Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज

हिन्द स्वराज की प्रासंगिकता

 


महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज

गुलाम भारत में संप्रभुता एवं स्वावलंबन के सूत्रो की खोज

खण्ड-ख
आधुनिक सभ्यता की मीमांसा    
आधुनिक प्रजातंत्र की संसदीय प्रणाली

अपनी कल्पना के स्वराज की चर्चा गांधीजी हिन्द स्वराज के पाँचवें अधयाय में करते हैं। इस अधयाय का शीर्षक ''इंग्लैंड की हालत'' है। गांधीजी कहते हैं कि इंग्लैंड में आज (1909) जो हालत है वह सचमुच दयनीय एवं तरस खाने लायक है। वह यह भी कहते हैं कि इंग्लैंड का पार्लियामेंट (संसद) तो बांझ (अरचनात्मक) और वेश्या (अनैतिक) है।   
इंग्लैंड के संसद ने अब तक अपने आप एक भी अच्छा काम नहीं किया है। अगर उस पर कोई जोर-दबाव डालने वाला न हो तो वह कुछ भी न करे, ऐसी उसकी कुदरती हालत है। और वह इस अर्थ में एक वेश्या के समान है कि जो मंत्रि-मंडल उस पर काबिज रहता है वह उसके पास रहती है। संसद सदस्य दिखावटी और स्वार्थी पाये जाते हैं। सब अपना मतलब साधाने की सोचते हैं कोई लोगों की भलाई के लिए नहीं सोचता। सिर्फ डर के कारण हीं संसद कुछ काम करती है। जो काम आज करती है वह कल उसे रद्द करना पड़ता है। जितना समय और पैसा संसद खर्च करती है अगर उतना समय और पैसा अच्छे लोगों को मिले तो प्रजा का उध्दार हो जाये। ब्रिटिश संसद महज प्रजा का खिलौना है और वह खिलौना प्रजा को भारी खर्च में डालता है। अगर सात सौ बरस के बाद भी ब्रिटिश संसद बच्चा है, तो वह बड़ी कब होगी? प्रधानमंत्री को संसद की थोड़ी ही परवाह रहती है। वह तो अपनी सत्ता के मद में मस्त रहता है। अपना दल कैसे जीते इसी की लगन उसे लगी रहती है। संसद सही काम कैसे करे, इसका वह बहुत कम विचार करता है। उसके पास सिफारिश काम कर सकती है। वह दूसरों से काम निकालने के लिए उपाधिा (या पद) वगैरह की घूस बहुत देते हैं। उनमें शुध्द्र भावना और सच्ची ईमानदारी नहीं होती। अंग्रेज मतदाता (वोटर) की धार्म पुस्तक (बाइबल) अखबार बन गये हैं। वे अखबार पढ़कर अपने विचार बनाते हैं। परंतु अखबार अप्रामाणिक होते हैं, चूंकि वे सामान्यत: एक ही बात को दो शक्लें देते हैं। ऐसे मतदाता के विचार घड़ी-घड़ी में बदलते रहते हैं। ऐसे लोगों की संसद भी ऐसी ही होती है। परंतु गांधीजी की नजर में इसमें अंग्रेजों का कोई खास कसूर नहीं है बल्कि यह उनकी आधुनिक सभ्यता का कसूर है। यह सभ्यता नुकसान-देह है और इससे यूरोप की प्रजा दरिद्र होती जा रही है।

उपरोक्त अधयाय में गांधीजी ने आधुनिक प्रजातंत्र की संसदीय प्रणाली की बहुत सही और कटु आलोचना प्रस्तुत किया है। इस आलोचना का महत्तव समकालीन भारतीय संदर्भ में बहुत बढ़ गया है। हिन्दुस्तान के बिहार राज्य में, गंगा के उत्तारी भाग में बसे वैशाली में दुनिया का पहला गणराज्य पनपा था और गंगा के दक्षिण में समकालीन भारतीय इतिहास का पहला साम्राज्य-- मगधा भी विकसित हुआ था। जिस बिहार में ये दोनों पध्दतियाँ पैदा हुई और विकसित हुई वह बिहार इसी आधुनिक संसदीय प्रणाली के विकास के कारण अपनी दशा, दिशा और तासीर भूल कर बदहाली के कागार पर खड़ा एक नये गांधी का इंतजार कर रहा है।

