाल वर्मा एवं नागेश कुकुनूर की यात्रा एक अलग प्रकार की यात्रा रही है। यह महज संयोग नहीं है कि दोनों का संबंध हैदराबाद या आंध्र की फिल्मी संस्कृति से है। आंध्र्र प्रदेश की फिल्म संस्कृति मद्रास प्रेसिडेंसी से अलग होने के बाद आज भी अपनी पहचान के बारे में उस तरह सुस्पष्ट सीमा रेखा में नहीं बंध पायी जिस तरह तमिलनाडु, केरल या कर्नाटक की संस्कृति हो  पायी है। फलस्वरूप इनका सिनेमा एवं इनकी राजनीति की कुछ ऐसी विशेषता है जो न तो तमिलनाडु से मिलती है और न कर्नाटक या केरल से और न उत्तार भारतीय संस्कृति या मुंबइया सिनेमा से। फलस्वरूप रामगोपाल वर्मा, नागेश कुकुनूर हों या के.राघवेन्द्रराव, के. बप्पय्या स्कूल से जुड़े फिल्मकार ये लोग अपनी फिल्मों में एक अजीब घालमेल करते हैं। तमिल, मलयालम या बंगाली फिल्मों की मुख्यधारा के फिल्मकारों की तुलना में तेलगु सिनेमा एवं संस्कृति से जुड़े अधिकांश फिल्मकार कई मामलों में मुंबईया सिनेमा की तरह ''थाली'' परोसते हैं परंतु इनकी थाली के भोजन (कथानक) में मुंबईया सिनेमा की तरह एक पैर्टन या कैनन(विचारधारा या सैध्दांतिक रूझान) की जगह प्रयोग धर्मिता के नाम पर प्रयोग धर्मिता की खिचड़ी (घालमेल) होती है जिसका स्वाद लग जाने पर आप इसके रस में डूब सकते हैं परंतु अगर आपने अपने ऑंख, कान और मस्तिष्क को खुला रखा और आपकी संस्कृतिक स्मृति का लोप नहीं हुआ है तो आपको इनकी फिल्में देखने- समझने-समझाने में दिक्कत हो सकती है। नागेश कुकुनूर की डोर इस दृष्टि से विचार करने के लिए एक महत्वपूर्ण फिल्म है। मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सामाजिक व्यवस्था अध्ययन केन्द्र में सिनेमा से संबंधित दो कोर्स पढ़ाता हूँ। एक कोर्स का नाम है, सिनेमा एडं कल्चर इन इंडिया। यह एम.ए. समाजशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए एक वैकल्पिक कोर्स है। एक दूसरा एम.फिल. समाजशास्त्र के लिए वैकल्पिक कोर्स है जिसमें फिल्म टेक्स्ट (पाठ) का सभ्यतामूलक विमर्श किया जाता है। नागेश कुकुनूर की इकबाल (2005) और डोर (2006) को मैंने अपने विद्यार्थियों के साथ तथा कुछ अन्य सिनेमा प्रेमियों के साथ कई बार तुलनात्मक दृष्टि से देखा है। ज्यादातर दर्शकों ने इकबाल को हर दृष्टि से एक उत्कृष्ट फिल्म माना है। इसे व्यावसायिक सफलता भी मिली थी और अन्य समीक्षकों ने भी सराहा है। दरअसल हैदराबाद ब्लूज(1998) से इकबाल (2005) तक नागेश कुकनूर की फिल्मों को आप समानांतर सिनेमा या न्यू वेभ फिल्मों की परंपरा में यथार्थवादी या छद्म यथार्थवादी फिल्मों की परंपरा में रख सकते हैं। इन फिल्मों का कैनवास छोटा है। ये फिल्में या तो नागेश कुकुनूर के व्यक्तिगत अनुभवों से प्रेरित हैं या एक दर्शक के रूप में उनके सिनेमायी अनुभव से प्रेरित हैं। लेकिन डोर (2006) एक व्यावसायिक फिल्म है जिसका कैनवास काफी बड़ा है। इसकी कहानी काश्मीर के एक गांव (जिसे फिल्म के पाठ में हिमाचल प्रदेश कहा गया है लेकिन डी.