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लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067
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गणपति - तत्व
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गणपति - तत्व
सर्व जगत नियंता पूर्ण परम तत्व ही गणपति तत्व हैं। 'गण' शब्द समूह का वाचक होता है। समूहों के पालन करने वाले परमात्मा को गणपति कहते हैं। गणपति ब्रह्म ही हैं। उन्ही से जगत की उत्पति, स्थिति और लय होता है। एक ही परम तत्व भिन्न-भिन्न उपासकों की भिन्न-भिन्न अभिलषित सिद्वि के लिए अपनी अचिन्त्य लीला-शक्ति से भिन्न-भिन्न गुण गण सम्पन्न होकर नाम रूपवान् होकर अभिव्यक्त होता है। इसीलिए भिन्न-भिन्न पुराणों में शिव, विष्णु, सूर्य, शक्ति और गणपति आदि सभी ब्रह्म रूप से विवक्षित हैं। शास्त्र गणपति को पूर्ण परब्रह्म बतलाते हैं।
गणपति के स्वरूप में नर तथा गज इन दोनों का ही सामंजस्य पाया जाता है। शास्त्रों में 'नर' पद से प्रणवात्मक सोपाधिक ब्रह्म कहा गया है। समाधि से योगी लोग जिस परम तत्व को प्राप्त करते हैं, वह 'ग' है और जैसे बिम्ब से प्रतिबिम्ब उत्पन्न होता है, वैसे ही कार्य-कारा-स्वरूप प्रणवात्मक प्रपंच जिससे उत्पन्न होता है, उसे 'ज' कहते हैं। अत: 'गज' पद का भी अध्यात्मिक अर्थ है।
भारतीय संस्कृति में गणपति का लोकप्रिय नाम श्री गणेश है। देवि-देवताओं में श्री गणेश का स्थान सर्वोपरि है। हिन्दू धर्म का कोई भी कार्य हो, उसका प्रारंभ श्री गणेश पूजन से ही होता है, इसको 'श्री गणेशाय नम:' भी कहते हैं। हिन्दू धर्म में तैंतीस करोड़ देवी-देवता हैं, परन्तु प्रत्येक देवता की पूजा में अग्रस्थान श्री गणेश का ही है। श्री गणेश तो देवताओं को भी वरदान देने वाले स्वयं ऊॅंकार स्वरूप हैं। यजुर्वेद में इन्हें गणपति, प्रियपति एवं निधिपति के रूप में आहूत किया गया है। ये प्रथम पूज्य हैं, गणेश हैं, विध्नेश है साथ ही विद्या-वारिधि और बुध्दि-विधाता भी हैं। स्वास्तिक -चिन्ह श्री गणपति का स्वरूप है और दो-दो रेखाएं श्री गणपति की भार्या स्वरूप सिध्दि-बुध्दि एवं पुत्र स्वरूप लाभ और क्षेम हैं। श्री गणपति का बीजमंत्र है अनुस्वार युक्त ग अर्थात 'गं' इस 'ग' बीजमंत्र की चार संख्या को मिलाकर एक कर देने से स्वस्तिक चिन्ह बन जाता है। इस चिन्ह में चार बीजमंत्रों का संयुक्त होना श्री गणपति की जन्मतिथि चतुर्थी का द्योतक है। श्री गणपति बुध्दि प्रदाता हैं। इनका पूजन सिध्दि-बुध्दि, लाभ और क्षेम प्रदान करता है। यही भाव स्वस्तिक के आसपास दो-दो बड़ी रेखाओं का है। इनको विनायक, गणेश्वर, गजानन, एकदन्त, लम्बोदर, सूर्पकर्ण, विध्नराज, सुमुख,गणाधिम, हेरम्ब, विकट, धुम्रकेतु, विध्नेश, परशुपाणि, गजास्य, शूर्पकर्ण तथा मूषकध्वज आदि अनेक नामों से संबोधित किया गया है।
गणपति की उपासना प्राचीन आर्यजगत की पंचदेवोपासना में एक मुख्य उपसना है। जिस प्रकार प्रत्येक मंत्र के आरंभ में ओंकार का उच्चारण आवश्यक है, उसी प्रकार शुभ अवसर पर गणपति की पूजा अनिवार्य है। कृत युग में गणेश जी का वाहन सिंह है, वे दस भजा वाले, तेज स्वरूप और विशालकार्य तथा सबको वर देने वाले हैं। उनका नाम विनायक है।
त्रेता युग में इनका वाहन मयूर है, वे छ: भुजावाले हैं। श्वेत वर्ण हैं। तीनों लोकों में मयूरेश्वर नाम से प्रसिध्द हैं।
द्वापर में इनका वर्ण लाल है आखु - मूषक वाहन है। उनको चार भुजाएँ हैं। वे देवता और मनुष्यों के द्वारा पूजित हैं। इनका नाम गजानन है।
कलियुग में उनका धूम्रवर्ण है, वे घोडे. पर आरूढ़ रहते हैं, उनके दो हाथ हैं, उनका नाम ध्रूमकेतु है, वे मलेच्छवाहिनी का विनाश करते हैं। लेकिन लोक में श्री गणेशजी का सर्वप्रसिध्द वाहन मूषक है। ऋग्वेद के भाष्यकार स्कन्द स्वामी ने लिखा है कि वैदिक देवता वृहस्पति ही विध्नेश गणपति हैं। लौकिक साहित्य में गणेश के दो मुख्य गुणों का वर्णन है-
एक विद्या , बुध्दि एवं धन प्रदान करना ओर दूसरा विध्न या दुष्टों का दमन करना। समकालीन भारत में तिलक महाराज ने गणपति महोत्सव का प्रारंभ करके गणपति पूजा को महत्ता दिलवायी। शिव पुराण में वे भगवान शिव और भगवती पार्वती के दत्ताक पुत्र माने गए हैं। कार्तिकेय के वे भाई माने गए हैं। कार्तिकेय भगवान शिव और भगवती पार्वती के औरस पुत्र हैं।
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