Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

हिन्दुत्व का अर्थ

हिन्दुत्व का अर्थ

 

 हिन्दुत्व की अवधारणा में दयानंद, विवेकानंद ,तिलक, श्री अरविंद और सावरकर के बाद एक भी नया शब्द किसी ने नहीं जोड़ा है। संघ, जनसंघ और भाजपा आज तक उधार की कमाई पर ही गुजारा कर रहे हैं। यह कितना बड़ा चमत्कार है कि उधार की विचारधारा , उधार के नेता और उधार के संगठन के दम पर भाजपा सारे देश में फैल गई और उसने अनेक राज्यों व केन्द्र में भी अपनी सरकार बना ली। इसका मुख्य श्रेय भाजपा के कार्यकर्ताओं को है। वैचारिक शून्यता को विचारधारा कहकर कब तक गाड़ी चलाई जाएगी ? उदार हिन्दुत्व, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, एकात्म मानववाद, मुस्लिम अविद्वेष, पंथ निरपेक्षता आदि कोरे कामचलाऊ शब्द हैं जिनका अर्थ बीसवीं सदीं के सामाजिक संदर्भों पर निर्भर था। इक्कीसवीं सदी के आधुनिक भारत को परिभाषित करने में ये शब्द समर्थ नहीं हैं। किसी सफल राजनीतिक दल के पीछे कोई लौह आबध्द विचारधारा हो, यह आवश्यक नहीं है। खासकर लोकतांत्रिक व्यवस्था में। गुलाम भारत और विभाजन के तरफ बढ़ते भारत में तो कई विचारधाराएं जरूरी थीं, लेकिन  अब समय और परिस्थिति बदल चुका है। अब युगानुकुल विचारधारा चाहिए। इसमें गांधी और कुमारस्वामी को शामिल करना होगा।
समकालीन भाजपा की असली समस्या विचारधारा नहीं बल्कि उसके वेतनभोगी नौकरों एवं दलालों  का सलाहकार बन जाना तथा सांगठनिक और राजनीतिक नियुक्तियों में पारदर्शिता और सर्वसम्मति का अभाव है। भाजपा में नया सांगठनिक एवं चुनावी राजनीतिक ढ़ांचा खड़ा किए बिना काम नहीं चलेगा। आडवानी के रहनुमाई में भाजपा पिछले 20 साल से देश को यह नहीं समझा पाई कि वह किस तरह का हिन्दुत्व चाहती है। पार्टी 11 दिसंबर , 1995 के सुप्रीम कोर्ट की हिन्दुत्व की व्याख्या में ही विश्वास रखती है। मोहन भागवत भाजपा को लोकतांत्रिक ढ़ंग से खड़ा करने के पक्ष में हैं। लेकिन केवल लोकतांत्रिक होने से काम नहीं चलेगा। संघ को हिन्दुत्व का युगानुकुल परन्तु सनातनी अर्थ समझना होगा। उसे अपनी आस्था एवं विश्वास को भारतीय परम्परा के ऐतिहासिक गहराईयों को स्वीकारना पड़ेगा। उसे 1925, 1947, 1992,2002 की धटनाओं का अतिक्रमण करके सनातन हिन्दु धर्म के स्वरूप को समझना - समझाना होगा। वर्ना भारतीय समाज के केन्द्र में संघ और भारतीय राजनीति के केन्द्र में भाजपा का आना सपना ही रहेगा। अब 1998-1999 वाली स्थिति न देश में है और न दुनिया में। अब परिस्थिति में गुणात्मक परिवर्तन हो चुका है। परन्तु हिन्दुत्व का महत्व लगातार बढ़ता  जा रहा है।
हिन्दू धर्म सृष्टि के साथ तादात्म्य पर बल देने वाला धर्म है। उसके समस्त अनुष्ठान इस तादात्म्य के लिए साधन हैं। यज्ञ और उपासना उसके बाह्य और अभ्यांतर पक्ष हैं। यज्ञ में ही समाज की संहत इकाई के दर्शन होते थे। इस यज्ञ का विकास ब्रह्म के साक्षात्कार में हुआ। यज्ञ ब्रह्म का प्रतीकात्मक रूप है। समूची सृष्टि की भावना यज्ञ के रूप में हुई। यज्ञ जैसे ममत्व का त्याग है, वैसे ही सृष्टि भी स्रष्टा के ममत्व का त्याग है। पूरा चराचर जगत यज्ञ है। संवत्सर भी यज्ञ है। समस्त प्रकार का सर्जनात्मक व्यापार यज्ञ है। यज्ञ केवल बाह्य अनुष्ठान नहीं है। इसमें मंत्रों का प्रयोग होता है। मंत्र मनन के साधन हैं। मंत्र के द्वारा जो उपस्थिति भावित होता है, वही उपस्थिति यज्ञ के लिए वास्तविक उपस्थिति है। यज्ञ व्यक्त और अव्यक्त यानि अग्नि और सोम का संयोजन है। यह प्रकाश और अप्रकाश का, आत्मा और अनात्मा का, देव और मनुष्य का संयोजक संकल्प भी है। यज्ञ में यजमान स्वयं अपने को अर्पित करता है। विभिन्न प्रतीकात्मक अनुष्ठानों के द्वारा यह अर्पण सम्पन्न होता है। हिन्दु समाज में व्रत, पर्व एवं तीर्थ का बहुत महत्व है। पर्व एवं व्रत प्रवाही काल का साक्षात्कार है। तीर्थ प्रवहवान् देश का साक्षात्कार है। हिन्दुओं में होली सबसे महत्वपूर्ण पर्व है।
होली का पर्व प्राचीनकाल के तीन दिनों के मदनोत्सव का परिवर्धित रूप है। यह रंग का त्योहार है। गीतों का त्योहार है। यह ऋतुराज बंसत के आगमन में उनके अनुकूल अपने को ढ़ालने का त्योहार है। नववर्ष के आरंभ के पूर्व अनेक देशों में एक प्रकार का उन्माद भाव , उन्मुक्त भाव छा जाता है। हिन्दुस्तान का बंसत काफी लंबा होता है। हर पेड़ का बंसत अलग होता है। पर सबसे पहले आम ही बंसत के आगमन का संकेत अपनी मंजरी की गंध से और उस गंध से आकृष्ट कोकिल की कूक से देता है। लगभग पूरा फाल्गुन उल्लास का महीना होता है।