वी.डी. के कवर पर काश्मीरी गांव कहा गया है), राजस्थान के जोधपुर जिले का राजस्थानी इलाके के अग्निवंशी राजपूतों की एक हवेली और भारत सरकार के विदेश विभाग तथा प्रवासी भारतीय कानून से लेकर सउदी अरब की कानूनी व्यवस्था तक इतने बड़े कैनवास पर फैला दिया गया है जिसे सिनेमाई भाषा में प्रस्तुत् करने के लिए कुरोसावा, सत्यजितरे, बिमल रॉय, गुरूदत्ता, शांताराम या एस.एस. वासन जैसी प्रतिभा चाहिए या पटकथा और संवाद लेखकों की प्रतिभाशाली टीम चाहिए थी। लेकिन हाल के दिनों में पटकथा, कथा या संवाद लेखकों को सामान्यत: वह महत्व नहीं दिया जाता जितना मुखराम शर्मा, नबेन्दु घोष, ख्वाजा अहमद अब्बास, रामानंद सागर, सचिन भौमिक या सलीम जावेद के जमाने में दिया जाता था। फलस्वरूप नागेश कुकुनूर कई जगह भटके हैं, कई बड़ी गलतियां कर गए हैं। आर्ट सिनेमा से व्यावसायिक सिनेमा का  यात्रा सामान्यत: उतना ही दुरूह होती है जितना थियेटर से सिनेमा की यात्रा दुरूह होती है। जिस तरह आग, बरसात,श्री 420, जागतेरहो और बूट पॉलिस बनाने वाले राजकपूर ने बॉबी, सत्यम शिवम् सुन्दरम और राम तेरी गंगा मैली बनाकर धन वसूलना चाहा था चूंकि मेरानाम जोकर (1970) की असफलता से वे असंतुलित हो गए थे उसी तरह नागेश कुकुनूर भी  प्रायोगिक सिनेमा बनाते-बनाते शायद थक गए थे और ''जड़ और जमीन से उखड़े'' दर्शकों के सामने मनमोहन देसाई और डेविड धवन मार्का स्टाइल में उन्होंने एक गंभीर धार्मिक-कानूनी-सभ्यतामूलक कथानक को ''चूं.चूं का मुरब्बा'' या ''उत्तार भारतीय थाली'' के रूप में पेश करने का दु: साहस किया। दुर्भाग्य से दर्शकों ने फिल्म को बुरी तरह नकार दिया और नागेश कुकुनूर के समर्थकों को भारतीय दर्शकों की समझ पर तरस आने लगा।
कुछ अंग्रेजी समीक्षकों ने इसे चार सितारा दिया है। यानि अतिश्रेष्ठ श्रेणी की फिल्म मानी गई है। इसका जेनर ड्रामा माना गया है। गुल पनाग, आएशा टाकिया और श्रेयस तलपदे के साथ गिरीष कर्नाड, सुरेखा सिकरी और नागेश कुकनुर ने इसमें उत्कृष्टता एवं गुल पनाग एवं आएशा टाकिया के अभिनय में गहराई है। केवल अभिनय, फोटोग्राफी एवं नयनाभिराम चाक्षुष दृश्य की दृष्टि से डोर एक मनोरंजक फिल्म है। लेकिन इसके कथानक में सांस्कृतिक उलझन एवं अक्षम्य सरलीकरण है। यदि भारतीय दर्शकों ने इसे असफल बनाया तो यह भारतीय दर्शकों की वयस्कता एवं संतुलित दृष्टि की मिशाल है। भारतीय दर्शक एवं भारतीय मतदाता बहुत चतुर सुजान है। वह माइंडलेस कॉमेडी (फूहड़ हास्य) और अविश्वसनीय एक्शन ड्रामा को तो बर्दाश्त कर लेती है लेकिन गैर ईमानदार प्रस्तुतिकरण और अविश्वसनीय कथा को नहीं पचा पाती। खासकर तब अगर वह तथाकथित बुध्दिजीवियों द्वारा प्रस्तुत् की गई हो। इसी दृष्टि से डोर की व्यावसायिक असफलता और बुध्दिजीवियों की अनुकूल समीक्षा पर विचार करना आवश्यक है।
