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लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067
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हिन्दी फिल्मों में समकालीन प्रेम कथाएं
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हिन्दी फिल्मों में समकालीन प्रेम कथाएं
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आधुनिकता का जो रूप भारत में लोकप्रिय हुआ है उसे दीपांकर गुप्ता जैसे लोग चाहे जितना 'मिस्टेकेन' (भ्रम पर आधारित भूल) कहें, यह है बड़ी अनोखी चीज। अपने यूरोपीय संदर्भ से कट जाने भर से भारतीय आधुनिकता को भूल या भ्रष्ट रूप कहना ठीक नहीं है। दुनिया की हर संस्कृति ने दूसरी संस्कृतियों से अपनी सुविधा के अनुसार कई तत्व ग्रहण किया है। हर संस्कृति अपनी शर्तों पर ही चीजों या तत्वों को ग्रहण करती है। आधुनिकता में एक प्रकार का फ्रीडम या स्वतंत्रता है। एक प्रकार का लचीलापन है। अत: आधुनिकता का विन्यास सांस्कृतिक रूप से बहुमुखी होता है। इसे भारत में आम आदमी तो समझता है लेकिन विश्वविद्यालय के शिक्षक सामान्यत: नहीं समझते। उनका संदर्भ हमेशा यूरोपीय होता है। हिन्दी सिनेमा में आधुनिक किस्म के प्रेम के समकालीन स्वरूप को देखना दिलचस्प उदाहरण हो सकता है।
काईट्स (अनुराग बसु, राकेश रोशन) आकर जा चुकी है। यह 'माई नेम इज खान' (करण जौहर) की तरह एक साधारण प्रेम कथा है जिस पर 'एक - दूजे के लिए', 'मिलन' और 'देवदास' का प्रभाव है। इनकी हाइप बनाने की कोशिश की गई परन्तु 'काईट्स' एव 'माई नेम इज खान' की पटकथा में गहराई नहीं थी। इनका कैनवास भी बड़ा नहीं था। इसके विपरीत प्रकाश झा की फिल्म 'राजनीति' के कैनवास और पटकथा में तुलनात्मक विस्तार एवं गहराई है। प्रकाश झा मणिरत्नम और राजकुमार संतोषी की तरह सामाजिक यथार्थ के चितेरे हैं। इनकी फिल्मों में आधुनिक प्रेम का भारतीय संदर्भ बहुत स्पष्ट एवं उत्कट होता है। 'राजनीति' फिल्म में भी प्रेम का सूक्ष्म चित्रण है। जैसे मणिरत्नम के गुरू और संतोषी के अजब प्रेम की गजब कहानी में भी था। भारतीय फिल्में की एक विशेषता प्रतिहिंसा की आंच के बीच भी भोलेपन और मासूमियत की सात्विकता और विदग्धता को बचाये रख कर ममत्व एवं रूमानियत के जल से दर्शकों को सराबोर करना रहा है। हर लेखक और हर फिल्मकार अपने हृदय में एक सोता छुपाए होता है। पूरे जीवन वह जो कुछ कहता है और जो वह है, इसी सोते से पुष्पित - पल्लवित होता है।
जहां तक अनुराग बसु की बात है वे मर्डर, गैंगस्टर, लाइफ इन ए मेट्रो और काईट्स बनाकर अपनी एक पहचान बना चुके हैं लेकिन वे 'ए' क्लास के निर्देशक नहीं हैं। उनकी तुलना विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, राकेश ओमप्रकाश मेहरा से ही की जा सकती है। करण जौहर 'ए' क्लास के निर्माता हैं परन्तु निर्देशक के रूप में वे 'बी प्लस' और 'ए माइनस' ग्रेड के बीच की चीज हैं। निर्माता के रूप में वे 