होली वस्तुत: वर्ष या संवत्सर का दाह है, उसकी चिता की भस्मी रमाकर नये वर्ष के अभिनन्दन की तैयारी है। इसमें समस्त ऐन्द्रिय भोग का रेचन है। होली में सामाजिक मंगल को अपने में भरने का प्रयास है। 

प्रासंगिक बनने और राजनैतिक सफलता पाने के लिए संघ परिवार को भी हिंदुत्व की होली खेलने की आदत डालनी चाहिए। तभी भाजपा नए भारत का अभिनंदन कर पायेगा। तभी नया भारत भाजपा को अपनायेगा।
हिन्दू जीवन - दर्शन की तीन मूलभूत स्थापनाएं हैं - 1. पुनर्जन्म, 2. कर्मवाद तथा 3. ऋणों की अवधारणा।
1. पहली स्थापना जीवन की निरन्तरता और समग्रता के बारे में है। जन्मान्तरवाद और पिण्ड - ब्रहमाण्ड के अद्वैत इस स्थापना के ही विकास क्रम में आते हैं। जीवन की निरन्तरता का अर्थ केवल स्थूल शरीर या वंशानुक्रम के रूप में संक्रान्त संस्कार तक ही सीमित नहीं है, वह और सूक्ष्मतर शरीर की अविच्छिन्नता की अवधारणा है। पुनर्जन्म का सिध्दांत .भारतीय चिन्तन के प्रारंभ में उतना विकसित नहीं था। इसका विकास सांख्य - योग की दर्शन प्रणाली के विकास के बाद हुआ।
वैदिक संस्कृति के निर्माताओं की दो धाराएं रही हैं। ये निर्माता किसी एक रक्त या प्रजाति के नहीं हैं। पहली धारा अत्यन्त सरल यज्ञ-पध्दति के द्वारा मनुष्य के भीतर देवत्व को उद्बोधित करके व्यक्ति के रूप में मनुष्य को शक्ति देती है और इस जगाने के अनुष्ठान की समवेत संरचना के द्वारा सामाजिक अस्मिता की संस्थापना करती है। पहली धारा ने ही देवता के उद्बोधक मन्त्र को यज्ञ का मुख्य आधार बनाकर मन्त्र और यज्ञ, दोनों के चिन्तन से संग्रथित बौध्दिक परम्परा का विकास किया ।
दूसरी धारा अधिक ओजस्विनी रही है और वह बाहरी अनुष्ठान की अपेक्षा आंतरिक अनुशासन के द्वारा मनुष्य के शक्ति-संचय का रहस्य उद्धाटित करती है। इस धारा के साथ स्वाभाविक रूप से इसका एक तांत्रिक पक्ष भी रहा है जो पुष्टि - कर्म के साथ-साथ शान्ति-कर्म के लिए भी प्रेरणा देती रही है। अथर्ववेद संहिता पर इसकी गहरी छाप है। सांख्य और योग का चिन्तन निश्चय ही इसी दूसरी धारा से आया जो समूहों में आने के कारण व्रात्य कहलाये।
जहाँ पहली विचारधारा की बाहृय दृष्टि, बाहृय रूपसम्भार को अर्थ देती है, अपने भीतर के अन्त: स्फूर्त शब्द को बाहर फैले हुए प्रकाश से जोड़कर मनुष्य को पूरे विश्व के साथ समताल बनाती है, वहाँ दूसरी धारा आन्तरिक अनुशासन के द्वारा अपने भीतर उसी मन्त्र की शक्ति के अन्तर्वर्तित रूप के द्वारा समस्त ब्रहमाण्ड को पिण्ड से अवस्थापित करके मनुष्य के नश्वर शरीर को सार्थकता देती है। पहली धारा का योगदान है, जीवन की निरन्तरता।
हिन्दू जीवन दर्शन विशेष रूप से किसी सीधी राह की बात नहीं सोचता, वह जीवन की जटिलताओं को अच्छी तरह ध्यान में रखते हुए ही लम्बी और घुमावदार राह की परिकल्पना करता है। हिन्दू धर्म में गुरू की कल्पना परित्राता के रूप में नहीं है, नेत्र - उन्मीलक के रूप में है, वह राह चलना नहीं सिखाता, राह पहचानना सिखाता है, चलना तो आदमी को स्वयं होता है। रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गांधी और आनन्द कुमारस्वामी इसी किस्म के हिन्दू गुरू हैं जिनकी सिखावन आज भी प्रासंगिक है।
हिन्दू जीवन - दर्शन में बाहृय आचार और आन्तरिक चित्तशुध्दि में  अविभाज्य संबंध है। यह उसी प्रकार का संबंध है जिस प्रकार बाह्य विश्व और मनुष्य के भीतर के विश्व में संबंध है। हिन्दू जीवन-दर्शन शीघ्र फल की कामना नहीं करता। अभ्यास और नियमित अभ्यास से मनुष्य के सूक्ष्म शरीर पर पड़ने वाले संस्कार हिन्दू जीवन- दर्शन बहुत महत्व रखते हैं। भक्तिमार्ग में सेवा और परहित की बात आवश्यक बतायी गयी है। जब तक भक्त सामान्य से सामान्य प्राणी में, तुच्छ से तुच्छ वस्तु में ईश्वर को नहीं देख सकता, जब तक इन सब की आवश्यकता को ईश्वरीय आवश्यकता नहीं समझ सकता, तब तक भक्त का सर्मपण पूरा नहीं होता और तब तक उसकी भक्ति की नींव नहीं पड़ती। इस प्रकार भक्ति भी एकाएक नहीं उद्भूत होती, वह भी अभ्यास से ही आती है।

