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लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067
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जीवन संगीत
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जीवन संगीत
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नाद ब्रहम ध्यान एक प्राचीन तिब्बती विधि है। इसे सुबह ब्रहम मुहूर्त में किया जाता रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार इसे दिन में किसी भी समय अकेले या अन्य लोगों के साथ किया जा सकता है लेकिन पेट खाली होना चाहिए और इस ध्यान के बाद पंद्रह मिनट तक विश्राम करना जरूरी है। यह ध्यान एक घंटे का है और इसके तीन चरण है।
पहला चरण : तीन मिनट
एक विश्रामपूर्ण मुद्रा में ऑंख और मुंह बंद करके बैठें। फिर भौंरे की तरह (भ्रामरी योग) गुंजार की ध्वनि निकालना शुरू करें। गुंजार इतना तीव्र होना चाहिए कि आसपास बैठे लोगों को यह सुनाई पड़ सके और गुंजार की ध्वनि के कंपन आपके पूरे शरीर में फैल सके। स्वयं को एक खाली पात्र या खोखले टयुब की तरह अनुभव करेंगे तो आप पाएंगे कि यह पात्र गुंजार की ध्वनि से धीरे - धीरे भर गई है। आप एक श्रोता या द्रष्टा या साक्षी मात्र रह जाते हैं। आप सुविधानुसार गुंजार की लय को बदल सकते हैं या शरीर को धीरे - धीरे झूकने दे सकते हैं।
दूसरा चरण : पंद्रह मिनट
दूसरा चरण साढ़े सात - सात मिनट के दो भागों में बंटा हुआ है। पहले साढ़े सात मिनट में दोनों हथेलियों को आकाशोन्मुखी दिशा में फैलाकर नाभि के पास से आगे की ओर बढ़ाते हुए चक्राकार घुमाएं। दायां हाथ दायीं ओर और बायां हाथ बायीं ओर चक्राकार घुमाएं। फिर बर्तुल पूरा करते हुढ दोनों हथेलियों को पूर्ववत नाभि के सामने वापस ले आएं। यह गति करीब साढ़े सात मिनट तक जारी रखें। गति धीमी होनी चाहिए। ऐसी भावना पैदा करें कि आप अपनी ऊर्जा बाहर ब्रहमांड में फैलने दे रहे हैं।
साढ़े सात मिनट के बाद हथेलियों को उलटा, भूमिउन्मुख दिशा में कर ले और उन्हें विपरीत दिशा में वृत्ताकार घुमाना शुरू करें। फिर फैले हुए हाथ नाभि की और वापस लाऐं और पेट के किनारे से बाहर वृत बनते हुए बाजुओं में फैलकर फिर वृत को पूरा करते हुए नाभि की ओर वापस लौटें। ऐसी भावना पैदा करें कि अनुभव हो कि आप ब्रहमांड की ऊर्जा भीतर ग्रहण कर रहे हैं। इसे भी साढ़े सात मिनट करें।
तीसरा चरण : पंद्रह मिनट
शांत और स्थिर होकर बैठें या शवासन की मुद्रा में पंद्रह मिनट तक लेट जाएं। ऑंखे बंद कर लें और भौरें की तरह पंद्रह मिनट तक गुंजार करें। कुछ ही समय में मालूम होगा कि ब्रहमांड की ऊर्जा और आपकी ऊर्जा आपस में मिल रही हैं या एक हो रही हैं। इस तरह की अनेको विधियां सनातन धर्म के योगी और तांत्रिक उपयोग में लाते हैं। वास्तव में इसी तरह की जीवन (संगीत) साधना को केन्द्र में रखकर यजमानी व्यवस्था की स्थानीय और वर्णाश्रम व्यवस्था की सार्वभौमिक स्वरूपों का सनातन धर्मों में विकास हुआ है। इसमें आप अपने जीवन पध्दति या आजीविका हेतु किसी कला या शिल्प की इस तरह साधना करते हैं कि आपकी ऊर्जा और ब्रहमांड की ऊर्जा के बीच आपसी लेन देन संगीत के आरोह - अवरोह की तरह नियमित रूप से चला करता है और जिन्दगी एक फूल की तरह रसीली और सुगंधित गंध बिखेरने लगती है। इसे गहराई देने के लिए आपके चारों ओर जो कुछ घटित हो रहा है उसे स्वीकार करें। उन्हें एक जीवंत समग्रता बनने दें। इस ब्रहमांड में सब कुछ अंतर्संबंधित है। ये पक्षी, ये वृक्ष, यह आकाश, यह पृथ्वी, यह सर्य और मनुष्य सब एक दूसरे से परस्पर जुड़े हुए हैं। यह एक जीवंत एकत्व है। अद्वैत है। यह पर्यावरण विज्ञान का वैदिक मत है। हर चीज आपस में गहराई से जुड़ी हुई है। पूरे ब्रहमांड को नाद ब्रहम या कॉस्मिक संगीत जोड़े हुए है। संगीत के बिना जीवन नहीं है। संग = साथ रहने से गीत बनता है। इस संगीत को सुनने के लिए साक्षी - भाव आवश्यक है। ध्यान करना आवश्यक है। योगाभ्यास करना आवश्यक है। ईश्वरीय तत्व के प्रति समर्पित होना आवश्यक है। वर्ना अहंकार आ जाएगा। मन विचलित होने लगेगा। आपका संतुलन बिगड़ेगा। फिर आप बेसुरे हो जाएंगे। आपके भीतर का संगीत नष्ट हो जाएगा। फिर आप कॉस्मिक संगीत नहीं सुन पाएंगे।
साक्षी भाव का आना मन की मृत्यु है। मन एक कर्त्ता है। वह कुछ न कुछ करते ही रहना चहता है। साक्षी भाव न करने की अवस्था है। जैसे ही साक्षी भाव का आविर्भाव होता है, मन को विलीन हो जाना पड़ता है। मन सपनों का एक प्रवाह है और सपने नींद में ही अस्तित्ववान हो सकते हैं। साक्षी भाव के उदय होने पर हम सपना देखना बंद कर देते हैं। हम बहुत प्राणवान और सक्षम हो जाते हैं। हम प्रकाश की प्रचंड लपट बन जाते हैं। चैतन्य के प्रकाश में मन मर जाता है। मन आत्मघात कर लेता है। केवल साक्षी चेतना ही गीत गा सकती है, नृत्य कर सकती है और जीवन का स्वाद ले सकती है।
साक्षी भाव का मतलव जीवन से पलायन नहीं है। साक्षी भाव का अर्थ जीवन को कहीं अधिक समग्रता से जीना है। कमल का फूल साक्षी भाव का प्रतीक है। कमल एक ऐसा फूल है जो पानी में रहता है, लेकिन पानी उसे स्पर्श नहीं कर सकता। संसार के बीच में रहना लेकिन संसार को अपने अंतस में प्रविष्ट न होने देना साक्षी चेतना के जाग्रत होने का प्रमाण है। साक्षी भाव से ही जीवन संगीत को देखा और सुना जा सकता है। सत्य का दर्शन किया जा सकता है। यही सनातनी दृष्टि है। यही बुध्द का धम्म है। यही मध्यम मार्ग है।
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