Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज

हिन्द स्वराज की प्रासंगिकता

 


महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज

गुलाम भारत में संप्रभुता एवं स्वावलंबन के सूत्रो की खोज

खण्ड-क
हिन्द स्वराज का सभ्यतामूलक संदर्भ      
बंगाल का बंटवारा और इसके परिणाम 

हिन्द स्वराज का दूसरा और तीसरा अधयाय आपस में जुड़ा हुआ है। दूसरे अधयाय का शीर्षक 'बंग-भंग' एवं तीसरे अधयाय का शीर्षक 'अशांति और असंतोष' है। दूसरे अधयाय में अंग्रेजी राज द्वारा बंगाल का बंटवारा यानि बंग-भंग (1905) और तीसरे अधयाय में बंग-भंग के बारे में अंग्रेज सरकार के निर्णय के उपरांत पूरे देश और खासकर बंगाल में पैदा हुए 'अशांति और असंतोष' के बारे में अपना विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
हिन्द स्वराज के दूसरे अधयाय में 'बंग-भंग' के बारे में संपादकजी कहते हैं कि ''स्वराज के बारे में सही जागृति के दर्शन बंग-भंग से हुई। हालांकि इसका बीज बंगालियों के बीच काफी समय से अंकुरित हो रहा था। बंग-भंग से जो धाक्का अंग्रेजी हुकूमत को लगा, वैसा और किसी काम से नहीं लगा। बंग-भंग के दिन से अंग्रेजी राज्य के भी टुकड़े हुए। बंगाल के टुकड़े करने का विरोधा करने के लिए प्रजा तैयार थी। उस समय बंगाल के बहुतेरे नेता अपना सबकुछ न्यौछावर करने को तैयार थे। अपनी सत्ता, अपनी ताकत को वे जानते थे। इसलिए तुरन्त आग भड़क उठी। अब वह बुझने वाली नहीं है, उसे बुझाने की जरूरत भी नहीं है। ये टुकड़े कायम नहीं रहेंगे, बंगाल फिर एक हो जायेगा। लेकिन अंग्रेजी जहाज में जो दरार पड़ी है, वह तो हमेशा रहेगी ही। वह दिन-ब-दिन चौड़ी होती जायेगी। जागा हुआ हिन्द फिर सो जाये यह नामुमकिन है। प्रजा एक दिन में नहीं बनती; उसे बनाने में कई बरस लग जाते हैं।''
संपादकजी मानते हैं कि 1905 में हुआ बंगाल का बंटवारा (बंग-भंग) हिन्द स्वराज का एक प्रकार से जन्म-दिन है। हालांकि बंगाल के बंटवारे को अंग्रेजी सरकार ने कलकत्ता से दिल्ली को राजधानी बनाने के बाद 1911 में निरस्त कर दिया था लेकिन 1905 से 1909 के बीच चला स्वदेशी आन्दोलन भारतीय जनमानस में रूपान्तरण का महत्तवपूर्ण स्वराजी आधार बना। 1909 से 1911 के बीच स्वदेशी आन्दोलन की लौ अंग्रेजी सरकार के दमन एवं अत्याचार के कारण कुछ धाीमी पड़ गई थी परंतु 1905 से 1909 के बीच यह आन्दोलन अपने चरम पर था। हिन्द स्वराज की रचना 1909 में हुई। तब तक यह आन्दोलन परवान चढ़ चुका था।
1835 में लॉर्ड मैकॉले की शिक्षा-नीति लागू होने से 1905 तक का 70 वर्ष का काल खण्ड भारत के सार्वजनिक जीवन में मधयवर्गीय नरमपंथियों का स्वर्णयुग रहा है। भारत के सार्वजनिक जीवन की मुख्य धारा का प्रतिनिधिात्व इसी वर्ग ने किया। 1885 में कांग्रेस नामक संगठन की (एच. वो. ह्युम द्वारा) स्थापना के बाद से भारत के अंग्रेज समर्थक सुधारवादी नरमपंथियों को एक अखिल भारतीय स्तर का मंच मिल गया। जबकि 1857 की असफल क्रान्ति के बाद स्वराजकामी लोग भूमिगत होकर बीज रूप में अंकुरित हो रहे थे। बाल गंगाधार तिलक, विपिनचन्द्र पाल, लाजपत राय एवं श्रीअरबिन्दो घोष जैसे गरमपंथी स्वराजवादियों का अंकुरण इसी बीज (स्रोत) से हुआ। परंतु एक पेड़ का स्वरूप इसने 1905 में ही लिया। 52 वर्ष लगा इस बीज के अंकुरण में।