'कल हो न हो' (निखिल आड़वानी), 'वेक अप सिड' (अयान मुखर्जी) जैसी फिल्में बना चुके हैं। अब वे 'आय हेट लव स्टोरीज' (मुझे प्रेम कहानियों से नफरत है, निर्देशक पुनीत मल्होत्रा) लेकर आ रहे हैं। इनकी तुलना इम्तियाज अली (सोचा न था, जब वी मेट, लव आजकल) अब्बास टायर वाला (जाने तू या जाने ना), जोया अख्तर (लक बाई चांस) और अयान मुखर्जी (वेक अप सिड़) की फिल्मों से की जा सकती है। इन फिल्मों में आज की युवा पीढ़ी के प्यार के बारे में बदलते हुए नजरीए को प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है। इस पीढ़ी के युवा अनौपचारिक हैं और मस्ती की खोज में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को पुनर्परिभाषित करते हैं। उनकी सामाजिक परिस्थिति बदल गई है - समाज में खुलापन बढ़ा है। टेक्नोलॉजी का प्रभाव बढ़ा है, महत्वाकांक्षा और प्रतिस्पर्धा बढ़ी है, असंतोष या तृप्ति की कमी भी बढ़ी है, अनुभूति की तीव्रता घटी है, समझौतावादी प्रवृति और भावनाशून्यता बढ़ी है। अब प्रेम में कोई फना नहीं होता। हर हाल में लोग जी लेते हैं। प्रथम नजर का प्यार अब विरल हो गया है। लोग साथ रहते रहते धीरे - धीरे एक - दूसरे को प्यार करने लगते हैं। यह प्यार लैला - मजनूं, सीरी - फरहाद, रोमियो - जूलियट या चन्द्रमुखी - देवदास वाला प्यार नहीं होता। यह देव डी (अनुराग कश्यप) या वेक अप सिड़ (अयान मुखर्जी) वाला प्यार हो गया है। अब प्रेम में लोग सामान्यत: पागल नहीं होते, न विरह में तिल - तिल कर मरते हैं। काईट्स आज के युवा की प्रतिनिधि प्रेम कहानी नहीं है। बावलापन को दुनियादारी ने छीन लिया है। प्रेम अब भी जीवन के लिए आवश्यक तत्व है लेकिन आज के युवा प्रेम की पहचान में दिशाहीन और अनुभूतिशून्य होते जा रहे हैं। करण जौहर की पहली फिल्म 'कुछ कुछ होता है' (1998) इस पीढ़ी के युवा प्रेम की शुरूआती अभिव्यक्ति थी। 'आय हेट लव स्टोरीज'(2010) 'कुछ कुछ होता है' से प्रेरित फिल्म है। इसमें इमरान खान और सोनम कपूर को एक नया मौका मिला है। इमरान खान और सोनम कपूर की यह फिल्म इनके डगमगाते कैरियर को नई दिशा दे सकती है।
जहां तक प्रेम का सवाल है, एक स्तर पर हिन्दी फिॅल्मों में पुराने युग की वापसी हो रही है। मेहबूब खान के अंदाज (1949) की तुलना लव आजकल (2009, इम्तियाज अली) से की जा सकती है। रमेश सिप्पी के अंदाज (1971) की तुलना आदित्य चोपड़ा निर्मित प्यार इंपौसिवुल (2010) से की जा सकती है। स्टंट और हिंसा का थ्रिल अमिताभ बच्चन के युग की तुलना में हिन्दी सिनेमा में अब हासिए पर जा चुका है। अब रोमांस एवं प्यार की नए रूप में वापसी हुई है। गजनी और काईट्स मूलत: प्रेम में पगलाए नायक की हिंसा है, यंग्री यंग मैन का गुस्सा नहीं है, न खलनायकों का स्टंट है। धूम, धूम -2 अब पुरानी बातें हो चुकी हैं। अब या तो कॉमेडी फिल्में चलती हैं या रोमांस की बिकता है। रोमांस का स्वरूप बदला है। परन्तु रोमांस की नए रूप में वापसी हुई है। प्रेम और वासना के बीच की दीवार टूट गई है। अब प्रेम या तो सुविधाजनक साहचर्य का नाम है या वासना की हबस का नाम है। गजनी और काईट्स में प्रेम का एक रूप है। मर्डर, लाइफ इन ए मेट्रो, इश्किया, लक बाई चांस, फैशन आदि में प्रेम का एक दूसरा रूप है। जिस्म, धड़कन, ऐतराज देव डी में प्रेम का एक तीसरा रूप है। 