भारत का लोकतंत्र इंग्लैंड के साँचे में ढ़ाला गया है। इसे बड़े-बड़े कानून जानने वाले लोगों ने बनाया है। लेकिन इतने वर्षों का अनुभव बताता है कि विदेश का बीज इस देश की धारती में उग नहीं पा रहा है। लोकतंत्र के नाम पर जिस तरह की राजनीति यहाँ विकसित हुई वह सबसे पहले स्वयं राजनैतिक दलों को खा गयी। अब प्रशासन और समाज को खाने पर उतारू है।

भगवान बुध्द ने जिस लोकतंत्र को अपने संघ में लागू किया था उसका सूत्र आज के लोकतंत्र से भिन्न था। उसका सूत्र था : मिलो, संवाद करो, और उस समय तक संवाद करते रहो जबतक सम्मति न बन जाय। इस सूत्र में जोर संवाद और सहमति पर था, न कि विवाद और विरोधा पर। हमने भगवान बुध्द की दी हुई दिशा नहीं पकड़ी। क्यों नहीं पकड़ी, इसका अलग इतिहास है। आज की परिस्थिति में यह  बात समझ लेने लायक है कि प्रतिनिधिा चुनने का जो लोकतांत्रिक पध्दति हमने अपनायी है वह हमारी परंपरा, हमारी राष्ट्रीय और जागतिक परिस्थिति तथा हमारी प्रतिभा के विरूध्द है। इस देश का स्थानीय जीवन अब तक अपने भरोसे चला है, राजधानी के भरोसे नहीं। इस परंपरा का लाभ हमें लेना चाहिए। इसलिए पंचायतों को, चाहे वह जैसी भी हों स्थानीय जीवन की सम्पूर्ण जिम्मेदारी देनी चाहिए। कुछ दिनों तक गड़बड़ी रह सकती है परंतु धीरे-धीरे इससे एक नयी ऊर्जा विकसित होगी।

गांधीजी तो चाहते थे कि हर गाँव एक समुदाय की तरह रहे। अपने खेतों में जरूरी कच्चा माल पैदा करे जिनसे जीवन की बुनियादी आवश्यकताएँ पूरी हों। उत्पादक का पेट काटकर बाजार का पेट भरने की कोशिश न की जाय। जो हमारी जरूरत से बच जाए वही बाजार में जाए। क्योंकि अनेक ऐसी चीजें हैं जिनके लिए पैसे की जरूरत होती है। ऊर्जा का स्रोत हमारे मल-मूत्र में है, गाय, भैंस के पेशाब और गोबर में है। जैसा कि सर्वविदित है महात्मा गांधी आधुनिक प्रजातंत्र की संसदीय प्रणाली के स्थान पर ग्राम स्वराज और पारंपरिक पंचायती व्यवस्था तथा शक्ति के वास्तविक विकेन्द्रीकरण के हिमायती थे। वे बहुमत के आधार पर निर्णय करके बहुमत के लाभ की बात की जगह सर्वोदय और अंत्योदय के समर्थक थे। सर्वोदय का शाब्दिक अर्थ सब का उदय या विकास होता है। अंत्योदय का शाब्दिक अर्थ समाज के अन्तिम आदमी का उदय या विकास है। बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय एक पुराना नारा रहा है। बहुसंख्यक लोगों के हित और सुख की बात सबसे पहले संभवत: भगवान बुध्द ने की थी। गांधीजी उससे आगे जाकर सभी के हित और सुख की बात करते हैं। परंतु इस अधयाय में गांधीजी सर्वोदय या अंत्योदय का अपना एजेंडा प्रस्तुत नहीं करके मात्र अंग्रेजी राज के विधान को अपने तर्क से नकारते है।

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