हिन्द स्वराज के दूसरे अधयाय में महात्मा गांधी साफ-साफ कहते हैं कि - ''अब तक (1905) बादशाह से अर्ज करना कांग्रेस के नेताओं और भारतीय मधयवर्ग के बीच लोकप्रिय आग्रह था। बंग-भंग के बाद लगा कि हमारी अर्ज के पीछे कुछ ताकत चाहिए। लोगों में कष्ट सहने की शक्ति चाहिए। और इस अनुभूति ने नया जोश पैदा किया। इससे स्वदेशी आन्दोलन पैदा हुआ। पहले अंग्रेजों को देखकर छोटे-बड़े सब भागते थे, पर अब नहीं डरते; मार पीट से भी नहीं डरते; जेल जाने या देश निकाला से भी नहीं डरते। लोगों में खलबली मच गई है। बंगाल की हवा उत्तार भारत में पंजाब तक और दक्षिण में कन्याकुमारी तक पहुँच गई है।'' सवाल है कि यह सब कैसे हुआ? क्या स्वदेशी आन्दोलन मात्र बंग-भंग जैसी तात्कालिक घटना से उपजी एक आकस्मिक घटना थी या 1857 की असफल क्रान्ति के बाद स्वराजकामी लोगों ने बीच के कालखण्ड में जो किया था उसकी भी इसमें कोई भूमिका थी। यूरोपीय ढ़ंग के इतिहासकार चाहे जो भी कहते हों परंतु देसी स्रोतों से पता चलता है कि 1857 की क्रान्ति में स्वामी दयानन्द सरस्वती (मेरठ), तोतापुरी महाराज (कलकत्ता) एवं एक तांत्रिक साधु (मराठी भाषी क्षेत्रों में) काफी सक्रिय थे। स्वामी दयानंद सरस्वती और मंगल पांडे के संबंधा अब कई इतिहासकार स्वीकारने लगे हैं परंतु अन्य दोनों के बारे में ऐतिहासिक साक्ष्य का अभाव बतलाया जाता है। जो भी हो, यह मानने वाले अब बढ़ रहे हैं कि 1857 की क्रान्ति की योजना कुछ अलग थी। मंगल पांडे के उतावलेपन के कारण क्रान्ति योजना से पहले शुरू हो गई। इसका एक कारण देसी स्रोतों से यह पता चलता है कि मूल योजना में क्रान्ति की शुरूआत एक खास मुहूर्त में कलकत्ताा से शुरू होनी थी जबकि क्रान्ति शुरू हो गई मेरठ में और वह भी समय से पहले एक गलत मुहूर्त में। इसके लिए स्वामी दयानंद को जिम्मेदार माना जाता है। उन्हें गणित ज्योतिष तो स्वीकार्य था परंतु वे फलित ज्योतिष, मुहूर्त एवं दिशा-काल विचार को अंधाविश्वास मानते थे। जबकि तोतापुरी महाराज एवं बंगाल के क्रान्तिकारी फलित ज्योतिष को एवं मुहूर्त को यथोचित महत्तव देते थे। तंत्र की परंपरा में भी मुहूर्त का अपना महत्तव होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि 1857 के दिनों से ही भारत के नरमपंथियों में तो मतैक्य था लेकिन स्वदेशी आन्दोलन के तथाकथित गरमपंथी अनुयायियों में वैचारिक एकता नहीं थी। फलस्वरूप बंग-भंग से जो स्वदेशी आन्दोलन शुरू हुआ उसमें कई तरह के स्वर थे। इसी बात को रेखांकित करते हुए गांधीजी कहते हैं कि ''बंग-भंग से जैसे अंग्रेजी जहाज में दरार पड़ी है, वैसे ही हममें भी दरार फूट पड़ी है। हमारे नेताओं में दो दल हो गए हैं : एक मॉडरेट और दूसरा एक्स्ट्रीमिस्ट (नरम दल और गरम दल)। दोनों एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करते। सूरत कांग्रेस के समय करीब-करीब मार पीट भी हो गई। यह देश के लिए अच्छी निशानी नहीं है। लेकिन मैं यह भी मानता हूँ कि ऐसे दल लम्बे अरसे तक टिकेंगे नहीं।''

