गुलाम भारत में संप्रभुता एवं स्वावलंबन के सूत्रो की खोज खण्ड-ग
हिन्द स्वराज के दसवें अधयाय में गांधीजी हिन्दुस्तान में हिन्दू मुस्लिम संबंधों की दशा और दिशा की समालोचना करते हैं। हिन्दुस्तान की तत्कालीन दशा के बारे में गांधीजी की छठी चिंता यह है कि विदेशी शिक्षा और कुप्रचार के प्रभाव में कुछ लोग मानने लगे हैं कि भारत में हिन्दू-मुसलमान कभी मिलकर नहीं रह सकते। गांधीजी कहते हैं कि मनुष्य इस तरह पैदा किया गया है कि अपने हाथ-पैर से जितना बने उतनी ही आने-जाने वगैरह की कोशिश उसे करनी चाहिए। भगवान ने मनुष्य की हद उसके शरीर की बनावट से ही बांधा दी, लेकिन आधुनिक मनुष्य ने उस बनावट की हद को लांघने का उपाय (तकनीक) ढूंढ निकाला। मनुष्य को अकल इसीलिए दी गई थी कि उसकी मदद से वह भगवान (ईश्वरत्व) को पहचाने। पर मनुष्य ने अकल का उपयोग भगवान को भूलने में किया। वह अपनी कुदरती हद के मुताबिक अपने आसपास रहने वालों की ही सेवा कर सकता है; पर उसने तुरंत अपने मगरूरी में ढूंढ़ निकाला कि उसे तो सारी दुनिया की सेवा अपने तन से करनी चाहिए। यह बोझ मनुष्य उठा ही नहीं सकता। इसके लिए अनेक धर्मों का और कई लोगों का साथ लेना स्वाभाविक है। हिन्दुस्तान में इसीलिए सभी धर्मों और मतों के लिए स्थान है। यहाँ राष्ट्र सभ्यतामूलक अवधारणा है। राष्ट्र या सभ्यता का अर्थ यहाँ तात्तिवक रूप से सदैव विश्व व्यवस्था या वसुधौव कुटुम्बकम के रूप में रहा है। फलस्वरूप नये धर्मों या विदेशी धर्मों एवं धार्मावलंबियों के प्रवेश से यह राष्ट्र कभी आतंकित और चिंतित नहीं होता। यह भाव रूढ़ रहा है कि यह एक सनातन सभ्यता है, सनातन राष्ट्र है। यह अंतत: मिटने वाला नहीं है। जो नये लोग इसमें दाखिल होते हैं, वे इस राष्ट्र की प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे इसकी प्रजा में अंतत: घुलमिल जाते हैं। हिन्दुस्तान ऐसा रहा है और आज भी ऐसा ही है। हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मान कर बस चुके हैं, एक-देशी, एक-मुल्की हैं; वे देशी भाई हैं, और उन्हें एक-दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा। दुनिया के किसी भी हिस्से में एक राष्ट्र का अर्थ एक धर्म नहीं किया गया है; हिन्दुस्तान में तो कभी ऐसा था ही नहीं। हिन्दू लोग मुसलमान बादशाहों के मातहत और मुसलमान लोग हिन्दू राजाओं के मातहत रहते आये हैं। उनमें प्रेम और झगड़ा एक सीमा में रहती रही है परंतु सामुदायिक बैर का स्थायी विचार अंग्रेजों के आने से पहले नहीं था। बहुतेरे हिन्दुओं और मुसलमानों के बाप-दादे एक ही थे। हमारे अंदर एक ही खून है। क्या धर्म बदला इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गये? धर्म तो एक ही जगह पहुँचने के अलग-अलग रास्ते हैं। इस तरह गांधीजी ने रेखांकित किया कि पूजा पध्दति, रीति-रिवाज और उपासना की सांप्रदायिक व्यवस्था के स्तर पर हिन्दू-मुसलमानों में अन्तर अवश्य है परंतु यह अंतर उन्हें दो राष्ट्रों की प्रजा नहीं बना सकती। 1947 में देश के बंटवारे के अवसर पर भी गांधीजी ने नहीं माना कि दो राज्य (राष्ट्र-राज्य) बनने से भारत और पाकिस्तान नामक दो राष्ट्र बन गया। वे हमेशा मानते रहे कि भारत में राष्ट्र की अवधारणा सभ्यतामूलक रही है, एक प्रकार की भू-सांस्कृतिक अवधारणा रही है और समय-समय पर इसमें न सिर्फ एक से अधिाक राज्य होते रहे हैं बल्कि उनके बीच राजनैतिक शत्रुता भी रही है। अत: वे हमेशा मानते रहे कि बंटवारे के बावजूद भारत और पाकिस्तान के हिन्दू-मुसलमान एक ही सभ्यता के अंग रहेंगे। 1971 में पाकिस्तान और बंगला देश अलग-अलग हो गये जबकि दोनों जगह एक ही धर्म (इस्लाम) के मानने वाले लोग थे। उनकी भाषा अलग-अलग थी और अन्य सांसारिक हित भी अलग-अलग थे। उसी तरह, भारत और नेपाल दोनों हिन्दू बहुल देश हैं। राधाकुमुद मुखर्जी, हुँमायु कबीर, आबिद हुसैन, टी. एन. मदन, जे. पी. एस. उबेराय, ऐ. के. सरण, टी. के. उम्मेन, एन. के. बोस, कुमारस्वामी, राधाकमल मुखर्जी, जी. एस. घुर्ये जैसे विद्वानों की रचनाओं में भी गांधीजी की उपरोक्त स्थापनाओं का एक हद तक सत्यापन हुआ है। धर्मपाल जैसे विद्वानों ने भी भारतीय सभ्यता और पश्चिमी सभ्यता के बीच अंतर के बारे में गांधीजी के मत को विस्तारित किया है।
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