डोर में दो कहानी साथ-साथ चलती है। एक कहानी हिमालय की तराई में बसे एक मुस्लिम कस्बे की है। और दूसरी कहानी राजस्थानी रेगिस्तान के जोधपुर नगर के राजपूती मुहल्ले में बसे अग्नि बंसी राजपूत परिवार के हवेली की। सिनेमाई संयोग के तहत  हिमालयी तराई के मुस्लिम कस्बे का एक युवक आमीर और जोधपुर के अग्नि बंसीय राजपूत हवेली का बड़ा बेटा शंकर सउदी अरब में नौकरी के लिए जाते हैं और एक ही कमरे में रहते हैं। एक दिन दोनों में किसी बात पर झगड़ा होता है और आमिर के धक्का देने से शंकर की मृत्यु हो जाती है। सउदी कानून के अनुसार आमिर को मृत्युदंड की सजा हो जाती है। दो माह बाद उसे फासी लगने वाली है। यह खबर विदेश विभाग का एक आला अफसर छुट्टी लेकर आमिर के परिवार वालों को खुद बताने जाता है। वह कहता है कि सामान्यतया इस तरह की सूचना स्थानीय पुलिस दिया करती है। लेकिन वह खुद छुट्टी लेकर यह बतलाने आया है। वह यह भी बतलाता है कि आमिर के बचाने का एक ही उपाय है अगर शंकर की पत्नी माफीनामे पर दस्तखत कर दे तो सउदी कानून के अनुसार आमिर बच सकता है। वह माफीनामे का कागज आमिर की बीबी जीनत को देता है। जीनत पूछती है कि शंकर की पत्नी कहां मिलेगी तो वह अफसर केवल इतना बतलाता है कि उसके पास इसके बारे में केवल यही सूचना है कि शंकर राजस्थान का निवासी था। जीनत केवल इतनी सूचना पाकर अल्लाह के भरोषे शंकर की बेवा(विधवा) से माफीनामे पर दस्तखत करवाने अकेले निकल पड़ती है। उसके साथ न तो आमिर के माता-पिता जाते हैं और न ही जीनत के अभिभावक जाते हैं। विपरीत परिस्थियां झेलते-झेलते वह किसी तरह शंकर के परिवार तक पहुंच जाती है। रास्ते में उसे एक बहुरूपिया (श्रेयम तलपदे) मिलता है जो शुरू में तो उसका बैग चुरा लेता है लेकिन बाद में वह कदम-कदम पर उसकी रक्षा करता है और उससे प्यार करने लगता है। थोड़ी देर के लिए लगता है कि राजकपूर और नरगिस की चोरी-चोरी या पूजा भट्ट और आमिर खान की दिल है कि मानता नहीं या करीना कपूर और शाहिद कपूर की जब वी मेट की कहानी की तरह जीनत और    बहुरूपिया एक- दूसरे के प्रति इतना आकर्षित हो जाएंगे कि जीनत अपने असंभव लक्ष्य को भूल कर संभव और स्वाभाविक रिश्ते को स्वीकार लेगी। बहुरूपिया एक नहीं तीन बार कहता है कि वह उसे प्यार करता है। जीनत भी इस सच्चाई से वाकिफ है। लेकिन उसे अल्लाह मियां की दया पर अटूट आस्था है। और अंत में वह अपने असंभव लक्ष्य की प्राप्ति कर लेती है। इस तरह यह जीनत और अल्लाह मियां के बीच के रूहानी डोर की कहानी है। लेकिन इस रूहानी डोर की कहानी में कई बातें अविश्वसनीय एवं अवास्तविक हैं। पहली तो यह कि विदेश विभाग का जो आला अफसर खुद छुट्टी लेकर आता है(बढ़-चढ़कर मदद करना चाहता है) उसे शंकर के बारे में  पूरा पता मालूम नहीं है जबकि विदेश जाने वाले हर व्यक्ति के पासपोर्ट और वीजा में पूरी सूचना दर्ज होता है। दूसरा माफीनामा पर दस्तखत करवाना एक कानूनी प्रक्रिया है उसे उस तरह जीनत को देना एक कानूनी खिलवाड़ है। जिस रूप में मीरा (शंकर