यदि हिन्दू लोग पेड़ में, पौधे में, नदी में, पत्थर में, हवा में, बादल में, प्राणवत्ता देखते हैं और अपने काव्य, अपनी कला और अपने शिल्प में समस्त प्राणवान् वस्तुओं में एक लयबध्द स्पन्दन देखने की कोशिश करते हैं, और भूमिकाओं के विनिमय की बात सोचते हैं तो पत्थर की मूर्ति में  प्राण आ जाता है और प्राणवान् आदमी पत्थर हो जाता है, प्रकृति सहचरी बनती है और सहचरी प्रकृति में छा जाती है। जीवन की निरन्तरता केवल काल में ही नहीं, देश में भी है।

2. हिन्दू जीवन-दर्शन कर्म का त्रिविध विभाजन करता है-प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण। प्रारब्ध का भोग करना पड़ता है, संचित और क्रियमाण का भोग नियत रूप में नहीं करना पड़ता। आदमी चाहे तो अपने कठोर संकल्प के द्वारा ऐसा अभ्यास कर सकता है कि संचित और क्रियमाण कर्म ही प्रारब्ध का भोग कराते हुए भी जीवन क्रम को संचित की अपेक्षा से मुक्त कर लेता है और इसलिए वह पूर्वनियत फल की धारा को मोड़ भी देता है। इस अर्थ में वह प्रारब्ध से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। क्रियमाण कर्म यदि ठीक तरह अनुवर्तित किया गया तो वह न केवल प्रारब्ध को भोगने के लिए भीतर से शक्ति और विश्वास देता है, बल्कि प्रारब्ध के भोग की अवधि को भी इस माने में कम कर सकता है कि कालावधि का अनुभव ही कम योग पूर्वक क्रियमाण कर्म के द्वारा संकुचित या विस्तृत किया जा सकता है। हिन्दू जीवन- दर्शन काल की किसी निरपेक्ष इकाई को नहीं स्वीकार करता।   प्रत्येक व्यक्ति का स्वकर्म और स्वधर्म उसकी अपनी निजी क्षमता और परिस्थिति से निरूपित होता है। उसी कर्म को वह जब इस प्रकार करता है कि अपने लिए नहीं, बल्कि सर्वात्मा के लिए है तो वह सिध्दि प्राप्त कर लेता है। कोई भी कर्म अपने आप में छोटा-बड़ा नहीं, उसके अनुष्ठान का संकल्प और उस अनुष्ठान के पीछे निहित भावना से ही वह छोटा या बड़ा होता है।