'गैंगस्टर' में प्रेम का चौथा रूप है। लेकिन जो 'कुछ कुछ होता है', 'जेब वी मेट', 'लव आजकल' और 'जाने तू या जाने ना' वाला प्रेम है वह युवा पीढ़ी के समकालीन प्रेम का ज्यादा सही प्रतिनिधित्व करता है। इसी श्रेणी में 'हम - तुम', 'सलाम - नमस्ते', 'दिल चाहता है', 'कल हो ना हो' और 'क्या कहना' की भी चर्चा की जा सकती है। यह प्रेम के समकालीन विविधता का नार्मल रूप प्रस्तुत करने वाली फिल्में हैं। इस नार्मल प्रेम कथा के द्वारा भारत में आधुनिकता के बहुआयामी विमर्श की प्रस्तुति हुई है। भारत में प्रेम का एक रूप दोस्ती भी है। 1975 में बनी फिल्म 'शोले' में निर्देशक रमेश सिप्पी ने वीरू और जय की बेमिसाल दोस्ती को केन्द्र में रखकर गब्बर और ठाकुर के संघर्ष की कथा कही थी। इसमें धर्मेन्द्र (वीरू) और अमिताभ (जय) की हेमा और जया भाटुडी से प्रेम का तड़का भी है लेकिन 'शोले' का क्लाइमैक्स अमिताभा बच्चन (जय) की मृत्यु के बाद धर्मेन्द्र (वीरू) का यह अहसास है कि जय पूरे जीवन जो सिक्का उछालता था वह दोनों तरफ से एक जैसा था। उसे जय का त्याग (बलिदान) की अनुभूति होती है और वह दोस्ती की रौ में सबको मार गिराता है। 'काईट्स' का क्लाइमेक्स रितिक रोशन की यह अनुभूति है कि बारबरा मोरी रितिक को बचाने के लिए अपनी जान दे देती है। इस गहन अनुभूति के बाद वह सबको मार कर खुद अपनी जान दे देता है। लेकिन 'काईट्स' विदेशी दर्शकों को ध्यान में रखकर बनायी गई थी। इस फिल्म के आधे संवाद स्पेनिश और अंग्रेजी में हैं। अत: फिल्म भारत में पिट गई। बाहर भी नहीं चली। 'माई नेम इज खान' भी मूलत: विदेशी दर्शकों को ध्यान में रखकर बनायी गई थी। लेकिन बाल ठाकरे और शिव सैनिकों ने विवाद खड़ा करके फिल्म को देश में भी चलवा दिया। परन्तु गुणवत्ता की दृष्टि से 'काईट्स' और 'माय नेम इज खान' दोनों साधारण फिल्में हैं। 'राजनीति' महाभारत से प्रेरित कथा फिल्म है। श्याम बेनेगल की 'कलयुग' भी महाभारत से प्रेरित फिल्म थी। लेकिन 'राजनीति' के केन्द्र में कैटरीना कैफ और सरोह थॉम्पुसन का चरित्र है। जबकि 'कलयुग' के केन्द्र में शशि कपूर का चरित्र था। 'ओमकारा' में कमरबंद प्रकरण तक फिल्म में तेज प्रवाह है। उसके बाद फिल्म कमजोर पड़ जाती है।