की पत्नी) जीनत को माफीनामा देती है उसकी कानून वैधता का सवाल लेखक- निर्देशक गोल कर जाता है। वास्तव में इस माफीनामे पर गवाह वह भी सरकारी का होना आवश्यक है। परन्तु यही नहीं अनेक मामलों में लेखक- निर्देशक को न कानूनी बारीकी से मतलब है और न सांस्कृतिक- धार्मिक मामलों की बारीकी से सरोकार है। जीनत और आमिर की निकाह के वक्त न कोई काजी है और न गवाह। इस्लाम के मामूली जानकार भी जानते हैं कि निकाह को वैध तभी माना जाता है जब दो पुरूष या स्त्रियां निकाह की प्रक्रिया के गवाह हों।
दूसरी कहानी में शंकर और मीरा (आएशा टाकिया) शुरू से विवाहित हैं। बड़ी हवेली में रहने वाला परिवार कर्ज में डूबा हुआ है। कर्ज से मुक्त होने के लिए शंकर सउदी अरब में नौकरी करने जाता है। जोधपुर में सुपर फास्ट टे्रेन का स्टेशन है लेकिन एक भी टेलीफोन बूथ नहीं है। मीरा शंकर से एक व्यक्ति के मोबाइल फोन से बात किया करती है। शंकर पोस्टऑफिस से पैसा भेजता है। दूसरी ओर हिमालय की तराई में टे्रेन या बस की भी ठीक से सुविधा नहीं है। जीनत ट्रक में सफर करती है लेकिन टेलीफोन बुथ है। समझ में नहीं आता कि इन तकनीकी बारीकियों के द्वारा लेखक - निर्देशक क्या हासिल करना चाहता है। खैर, बहुरूपिया की मदद से जीनत शंकर के परिवार से माफीनामे पर  दस्तखत करवाने में नाकाम होने पर झूठ और फरेब का सहारा लेती है। वह अपने मिशन में हर कीमत पर सफल होना चाहती है। पहली बार उसने शंकर के माता - पिता- भाई और दादी को सच बतलाया तो उन लोगों ने बुरा- भला कहा। जीनत उनके गुस्से को जायज मानती है। लेकिन फिर भी वह शंकर की बेवा से मिलना चाहती है। मीरा उस वक्त घर में ही काम कर रही थी। उसने घर वालों को किसी पर चीखते चिल्लाते सुना भी। परन्तु पूरा माजरा उसे समंझ में नहीं आया। किसी ने न तो उसे बतलाया और न उसने पूछा। इसमें एक प्रकार की अस्वभाविकता है। परन्तु ल लेखक-निर्देशक को कहानी बढ़ानी थी।

बहुरूपिया की मदद से जीनत को पता चलता है कि मीरा दिन में एक बार घर से बाहर निकलती है। वह प्रतिदिन अकेले या एक छोटी स्कूल जाने वाली लड़की के साथ मंदिर आती जाती है। वह लड़की एक अनाथ है जिसे शंकर कुंआ से घर लाया था। बाद में शंकर के घर काम करने वाले व्यक्ति ने उसे गोद ले लिया। जीनत मीरा से मंदिर में मिलती है। अपनी पहचान छिपाती है। उसने कहा कि उसका पति आमिर यहीं कहीं है। उसका नाम जीनत है। वह हिमाचल प्रदेश के एक गांव या मुहल्ले से आयी है। जगह का नाम उसने नहीं बतलाया। दर्शकों को यह अंत तक पता नहीं चलता कि वह वास्तव में हिमाचल की है या काश्मीर के किसी हिस्से की है। हिमाचल में मुस्लिम मुहल्ला न के बराबर है। हिमाचल एक हिन्दू - बहुल प्रदेश है। ऐसी जगहों के मुस्लिम मुहल्ले की लड़कियां या औरते पराये मर्दों के सामने पर्दा करती हैं। काले रंग के बुर्का में बाहर निकलती है। लेकिन उस मुहल्ले में जीनत या किसी अन्य मुस्लिम महिला को बुर्का पहने   