हिन्द स्वराज के दूसरे अधयाय में गांधीजी ने जो आशा व्यक्त की थी वह ऐतिहासिक रूप से सही साबित हुई। 1920 तक खुद गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस के दोनों दलों का आपस में विलय हो गया। तब तक तिलक महाराज की मृत्यु हो चुकी थी। लाजपत राय मूलत: पंजाब तक सीमित हो गये थे। विपिनचन्द्र पाल काफी हद तक निष्क्रिय हो चुके थे। श्रीअरबिन्दो 1909 में पांडिचेरी जाकर योग-साधाना में लग चुके थे और 1920 के आसपास उनका अपने आश्रम के अनुयायियों से भी संपर्क श्री मां के माधयम से ही होने लगा था। परंतु गांधीजी के बारे में अपने प्रमुख अनुयायियों से श्रीअरबिन्दो यदा-कदा टिप्पणी करते रहते थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर से महात्मा गांधी का वैचारिक विरोधा बढ़ने लगा था और हिन्दी भाषी क्षेत्रों में तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उनके खिलाफ एक जबरदस्त मोर्चा ही खोल रखा था। परंतु ये तीनों ही कांग्रेस पार्टी के बाहर थे और कांग्रेस के मार्गदर्शन में चलने वाले आन्दोलन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने की स्थिति में नहीं थे। इसके बावजूद तीनों का तत्कालीन भारतीय समाज, संस्कृति एवं साहित्य में अच्छा-खासा प्रभाव था जो काफी हद तक आज भी कायम है।

तीसरे अधयाय में बंग-भंग के परिणामस्वरूप उपजे अशांति एवं असंतोष के बारे में अपने विश्लेषण में गांधीजी कहते हैं कि जैसे नींद और जागने की प्रक्रिया में अंगड़ाई की स्थिति स्वभाविक होती है ठीक उसी प्रकार गुलामी की प्रक्रिया में सुप्त चेतना (नींद) और आत्म चेतना (जागना) के बीच अशांति और असंतोष (अंगड़ाई) भी स्वभाविक है। साथ में वह यह भी जोड़ते हैं कि कांग्रेस संगठन के संस्थापक मिस्टर ए. ओ. ह्युम हमेशा कहते थे कि ''हिन्दुस्तान में असंतोष फैलाने की जरूरत है। यह असंतोष बहुत उपयोगी चीज है। इसलिए हर एक सुधार के पहले असंतोष होना ही चाहिए। इस तरह, यह स्पष्ट है कि महात्मा गांधी बंग-भंग को न सिर्फ स्वाभाविक बल्कि ग्राह्य भी मानते हैं। सत्य और अहिंसा के समर्थक गांधी की यह स्वीकारोक्ति महत्तवपूर्ण है। परंतु यह भी धयान देने योग्य है कि गांधीजी की यह स्वीकारोक्ति ह्यूम की स्थापना की स्मृति की ओट में आयी है। गांधीजी इस तरह की युक्ति का अन्य अधयायों में भी उपयोग करते हैं (उदाहरण के लिए अधयाय 6 ''सभ्यता का दर्शन'' में वे कहते हैं कि हजरत मुहम्मद की शिक्षाओं के आधार पर आधुनिक पश्चिम की सभ्यता को शैतानी सभ्यता कहा जा सकता है)।

