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लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067
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ज्योतिष और हिन्दू समाज
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ज्योतिष और हिन्दू समाज
हिन्दू समाज में ज्योतिष वेदों के नेत्र माने जाते है। इसके द्वारा वैदिक दृष्टिकोण को देखा एवं समझा जाता है। पिण्ड और ब्रहमाण्ड के रिस्ते को समझा जाता है। वैसे तो पंचांग विभिन्न ज्योतिष ग्रंथों के आधार पर बनाए जाते हैं, लेकिन मुख्य रूप से दो परंपराएं प्रचलित हैं।
एक तो सिध्दांतग्रंथ (इसमें सूर्यसिध्दांत, ग्रहलाघव, ब्रहमस्पुट सिध्दांत जैसे ग्रंथ शामिल हैं) व दूसरे कर्णग्रंथ (केतकी चित्रापक्ष व रेवतीतिलकपक्ष जैसे ग्रंथ) पर आधारित हैं। सिध्दांतग्रंथ प्राचीन हैं, जिनमें सृष्टि के आरंभ से लेकर अब की तिथि की गणनाएं हैं।
कर्णसिध्दांत आधुनिक ग्रंथ हैं। जिस समय इसकी रचना की गई, वहीं से गणना की जाती है। इसमें इष्ट समय मानकर (यानी जिस समय से गणना करना हो) भी गणना कर सकते हैं। इन ग्रंथों के आधार पर ग्रह - नक्षत्र, तिथि आदि की गणनाएं की जाती हैं। जिस स्थान का पंचांग बनाया जाता है वहां के उदयमान से उस क्षेत्र का पंचांग बनाते हैं। इन गणनाओं के लिए मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर को केंद्र माना गया है। इसकी मुख्य वजह यह है कि यहां भूमध्य व कर्क रेखा एक - दूसरे को क्रास करती है। इसीलिए उज्जैन की सीधी गणना मान्य है। इसके बाद जिस स्थान का पंचांग बनता है उस स्थान के उदयकाल के आधार पर पंचांग बनाते हैं।
चैत शुक्ल प्रतिपदा अथति वासंतिक नवरात्र के प्रथम दिन कल्प, सृष्टि और युगादि का आरंभ दिवस है। यह महापर्व है। इसीदिन पितामह ब्रहमा ने सृष्टि का आरंभ किया था। भगवान विष्णु का प्रथम (मत्स्य) अवतार भी इसीदिन हुआ था। इस दिवस के साथ करोड़ो वर्षों का इतिहास जुडा हुआ है। कल्पादि, सृष्टियादि, युगादि आरंभ का महापर्व होने से चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का विशिष्ट महत्व है।
19 मार्च 2007 ही से इन महत्वपूर्ण वर्षों का आरंभ होगा। कल्पारंभ 197, 29, 49, 108 वां वर्ष, सृष्टि के आरंभ से 195, 58, 85, 108 वां वर्ष, कलियुग वर्ष 5107, विक्रम संवत 2064, शालिवाहन शक 1929, श्रीकृष्ण संवत 5233 आदि वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा सोमवार 19 मार्च 2007 से गणना में रहेंगे।
जब अमावस्या के दिन निचली कक्षा में भ्रमण करने वाला चंद्रमा सूर्य को ढंक लेता है और सूर्य का प्रकाश अवरूध्द होकर धरती पर नहीं पड़ता, सिर्फ सूर्य की काली परछाई ही दिखाई देती है। इसे पारंपरिक रूप से 'ग्रास' कहते हैं। यह परछाई या ग्रास जब सूर्य के आकार से छोटी होती है, तब खंडग्रास, जब सूर्य के आकार के बराबर होती है, तब सर्वग्रास तथा जब चंद्रमा की परछाई सूर्य के आकार से बड़ी होती है, तब 'खग्रास' कहलाता है। सूर्यग्रहण् का सूतक ग्रहण के स्पर्शकाल से चार प्रहर अथति 12 घंटे पहले लग जाता है। ग्रहण के सूतकाल में बालक, वृध्द, रोगी एवं गर्भवती स्त्रियों को छोड़कर आस्तिक लोग भोजनादि नहीं करते।
19 मार्च 2007 का खंडग्रास सूर्यग्रहण 4 मार्च 2007 के च्रदग्रहण के एक पखवाडे के भीरत पड़ रहा है। इसका संसार पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। यह सूर्यग्रहण तंत्र और मंत्र साधना के लिए अति महत्वपूर्ण है। ऐसा सूर्यग्रहण 18 साल में एक बार आता है। प्रात: 6 बजकर 22 मिनट से प्रारंभ होकर 7 बजकर 4 मिनट तक लगने वाले खग्रास सूर्यग्रहण का ज्योतिष एवं तंत्र की दृष्टि से बहुत महत्व है। इससे पहले ऐसा ग्रहण फरवरी 1989 में आया था। ग्रहण के समय आसुरिक शक्ति का होता है और इस समय साधना करने से सुर और असुर दोनों प्रकार की शक्तियों का आह्वान करने में साधकों को आसानी होती है।
ग्रहण मंत्र - ओम नमो रूद्राय नम:
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