या पर्दा करते नहीं दिखलाया गया है। जीनत जब अपने मुहल्ले से राजस्थान की यात्रा पर अकेले निकलती है तो उसे एक सिख ट्रक वाले ड्राइवर ने लिफ्ट दिया था। विदाई के वक्त वह जीनत को 'सत श्री अकाल 'कहा लेकिन जीनत ने उसे सत श्री अकाल नही कह कर सलाम किया। लेकिन जब वह मीरा और स्कूल की लड़की से मिलती है तो 'सलाम वाले कुम ' बोलती है और उस छोटी लड़की को 'वाले कुम सलाम' बोलना सिखलाती है। दर्शक अचंभित है कि वास्तव में जीनत एक सामान्य मुस्लिम स्त्री की प्रतीक है या वह वहाबी आंदोलन की मिशनरी का प्रतिनिधित्व करती है। क्या 11 सितंबर 2001 के बाद इस्लाम की अमेरिकी परिस्थिति मेें जो तस्वीर बनी है उसमें इस फिल्म में एक अमेरिकी पृष्ठभूमि का हिन्दू फिल्मकार जान-बूझ कर इस्लाम की गलत तस्वीर पेश करके हिन्दू- मुस्लिम  खाई दिखलाना चाह रहा है? या भारत के हिन्दू- मुस्लिम संस्कृति से अनजान एक अनाड़ी फिल्मकार विदेशों में बसे भारतीय मूल के दर्शकों और विदेशी शौकीनों को पैसा बनाने के लिए एक बिना सिर पैर की भावुक कहानी दिखलाने की कोशिश कर रहा है। जो भी हो, मीरा जीनत की बातों पर विश्वास कर लेती है और अनुमान लगाती है कि जीनत का पति आमिर उसके घर किराया पर रहने वाले चोपड़ा जी के कंस्ट्क्शन कंपनी में काम करता होगा। वह जीनत से वादा करती है कि वह उसके पति का पता लगायेगी। रात को वह चोपड़ा जी (नागेश कुकुनूर) का अकेले दरवाजा घटखटाती है और आमिर का फोटोग्राफ दिखलाकर पूछती है कि क्या वह उसकी कंपनी में काम करता है। चोपड़ा जी को मीरा की जवानी और सुन्दरता देखकर मन में वासना उठता है। वह मीरा को तो कुछ नहीं कहता लेकिन दूसरे दिन सुबह उसके श्वसुर (गिरीष कर्नाड) के पास प्रस्ताव रखता है कि अगर वह मीरा को रखैल बनाने की इजाजत देता है तो वह उसे पांच लाख रूपया देगा और जब जाने लगेगा तो मीरा को छोड़कर जाएगा। किसी बाहर वाले को पता भी नहीं चलेगा और इस परिवार का कर्ज भी चुक जाएगा, हवेली भी नहीं बिकेगी और 2 लाख का मुनाफा भी होगा। दर्शक सन्न रह जाता है। राजस्थान के राजपूत वह भी अग्निवंसी राजपूत अपनी आन-बान और इज्जत के लिए जान की बाजी लगाने वाले जाबाज रहे हैं। यहां की औरतों ने अपनी इज्जत बचाने के लिए जौहर किया है। यहां आज भी सती प्रथा की सही या गलत रीति कायम है। रूप कुंअर की सती बनने या बनाने के किस्से की याद आज भी  ताजी है। दर्शकों को लगता है कि गिरीष कर्नाड गुस्से से चोपड़ा का खून कर देगा। चोपड़ा की भूमिका लेखक - निर्देशक ने खुद निभायी है। अत: उपरोक्त संवाद के बाद वेश्याओं के अनुभवी दलाल की तरह गिरीष कर्नाड के बर्ताव को देखकर दर्शकों का मन कसैला हो जाता है। आश्चर्य इस बात का है कि जिस राजपूत महासंघ ने जोधा अकबर जैसी ऐतिहासिक रूप से इमानदार और कलात्मक फिल्म पर बेतुका हंगामा किया उसने डोर के उपरोक्त सीन पर क्यों बवाल नहीं मचाया या सेंसर बोर्ड ने इसमेें काट-छांट की क्यों मांग नहीं की?