3. ऋण मुक्ति की व्यवस्था हिन्दू धर्म को विशिष्टता प्रदान करती है। यह व्यवस्था वर्णों और आश्रमों के बीच में एक कड़ी का काम करती है। हिन्दू धर्म में चार ऋणों की परिकल्पना है
क. ऋषि ऋण
ख. पितृ ऋण
ग. देव ऋण
घ. भूत ऋण
ऋषि ऋण ब्रहमचर्य आश्रम और ब्राहमण के धर्म - स्वाध्याय से उतरता है। पितृ ऋण गृहस्थ आश्रम और क्षत्रिय के सर्वपालक कार्य से उतरता है। देवऋण बानप्रस्थ आश्रम और विनियम - प्रधान वैश्य के कार्य से उतरता है। देवता की उपासना में एक - दूसरे को उपकृत करने की भावना रहती है। यज्ञ और उपासना के द्वारा मनुष्य देवता को भावित करता है उसी के द्वारा देवता भी मनुष्य को भावित करते हैं।
चौथे वर्ण, चौथे आश्रम और चौथे ऋण की परिकल्पना एक उत्तरवर्ती विकास है। तीन को अतिक्रमण करने वाले वर्ण, आश्रम और ऋण की अवधारणा वैदिक यज्ञ - संस्था के पूर्ण विकास के अनन्तर हुई। वर्णों में शूद्र को स्थान, आश्रमों में संन्यास को स्थान और ऋणों में भूतऋण या मनुष्य ऋण को स्थान देना एक सर्वग्राही व्यापक और आध्यात्मिक चिन्तन के उत्कर्ष के परिणामस्वरूप हुआ। भूतऋण या मनुष्य ऋण केवल अपने पिता का ऋण नही, केवल अपने देवता का ऋण नहीं, केवल अपनी ज्ञान - परम्परा का ऋण नहीं, बल्कि समस्त मनुष्य जाति और समस्त प्राणियों का ऋण है। उससे निस्तार पाने के लिए आदमी को निर्वर्ण हो जाना पड़ता है तथा उसे अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विलय कर देना पड़ता है- वह एक प्रकार से शूद्र हो जाता है और उसका जीवन केवल दूसरों के लिए ही शेष रह जाता है तभी वह परब्रहम के साथ जुड़ जाता है। इस प्रकार सनातन धर्म में सारा जीवन ऋणों से निस्तार पाने का प्रयत्न है और इसका अन्तिम भाव सेवाधर्म के द्वारा मनुष्य ऋण से विस्तार के लिए सुरक्षित है। महात्मा गांधी का हिन्द - स्वराज इसी सनातन धर्म को समकालीन बनाने की प्रस्तावना है। सर्वोदय या सर्वव्यापी न्याय को दायित्व या ऋण से जोड़ने का महात्मा गांधी का यह प्रयास समता से भी अधिक गहरी एक नैतिक सम्पृक्कता का आधार उपस्थित करता है। समकालीन समय में किस अवस्था में किस प्रकार के स्वभाव वाले व्यक्ति का क्या सामाजिक दायित्व है - यह परिभाषित करना महात्मा गांधी और कुमारस्वामी का प्रयास रहा है। इस परिभाषा या 'इथिक (नीति)' के बिना सामाजिक न्याय की कल्पना अधूरी रह जायेगी। हिन्दू जीवन - दर्शन को सही तरह समझने में जहाँ एक ओर पश्चिमी जीवन - दर्शन के प्रभाव के कारण बाधा उत्पन्न हुई है, वहीं निर्गुण भक्ति साहित्य के प्रभाव में अत्यन्त अन्तर्मुखी हो जाने के  कारण अपने परिवेश, समाज एवं संसार को देखने की खुली दृष्टि का अभाव आ गया है। फलत: हिन्दू जीवन - दर्शन के व्यवहार और सिध्दांत में बहुत अन्तर आ गया है। इसी से हिन्दू समाज के अंग्रेजीदां लोग कोरे काम चलाऊ शब्दों से अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने लगे हैं। इससे किसी का कल्याण नहीं हो सकता। हिन्दुत्व में जिनकी अब भी आस्था है उन्हें उपरोक्त मुद्दों पर विचार करना चाहिए।

 

 

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