गुलाम भारत में संप्रभुता एवं स्वावलंबन के सूत्रो की खोज खण्ड-ग
इसी बात को सोलहवें अधयाय में बढ़ाते हुए गांधीजी कहते हैं कि अगर मैं सजा के डर से चोरी न करूं तो सजा का डर मिट जाने पर चोरी करने की फिर से इच्छा होगी और मैं चोरी करूंगा। यह तो बहुत ही साधारण अनुभव है; इससे इनकार नहीं किया जा सकता। हमने मान लिया है कि डांट-डपटकर लोंगों से काम लिया जा सकता है और इसलिए हम ऐसा करते आये हैं। पाठक के इस प्रश्न के जवाब में कि ''अंग्रेजों ने खुद जो हासिल किया है, वह मार-काट करके ही हासिल किया है'', गांधीजी कहते हैं कि उन्होंने मार-काट से जो हासिल किया है वह बेकार है; अंग्रेजों ने मार काट की और हम भी कर सकते हैं, यह बात तो ठीक है। लेकिन मार-काट जैसी चीज स्वराज का सनातनी आधार नहीं हो सकता। सनातनी दृष्टि से साधान बीज है और साधय हासिल करने की चीज, यानी, पेड़ है। इसलिए जितना संबंधा बीज और पेड़ के बीच है, उतना ही साधान और साधय के बीच। शैतान को भजकर मैं ईश्वर-भजन का फल पाऊं यह कभी हो ही नहीं सकता। इसलिए यह कहना कि हमें तो ईश्वर ही भजना है, साधान भले शैतान हो; बिल्कुल अज्ञान की बात है। जैसी करनी वैसी भरनी की पुरानी कहावत को याद करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से गीता के कर्मवाद को यहाँ प्रस्तुत करते हैं और इटली के स्वतंत्रता अभियान से प्रभावित श्रीअरबिंदो जैसे क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों की विचारधारा के स्वराज प्राप्ति की वैकल्पिक विचारधारा प्रस्तुत करते हैं। यह विचारधारा शारीरिक बल की तुलना में नैतिक बल (आत्मबल) को ज्यादा महत्तवपूर्ण मानती है। इसमें तिकड़म की जगह सत्य को ज्यादा महत्तवपूर्ण माना जाता है। गांधीजी कहते हैं कि अधिाकार का आधार पात्रता एवंर् कत्ताव्य ही हो सकता है। उनकी दृष्टि में स्वतंत्रता का आधार तपस या साधाना ही हो सकता है, गोला बारूद नहीं। गांधीजी कहते हैं कि इसमें कोई शक नहीं कि जिस अरजी के पीछे कोई बल नहीं वह अरजी निकम्मी है। राणाडे कहते थे कि अरजी लोगों को तालीम देने का साधान है। उससे लोगों को अपनी स्थिति का भान कराया जा सकता है और राजकर्ता को चेतावनी दी जा सकती है। गांधीजी फिर कहते हैं कि अरजी के पीछे दो तरह के बल होते हैं। हिंसा का बल एवं सत्याग्रह तथा अहिंसा का नैतिक बल। पहले बल का हथियार गोला-बारूद हो सकता है। इसमें आपने अधिाकार की प्राप्ति के लिए प्रतिद्वंदी की हत्या तक की जाती है या हत्या की धामकी दी जाती है। दूसरे प्रकार के बल को आत्मबल, दयाबल या नैतिक बल कहा जाता है। यह बल अविनाशी है और इस बल का उपयोग करने वाला अपनी तथा विरोधी दोनों की सांसारिक हालत बखूबी समझता है। अत: वह अपने बादशाह से कहेगा कि अगर आप हमारे अधिाकार नहीं देंगे तो हम आपके अर्जदार नहीं रहेंगे। हम अर्जदार होंगे तो आप बादशाह बनें रहेंगे। हम आपके साथ कोई व्यवहार नहीं रखेंगे।'' यह बल जिसमें है उसका हथियार-बल कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गांधीजी हिन्द स्वराज के पाठक से कहते हैं कि बच्चा अगर आग में पैर रखे तो आप बच्चे के साथ क्या करेंगे? मान लें कि बच्चा ऐसी जिद करे कि आपको मार कर वह आग में कूदेगा, तब तो आग में पड़े बिना वह रहेगा ही नहीं। इसका उपाय आपके पास यह है : या तो आग में पड़ने से रोकने के लिये आप उसके प्राण ले लें या उसका आग में पड़ना आपसे देखा नहीं जाता इसलिए आप स्वयं आग में पड़कर अपनी जान दे दें। आप बच्चे के प्राण तो नहीं ही लेंगे। तो फिर लाचारी से आप बच्चे को आग में कूदने देंगे। इस तरह आप बच्चे पर हथियार-बल का उपयोग नहीं करते। बच्चे को आप और किसी तरह रोक सकें तो रोकेंगे; लेकिन हथियार-बल से तो नहीं ही रोकेंगे। बच्चे को रोकने में आप सिर्फ बच्चे का स्वार्थ देखते हैं। जिसके ऊपर आप अंकुश रखना चाहते हैं, उस पर उसके स्वार्थ के लिए ही अंकुश रखेंगे। यह मिसाल अंग्रेजों पर जरा भी लागू नहीं होती। आप अंग्रेजों पर जो हथियार-बल का उपयोग करना चाहते हैं उसमें आप अपना ही यानी प्रजा का स्वार्थ देखते हैं। उसमें दया जरा भी नहीं है। इस प्रकरण में गांधीजी की रणनीतिक व्यावहारिकता एवं सांसारिक युक्ति उन्हें हिन्दुस्तान की सनातनी परंपरा से जोड़ती है या टाल्सटाय की ईसाई परंपरा से इस पर शुरूआती भ्रम हो सकता है लेकिन जिन्हें भी ईसाई परंपरा के विकास की गहरी समझ है वे आसानी से समझ सकते हैं कि उपरोक्त उदाहरण में 'सर्मन ऑन द माउण्ट' वाला भाव नगण्य है और किसी खास परिस्थिति में 'आत्मदीपो भव:' वाला भाव हीं अधिक है। यहाँ अहिंसा का वैसा सार्वभौमिक सिध्दांत नहीं है जैसा ईसाई परंपरा के कैनन (गिरिजाघर द्वारा स्वीकृत या प्रमाणिक मान्यता) में पाया जाता है बल्कि यहाँ ईश्वरीय लीला में छुपे सत्य के प्रति अस्थावान व्यक्तिगत समर्पण का भाव अधिक है।
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