हिन्दू विधवा सामान्यत: उजला वस्त्र पहनती हैं लेकिन मीरा और शंकर की दादी गहरे नीले वस्त्र पहने रहती हैं। जीनत कभी पर्दा नहीं करती लेकिन मीरा हमेशा पर्दा करती है। तब भी जब शंकर जिंदा था और तब भी जब वह विधवा हो गई इन दृश्यों में लेखक - निर्देशक की चूक या सांस्कृतिक - मूढ़ता अखरतती है। खैर, जब दो महीना बीतने को है तो बहुरूपिया का धैर्य जवाब देने लगता है। दो माह तक वह जीनत की  छाया बन कर उसे पाने की चाह में साथ लगा रहता है। लेकिन जब जीनत मीरा से अपनी असलियत बतलाती है तो मीरा नाराज होती है। वह कहती है कि तुम्हारे कुराण के अनुसार भी ऑंख के बदले ऑंख और हत्या के बदले हत्या का न्याय है। जीनत दलील देती है कि इसी कुराण के अनुसार माफ करने वाला दंड देने वाले से बड़ा होता है। मीरा माफीनामे पर दस्तखत करने को राजी नहीं होती। माफीनामा वाला कागज मंदिर के पास फेंक देती है। जीनत निराश होकर वापस लौट रही है। लेकिन तब भी वह बहुरूपिया का प्रस्ताव नहीं स्वीकारती। इस्लाम में तलाक और पुनर्विवाह की कानूनी इजाजत है। इस्लामी कानून के अनुसार आमिर एक कातिल है। जिसकी सउदी कानून के अनुसार सजा मौत है। जीनत के इस भोले विश्वास के अलावे कि मेरा आमिर कातिल नहीं हो सकता आमिर को माफी मिलने का कोई कानूनी या नैतिक तर्क नहीं है। लेकिन घर पहुंचने के बाद मीरा पुनर्विचार करती है और इंसानियत के नाम पर माफीनामे पर दस्तखत कराने के लिए राजी हो जाती है। जीनत ने डेढ-दो महीने तक मीरा को स्वतंत्रता और मनपसंद जिन्दगी जीने का स्त्रीवादी पाठ पढाया था। यह स्पष्ट नहीं है कि मीरा ने यह सब खुद  कहां से सीखा। राजस्थान के रेगिस्तान में देर शाम आंधियां उठती हैं। लेकिन कई घंटों के बाद भी माफीनामा मंदिर के पास ही उसी स्थान पर गिरा मिलता है। उड़ता नहीं है। क्या संयोग है। खैर, मीरा ट्रे्रेन खुलने से पहले माफीनामा जीनत को वापिस देती है। ट्रेन खुल जाती है। ट्रेन खुलने के बाद जीनत अपना हाथ बढ़ाती है और मीरा चलती ट्रेन में दौड़कर चढ़ती है। वह जीनत का हाथ पकड़ कर अपनी कुल परंपरा ससुराल और मायका एक  झटके में भूल जाती है। यह भी मनोरंजक है कि विधवा होने के बाद एकबार भी उसके मायका से कोई नहीं आता। फिल्म खत्म होने से पहले बहुरूपिया भी उसी ट्रेन में सफर करता दिखता है। जीनत को तो अब आमिर मिल जाएगा। मीरा का क्या होगा? क्या जीनत मीरा और बहुरूपिया का अरेंज्ड मैरिज करायगी या मीरा जीनत के साथ उसकी सहेली बनकर रहेगी? यह सोचना आपका काम है। फिल्म पूरी हो गई। निखत आजमी जैसे समीक्षकों ने टाइम्स ऑफ इंडिया में इसे चार सितारा प्रदान कर एक अद्भुत दर्शनीय फिल्म कह दिया। दर्शकों ने इसे नकार दिया तो यह उनकी पारंपरिक मूढ़ता है। नागेश कुकुनूर तो एक बड़े फिल्मकार हैं उनकी फिल्म तो महान कला है। आपके पास सुरूचिपूर्ण फिल्म देखने के लिए डोर का क्या विकल्प है?