विशाल भारद्वाज की सभी फिल्मों में अंत कमजोर होती है। 'मकबूल' आम दर्शकों के लिए नहीं बनायी गई थी। यह विशाल भारद्वाज की श्रेष्ट रचना है। परन्तु अंत इसका भी लचर है। 'कमीने' सफल फिल्म होने के बावजूद सार्थक फिल्म नहीं है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की 'अक्स' बकवास थी। 'रंग दे बसंती' का अंत लचर था, 'दिल्ली -6' में बंदर प्रकरण अनावश्यक था। संजय लीला भंसाली की 'सांवरिया' एक दिशाहीन, दृष्टिहीन फिल्म थी। 'सांवरिया' और 'दिल्ली - 6' की असफलता से सोनम कपूर उबर नहीं पायी है। 'आय हेट लव स्टोरिज' से उसका कैरियर संवर सकता है। इमरान खान ने 'जाने तू या जाने ना' में सफलता पायी थी लेकिन इसके बाद उसने 'किडनैप' जैसी बकवास फिल्म करके अपना कैरियर बिगाड़ा। 'आय हेट लव स्टोरिज' उसके लिए भी महत्वपूर्ण फिल्म है। प्रेम वही कर सकता है जिसकी जिन्दगी में एक निश्चित दिशा और दृष्टि हो। प्रेम मात्र चाहत या लगाव भर नहीं है। यह अपने प्रेमी और प्रेमिका के प्रति प्रतिबध्दता भी है। 'राजनीति' फिल्म में अमेरिका में बसी आयरिश लड़की साराह थॉम्पसन सूक्ष्म संकेतों को पकड़कर भारतीय राजनीति में व्याप्त हिंसा और अनैतिक आचरण को सबसे पहले समझ लेती है। वह अपने प्रेमी रणबीर कपूर को कहती है कि अमेरिका में वह जितना संवेदनशील और प्रेमल हृदय वाला था, अपने राजनीतिक परिवार में उतना ही निर्मम और हिंसक हो गया है। वह यह भी कहती है कि वह अपने कोख में पल रहे बच्चे को इस हिंसक वातावरण में जन्म नहीं देना चहती। भारत में राजनीति, पूंजीवाद और माफिया के गठबंधन के कारण भारतीय प्रजातंत्र का स्वरूप नितांत भारतीय शैली में विकसित हुआ है जिसमें परिवारवाद, हिंसा, कुरीतियां एवं सामंतवाद का मिला-जुला असर है। प्रकाश झा की फिल्म 'राजनीति' भारतीय महाकाव्य 'महाभारत' एवं पूंजीवादी महागाथा 'गॉडफादर' का अजीब मिश्रण है। इस मिश्रण से जो कथा तैयार हुई है उसमें पुरूष पात्रों की सशक्त उपस्थिति के बावजूद भावनात्मक प्रवाह के केन्द्र में कैटरीना कैफ और साराह थॉम्पसन का चरित्र है। कई मामलों में यह फिल्म रमेश सिप्पी के 'शोले' की तरह है। 'शोले' को अमजद खान के अभिनय के लिए याद किया जाता है। 'राजनीति' को अजय देवगण के अभिनय के लिए याद किया जाएगा। नाना पाटेकर, मनोज वाजपेयी, अर्जुन रामपाल और रणबीर कपूर ने भी अच्छा अभिनय किया है। 'राजनीति' फिल्म में कहानी, प्लौट एवं पटकथा में वापसी हुई है। '3इडियट्स' फिल्म में कहानी और पटकथा में कमियां थीं। 'इश्किया' की कहानी काल्पनिक एवं अविश्वसनीय थी। 'माय नेम इज खान' एक मेलोड्रामा थी जिसकी कहानी और पटकथा में सपाटपन था। हर प्रेम कहानी में नाटकीय मोड़ होते हैं। फिल्म 'राजनीति' में रणबीर कपूर की जिन्दगी में दो औरते हैं कैटरीना कैफ और साराह थॉम्पसन। कैटरीना कैफ में द्रौपदी की छाया है। साराह थॉम्पसन में सुभद्रा की छाया है। रणबीर कपूर अर्जून की छाया है। अर्जून रामपाल युधिष्ठिर की छाया है या भीम का यह स्पष्ट नहीं है। नाना पाटेकर कृष्ण की भूमिका निभाता है। मनोज वाजपेयी दुर्योंधन की छाया है। अजय देवगण कर्ण है। 'राजनीति' की पटकथा में गॉडफादर के प्लॉट को महाभारत की कहानी में फिट करने की कोशिश की गई है।
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