गुलाम भारत में संप्रभुता एवं स्वावलंबन के सूत्रो की खोज खण्ड घ
गांधीजी कहते हैं कि ''अगर दुनिया की कथा लड़ाई से शुरू होती तो आज एक भी आदमी जिंदा नहीं रहता। दुनिया के इतिहास में जो प्रजा लड़ाई का ही भोग (शिकार) बन गई, उसकी ऐसी ही दुर्दशा हुई है। दुनिया में इतने लोग आज भी जिन्दा हैं, यह तथ्य बताता है कि दुनिया का आधार हथियार-बल पर नहीं है, बल्कि सत्य, दया या आत्मबल है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि दुनिया लड़ाई के हंगामों के बावजूद टिकी हुई है। इसलिए संघर्ष बल की बजाय दुनिया का आधार दूसरा ही बल है।'' गांधीजी सत्याग्रह की चर्चा करते हुए कहते हैं कि सत्याग्रह या आत्मबल पर आधारित आंदोलन को अंग्रेजी में ''पैसिव रेजिस्टेंन्स'' कहा जाता है। जिन लोगों ने अपने अधिाकार पाने के लिए खुद दुख सहन किया था, उनके दुख सहने के ढ़ंग के लिए यह शब्द व्यवहार किया गया है। उसका धयेय लड़ाई के धयेय से उलटा है। उदाहरण के लिए, गांधीजी कहते हैं कि ''जब मुझे कोई काम पसन्द न आये और वह काम मैं न करूं तो उसमें मैं सत्याग्रह या आत्मबल का उपयोग करता हूँ। सत्याग्रह में मैं अपना ही बलिदान देता हूँ। सत्याग्रह से लड़ते हुए अगर लड़ाई गलत ठहरी, तो सिर्फ लड़ाई छेड़ने वाला ही दुख भोगता है। यानी अपनी भूल की सजा वह खुद भोगता है। जबकि युध्द या खूनी संघर्ष में निर्दोष को भी सजा भोगना पड़ता है। फलस्वरूप सत्याग्रह युध्द या खूनी संघर्ष की तुलना में नैतिक रूप से बेहतर विकल्प है। अपनी आस्था के अनुसार अपने अधिाकारों के लिए खुद कष्ट भोगना, कष्ट सहन करना चाहिये। यही सत्याग्रह की कुंजी है। उदाहरण के लिए हम कानून को मानने वाली प्रजा हैं, इसका सही अर्थ तो यह है कि हम सत्याग्रही प्रजा हैं। कानून जब पसंद न आये तब हम कानून बनानेवालों का सिर नहीं तोड़ते, बल्कि उन्हें रद्द कराने के लिए खुद उपवास करते हैं - खुद दुख उठाते हैं।'' गांधीजी कहते हैं कि हमें अच्छे या बुरे कानून को मानना चाहिये, ऐसा अर्थ तो आज-कल का है। पहले ऐसा नहीं था। पहले भी अवांछित कानून को लोग तोड़ते थे और वे उसकी सजा भी भोगते थे। गांधीजी जोर देकर कहते हैं कि जो कानून हमें पसन्द न हों वह भी हमें मानना चाहिये, यह आधुनिक शिक्षा है और यह मर्दानगी के खिलाफ है। यह अवधारणा किसी भी पारंपरिक धर्म के खिलाफ है और गुलामी की हद है। जिस आदमी में सच्ची इंसानियत है, जो केवल खुदा से ही डरता है, वह किसी और से नहीं डरेगा। दूसरे के बनाये हुए कानून उसके लिए बंधानकारक नहीं होते। बेचारी अंग्रेजी सरकार भी नहीं कहती कि 'तुम्हें ऐसा करना ही पड़ेगा।' यह केवल इतना कहती है कि 'तुम ऐसा नहीं करोगे तो तुम्हें सजा होगी।' हम अपनी अधाम दशा के कारण मान लेते हैं कि हमें 'ऐसा ही करना चाहिए', यह हमारा फर्ज है, यह हमारा धर्म है। अगर लोग अब भी सीख लें कि जो कानून हमें अन्यायी मालूम हो उसे मानना अनैतिक, अधार्मिक नामर्दगी है, तो हमें किसी प्रकार का भी जुल्म गुलामी के बंधान में बांधा नहीं सकता है। यही स्वराज की कुंजी है। संख्या में ज्यादा लोग जो कहें उसे थोड़े लोगों को मान लेना चाहिये, बहुमत का निर्णय माना ही जाना चाहिए, यह भावना तो करीब-करीब सभी पारंपरिक समाजों के लिए नई बात है। यह एक अधार्मिक एवं अनैतिक बात है, एक वहम है। अन्यायी कानून को मानना चाहिये, यह वहम जब तक दूर नहीं होता तब तक हमारी गुलामी जानेवाली नहीं है। और इस वहम को सिर्फ सत्याग्रह ही दूर कर सकता है। गांधीजी के अनुसार सत्याग्रह सबसे बड़ा बल है। सत्याग्रह के लिए जैसी हिम्मत और बहादुरी चाहिये, वह तोप का बल रखनेवाले के पास हो ही नहीं सकती। सत्याग्रही व्यक्ति की योग्यता के बारे में गांधीजी कहते हैं कि ''शरीर से दुबला व्यक्ति भी सत्याग्रही हो सकता है। शरीर से कमजोर लेकिन आत्मबल से मजबूत कोई भी आदमी सत्याग्रही हो सकता है। मर्द भी सत्याग्रही हो सकता है; औरत भी हो सकती है। सत्याग्रही को अपना लश्कर तैयार करने की जरूरत नहीं रहती। उसे पहलवानों की कुश्ती सीखने की जरूरत नहीं रहती। यदि उसने अपने मन को काबू किया तो वह फिर वनराज (सिंह) की तरह गर्जना कर सकता है; और जो उसके दुश्मन बन बैठे हैं, उनके दिल इस गर्जना से फट जाते हैं। सत्याग्रह ऐसी तलवार है, जिसके दोनों ओर धार है। उसे चाहे जैसे काम में लिया जा सकता है। जो उसे चलाता है और जिस पर वह चलाई जाती है, वे दोनों सुखी होते हैं। वह खून नहीं निकालती, लेकिन उससे भी बड़ा परिणाम ला सकती है।'' गांधीजी कहते हैं कि शरीर को कसे बिना सत्याग्रही होना मुश्किल है। अक्सर जिन शरीरों को गलत लाड़ प्यार देकर या सहला-पुचकार कर कमजोर बना दिया गया है, उनमें रहनेवाला मन भी कमजोर होता है। और जहाँ मन का बल नहीं है वहाँ आत्मबल कैसे हो सकता है? फलस्वरूप, गांधीजी का मानना है कि ''जो व्यक्ति देश के भले के लिए सत्याग्रही होना चाहता है, उसे ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये, स्वेच्छा से गरीबी अपनानी चाहिये, सत्य का पालन तो करना ही चाहिये और हर हालत में अभय बनना चाहिये।'' ब्रह्मचर्य की पारंपरिक अवधारणा आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत आती है और इसमें शरीर, मन, मस्तिष्क के सर्वांगीण विकास के लिए योग, धयान, शिक्षा एवं सदाचार पर जोर दिया जाता है। स्वैच्छिक गरीबी का अर्थ अनावश्यक विलासिता का त्याग और मितव्ययिता की आदत डालने से है।
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