भारतीय मूल के पंथ एवं धार्मिक समूहों में बौध्द धर्म का महत्त्व
भारतीय समाज में बौध्द धर्म के अलावे अनेक धर्म एवं सम्प्रदाय उल्लेखनीय हैं, जैसे वैष्णव, शैव, शाक्त, लिंगायत, कबीरपंथी, रैदासपंथी। बौध्द व जैन जैसे प्रारंभिक धार्मिक समुदायों को श्रमण परंपरा कहा जाता है जबकि हिंदू धर्म से जुड़े संप्रदायों को वैदिक परंपरा कहा जाता है। इन धार्मिक समूहों और विस्तृत हिन्दू समाज के बीच परस्पर संबंध होता है। पंजाब में हिन्दुओं एवं सिक्खों के बीच विवाह के उदाहरण मिलते रहे हैं। बौध्द व हिन्दुओं में भी वैवाहिक संबंध होते हैं। हिन्दू बनिया व जैनों के बीच गहरे सामाजिक व सांस्कृतिक संबंध हैं। बौध्द व जैन जैसे प्रारंभिक धार्मिक समुदायों के प्रभाव में पुरोहितों के प्रभुत्व और जातीय प्रस्थिति के महत्तव पर अंकुश लगा। बौध्द धर्म ने सभी जीवों के प्रति करूणा की भावना को धार्मिक महत्तव प्रदान किया। जैन धर्म ने अहिंसा के सिध्दांत को स्थापित किया। भगवान बुध्द ने शास्त्रों एवं पुरोहितों की सीमा स्पष्ट करके अपना दीपक खुद बनने की शिक्षा दिया जिससे समाज में विवेक एवं प्रज्ञा का महत्त्व स्थापित हुआ। तत्पश्चात दक्षिण भारत में भक्ति संप्रदाय का छठी और ग्यारहवीं शताब्दी के बीच उदय हुआ। उत्तर भारत में चौदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी के बीच इस भक्ति संप्रदाय का प्रचार-प्रसार एवं संवर्धन हुआ। इसके प्रभाव से उदारवाद प्रकाश में आया जिससे लोगों को आनुष्ठानिक व सामाजिक प्रतिबंधों से छूट मिली। साथ ही ईश्वर के समक्ष समानता का सिध्दांत प्रचलित हुआ। भारतीय मूल के अन्य पंथों में कबीर पंथ, रैदास पंथ, नानक पंथ, लिंगायत पंथ आदि भक्ति संप्रदाय से जुड़े हैं। औपनिवेशिक शासन काल में भारतीय समाज में अनेक नई सुधारवादी धाराएँ उभरी। सुधार आंदोलनों में ब्रह्मसमाज, आर्यसमाज, रामकृष्ण मिशन आदि की स्पष्ट भूमिका रही है। सुधार के इन्हीं प्रयत्नों को अणुव्रत आंदोलन, भूदान आंदोलन व स्वाधयाय आंदोलन के रूप में नए आयाम मिले।
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