इस 'अशांति और असंतोष' के स्वरूप की व्याख्या करते हुए गांधीजी आगे लिखते हैं कि 'ऐसा असंतोष हममें महान हिन्दुस्तानियों की और अंग्रेजों की पुस्तकें पढ़कर पैदा हुआ है। उस असंतोष से अशांति पैदा हुई; और उस अशांति में कई लोग मरे, कई बरबाद हुए; कई जेल गए, कई को देशनिकाला हुआ। आगे भी ऐसा होगा; और होना चाहिए। ये सब लक्षण अच्छे माने जा सकते हैं। लेकिन इनका नतीजा बुरा भी आ सकता है।' गांधीजी की उपरोक्त बातों में दो-तीन बातें गौर करने लायक है :- वे कहते हैं कि कांग्रेस के संस्थापक ए. ओ. ह्युम मानते थे कि जबतक आदमी अपनी वर्तमान हालत में खुश रहता है तब तक उसे उसमें से निकलने के लिए समझाना मुश्किल काम है। इसलिए हर एक सुधार के पहले असंतोष होना ही चाहिए। ह्यूम ने ये बातें 1885 के आस-पास कहीं थीं। गांधीजी इसको 1905 के बंग-भंग और 1906-08 के स्वदेशी आंदोलन के संदर्भ में 1909 में उध्दाृत कर रहे हैं। दोनों स्थितियों में गुणात्मक अंतर है। ह्युम का उद्देश्य कांग्रेस के नरमपंथी नेताओं के सहयोग से ब्रिटिश सम्राट और भारत में अंग्रेजी राज के प्रति आस्थावान सुधारवादियों की फौज तैयार करना था जो भारतीय समाज, संस्कृति एवं धार्म के क्षेत्र में आधुनिक यूरोप के मूल्यों और मानदंडों पर आधारित सुधार आंदोलन चलायें और इसके साथ-साथ सीमित संविधानिक एवं कानूनी अधिाकारों के लिए अंग्रेजी राज को आवेदन पत्र भी भेजते रहें। कुल मिलाकर राजा राममोहन राय, डिरोजियो, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, राणाडे, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी जैसे सुधारवादी छोटे संगठनों की मदद से स्थानीय और प्रांतीय स्तर पर जो सुधार कार्यक्रम चला रहे थे उसी को ह्युम ने सैध्दांतिक अवधारणा एवं अखिल भारतीय मंच देने की कोशिश की। अत: ह्युम भारतीय समाज में भारतीय संस्कृति, रीति-रिवाजों एवं धार्मिक मान्यताओं के प्रति असंतोष बढ़ाना चाहते थे। वे लोग मानते थे कि भारत यदि गुलाम बना तो इसका कारण भारतीय संस्कृति की हीनता एवं अंग्रेजों की संस्कृति की श्रेष्ठता रही है। अत: अगर भारतीयों को विकसित होना है तो केवल ज्यादा संवैधानिक एवं राजनैतिक अधिाकार प्राप्त करने से बात नहीं बनेगी बल्कि भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक हालत के प्रति भारतीयों में असंतोष बढ़ना भी आवश्यक है ताकि वे यूरोपीय मापदंडों पर सुधार सकें या सुधारकों द्वारा सुधारे जा सकें। ऐसे सुधारकों के पक्ष में एवं भारतीय संस्कृति के प्रति असंतोष से भरपूर किताबों का प्रकाशन न सिर्फ अंग्रेज लेखक कर रहे थे बल्कि कुछ भारतीय लेखक भी कर रहे थे। परंतु दादा भाई नौरोजी, रमेशचंद्र दत्ता जैसे भारतीय लेखकों ने अंग्रेजी राज द्वारा भारत के आर्थिक शोषण और ब्रिटिश मानदंडों से भी अन्यायपूर्ण शासन के प्रति एक नये प्रकार के असंतोष को जन्म देना शुरू किया था। अंग्रेजी में उपलब्धा टाल्सटाय, रस्किन, कारपेन्टर, टेलर, थोरो, मैजिनी, ब्लाउन्ट, प्लेटो, मैक्स नॉरडु और हेनरी मेन जैसे लेखकों के प्रभाव में आधुनिक सभ्यता और अंग्रेजी राज के गैर-पारंपरिक, अधार्मिक एवं अकल्याणकारी स्वरूप के बारे में भी असंतोष फैल रहा था। इस अधयाय में गांधीजी ने ह्युम की चर्चा करके मात्र असंतोष की चर्चा की है। परंतु हिन्द स्वराज के परिशिष्ट दो में गांधीजी ने जिन 20 पुस्तकों की चर्चा की है वे टाल्सटाय जैसे उपरोक्त लेखकों की पुस्तके हैं। अत: यह स्पष्ट है कि 1909 में गांधीजी बंग-भंग से उपजे असंतोष को ह्युम के अर्थ में नहीं बल्कि टाल्सटाय आदि के अर्थ में ग्राह्य मानते हैं। दूसरी बात यह है कि वे इस असंतोष और अशांति के परिणामस्वरूप कई लोगों के मरने, बरबाद होने, जेल जाने और उनके  देश निकाला होने की घटनाओं को अच्छा लक्षण मानते हैं और यह भी कहते हैं कि यह सब होना चाहिए। परंतु यह जोड़ना भी नहीं भूलते कि इस सब का बुरा नतीजा भी आ सकता है। उपरोक्त दोनों अधययनों के आलोक में चौरी-चौरा काण्ड के बाद महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन वापिस लेने की घटना थोड़ा आश्चर्यचकित करती है। परंतु इस तरह की असंगति साउथ अफ्रीका में सत्याग्रह के दौरान भी दो-तीन बार देखी जा सकती है। इन घटनाओं से महात्मा गांधी एक व्यावहारिक सूझ-बूझ वाले सनातनी हिन्दू ज्यादा नजर आते हैं और टाल्सटाय जैसे पश्चिमी तत्व चिंतकों के शिष्य कम नजर आते हैं।

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