हिन्दू पूजा का रहस्य
हिन्दू पूजा एक लयबध्द साधना है। यह जीवन-संगीत का उत्सव है। श्रमण परम्परा के विपरीत वैदिक परम्परा क्रमबध्द मुक्ति पर जोर देता है। यह श्रृंखलाबध्द प्रवाही दृष्टि है। उपासना में गुरू के समीप बैठकर रहस्य में प्रवेश किया जाता है। अर्चा आकार की होती है। पूजा प्राणाविष्ट आकार की होती है। हिन्दू उपासना क्रमिक साधना है। यह धैर्यपूर्वक लंबे समय तक की जाती है। गुरू हमेशा कहते रहते हैं आत्मदीप बनो, अपने उध्दारकर्त्ता स्वयं बनो। हिन्दू मंदिर बाहर की बहुरंगी विविधता और गर्भगृह की निविड़ शांति और सधन एकरसता के द्वारा उस परम तत्व की दुहरी भाववत्ता का ही विग्रह है। हिन्दू मंदिर देवता का गृह-मात्र नहीं, स्वयं देवता है, चर-अचर सृष्टि की एक कलात्मक रचना है। हिन्दू उपासना का प्राणभूत तत्व आत्मशुध्दि द्वारा विश्वात्मा की व्यापकता का साक्षात्कार है। यज्ञ और योग के संयोग से हमारी उपासना- पध्दति विकसित हुई। कायशुध्दि, चित्तशुध्दि और वाक्शुध्दि उपासना के लिए आवश्यक है। यज्ञ सृष्टि के साथ तादात्म्य स्थापित करने का बाह्य प्रयास है। उपासना सृष्टि के साथ तादात्म्य स्थापित करने का आन्तरिक प्रयास है। यज्ञ व्यक्त और अव्यक्त का संयोजन है। उपासना भी व्यक्त आत्मा और अव्यक्त परमात्मा का संयोजन है। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से मास का आरंभ होता है इसीलिए पूर्णिमा का तिथि अंक 15 है। मास का अंत अमावस्या को होता है इसीलिए अमावस्या का तिथि अंक 30 है। मासान्त का खाली होना या शुन्य होना, नये मास के भरने की प्रक्रिया का प्रारंभ है। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा की कला को षोड़शी कला कहा जाता है। यह अस्ति (सत्ता, सत्), भाति (ज्ञान, चिम्) और प्रियं (सुखकर लगाना, आनंद) का नवसर्जन है। शैव सम्प्रदाय में यही कला शिव के मस्तक पर उनके ज्ञान चक्षु के ऊपर विराजती है। वैष्णव सम्प्रदाय में श्रीकृष्ण को षोडशकलाओं से पूर्ण अवतार इसी आधार पर कहा जाता है। सूर्य अमावस्या को चन्द्रमा को आत्मसात् कर लेते हैं। अमावस्था को सूर्य और चन्द्र का एकीकरण हो जाता है। यह दो प्रेमियों का एकीकरण है- अग्नि और सोम का, द्यौ: और पृथ्वी का, बाड्. और मन का, व्यक्त और अव्यक्त का। अमावस्था को सोम अगिनमय हो जाता है और अग्नि सोममय हो जाता है। इसीलिए हिन्दू धर्म में प्रति अमावस्या और पूर्णिमा को दर्श पौर्णमास इष्टि का विधान रहा है। इसके अलावे हिन्दू धर्म में पंचमहायज्ञ की व्यवस्था है। ये क्रमश: ब्रहमयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ और मनुष्ययज्ञ कहलाते हैं। पढ़ना- पढ़ाना ब्रहमयज्ञ या ऋषियज्ञ है। इसके अन्तगर्त स्वाध्याय है, मन्त्रों और शास्त्रों का पारायण् है, एकाग्र भाव से मन्त्रों के अर्थ का मनन और निदिध्यासन है। पितरों को तर्पण देना पितृयज्ञ है। पितृयज्ञ तात्पर्य है कि अपने दिन- प्रतिदिन के जीवन के अस्वाद में पितरों को संयुक्त करना और यह भावना करना कि जो भी हमें प्राप्त है, उसमें उनका योगदान है। पिता के तरफ से पांच या सात और माता के पक्ष से तीन या पांच पीढ़ियों के पितरों को तर्पण देने का विधान है। देवताओं के निमित्त प्रात: और सायं दी गयी आहुतियों को देवयज्ञ कहते हैं। प्रत्येक आहुति के अन्त में स्वाहा और इंद देवाय न मम, कहकर 'अब यह मेरा नहीं' का भाव, ममत्व के त्याग का भाव भावित करना देवयज्ञ का लक्ष्य है। भूत यज्ञ को बलिवैश्वदैव यज्ञ भी कहते हैं। अन्न- भोजन के पूर्व अन्न का कुछ भाग समस्त देवताओं और समस्त प्राणियों को अर्पित करना भूत यज्ञ है। इससे अपने स्वयं की अन्न की तृप्ति समस्त प्राणी लोक की तृप्ति बनती है। मनुष्य यज्ञ को नृयज्ञ भी कहते हैं। इसे अतिथि-यज्ञ भी कहते हैं। जो भी मनुष्य अतिथि के रूप में दरवाजे पर आ जाये, वह देवता के समान पूज्य है। उसे खिलाये बिना स्वयं खाना पाप है। वह अतिथि वैश्वानर का रूप है उसे खिलाकर खाना मनुष्य यज्ञ है। ऋतुओं के मोड़ के साथ यज्ञ को जोड़ने का अर्थ था यज्ञ को ऋत के रूप में देखना। नित्य किया जाने वाला अग्निहोत्र नित्य यज्ञ और ऋतु चक्र के साथ या विशेष उद्येश्य या प्रयोजन से किया जाने वाला यज्ञ नैमित्तिक यज्ञ कहा जाता है। हिन्दू यज्ञ का उद्येश्य है यह अनुभव करना कि मेरे जीवन का प्रतिदिन एक आहुति है। यज्ञ के प्रतीकात्मक अनुष्ठान का चरम उत्कर्ष जप- यज्ञ में हुआ। अग्नि चयन- विद्या का जब विकास हुआ तो उसमें प्रतीक रूप में पुष्कर पर्ण पर हिरण्मय पुरूष के रूप में प्रजापति की स्थपना हुई और ईंटें शंक्वाकार स्तूप के रूप में चारों ओर लगायी गयी।
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