 इसी तरह की ''विद्वतापूर्ण'' भाषा चंद्राबाबू नायडू और प्रमोद महाजन 2004 की लोकसभा चुनाव से पहले बोला करते थे - देयर इज नो अल्टानेटिव ऑफ एन.डी. ए.(टीना फैक्टर) लेकिन 2004 के लोकसभा चुनाव और बाद में आंध्रप्रदेश विधानसभा के चुनाव में प्रमोद महाजन और चंद्राबाबू नायडू की हेंकड़ी निकल गई। नागेश कुकनुर की भी इसी तरह हेंकड़ी निकल गई। आदित्य चोपड़ा को भी जब गुरूर हो गया कि यशराज की हर फिल्म देखना जनता की मजबूरी है तो उनकी लगातार फिल्में असफल होने लगी।

सिनेमा एक औद्योगिक कला है। सांस्कृतिक उत्पाद है। दर्शक काफी समझदारी से अपनी प्रिय फिल्मों का चुनाव करती है। विकल्पों का अभाव नहीं है। टेलीविजन के चैनलों से लेकर मल्टीप्लेक्स तक विकल्पों की श्रृंखला में दर्शक एक अच्छी और मनोरंजक फिल्म देखना चाहता है। आज का दर्शक बड़े स्टार या नामी निर्देशक के नाम से अभिभूत नहीं होता। उसे एक अच्छी फिल्म चाहिए। गंभीर विषय भर उठाना काफी नहीं है, इमानदारी पूर्वक उसको विश्वसनीय बनाना भी आवश्यक है। इकबाल की सफलता के गुरूर में नागेश कुकुनूर ने अपनी रचनात्मक संतुलन खो दिया और फिल्म सजीव अभिनय, निर्देशकीय कौशल और मनभावन दृश्यों के बावजूद बॉक्स ऑंफिस पर असफल साबित हुई। अब इसमें दर्शकों को दोष देना कितना जायज है? पश्चिमी प्राच्चविदों ने परिवर्तनहीन भारत की एक नकारात्मक तस्वीर निर्मित की है जिसमें भारत की संस्कृति और परम्परा में सब कुछ नकारात्मक है जैसे जाति व्यवस्था और छुआछुत , संयुक्त परिवार , विवाह संस्कार के साथ विधवाओं के साथ अमानवीय व्यवहार । ऐसा नहीं है कि भारतीय समाज में कुरीतियां नहीं रही हैं। लेकिन रीतियों की तरह कुरीतियां भी सार्वभौमिक न होकर स्थानीय होती हैं। उनमें देश, काल, परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होते रहता है। यह हिन्दू धर्म के लिए जितना सही है उतना ही इस्लाम धर्म के लिए भी सही है। आधुनिकता हो या परम्परा कमी हर व्यवस्था , हर समुदाय , हर सम्प्रदाय में होती है। एक इमानदार फिल्मकार हर समुदाय का संतुलित एवं कलात्मक प्रस्तुति करता है। लेकिन पश्चिमी आधुनिकता के अतिवादी समर्थक 11 सितंबर 2001 के बाद इस्लामिक पात्रों को या तो आतंकवादी के  रूप में पेश करते हैं या अतिआधुनिक नारीवादी के रूप में। इनकी नजर में हाड.-मांस का जीता जागता धार्मिक -आस्थावान मुसलमान पुरूष या स्त्री की प्रस्तुति संभव ही नहीं है। ठीक उसी प्रकार एक विधवा की गरिमामयी उपस्थिति भारतीय इतिहास एवं मिथकों में  सत्यवती और कुंती से लेकर जीजाबाई और इंदिरागांधी तक भरे पड़े हैं लेकिन प्राच्चवादी विचारधारा ऐसे तथ्यों को नजर अंदाज करती रही है। भारतीय समाज के तल में कुछ चिरंतन मूल्य हैं सतह पर परिवर्तन की लहरें हिलोरे ले रही हैं और इन सिरों के तनाव को साधने से ही आज का भारत समझ आ सकता है । चिरंतन मूल्यों के इर्दगिर्द छाई हुई तर्कहीन मनगढ़ंत किंवदंतियों और कुरीतियों से मुक्त होते हुए परिवर्तन के लिए बेकरार  भारत को फार्मूला समझने की गलती फिल्मकार कर रहे हैं और उसे भीड़ तथा वोटबैंक समझने की गलती नेता कर रहे हैं।

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