Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

खंडहर से हाउसफुल तक (1983 - 2010)

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खंडहर से हाउसफुल तक (1983 - 2010)

 

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 उसमें एक नयापन था। एक प्रकार की चाक्षुस (विजुअल) गति थी। मृणान सेन 1969 में रचनात्मकता से बलबला रहे थे। 1983 में उनकी रचनात्मकता थकी - थकी नजर आती है। तब तक ईप्टा के लोग भी थक कर बिखर चुके थे। दाउद इब्राहिम का खूनी पंजा बॉलीवुड को अपनी गिरफ्त में लेने लगा था। इसी समय इंदिरा गांधी ने अपना समाजवादी केंचुल उतारना शुरू किया। 1973 से 1983 तक अमिताभ बच्चन अपना सर्वश्रेष्ठ काम कर चुके थे। 1983 में कुली बनी थी। इस फिल्म की एक दुर्घटना में वे बुरी तरह घायल हुए थे। वे जीवन - मृत्यु से जब अस्पताल में जूझ रहे थे तो सारा देश थम गया था। बीमारी के सन्नाटे में एक महानायक का जन्म हुआ। कुली को आशातीत सफलता मिली। 1984 के 31 अक्टुबर को इंदिरा गांधी की मृत्यु हुई। उनकी लाश को 3 दिनों तक टी वी पर दिखलाया गया और साल के अंत में राजीव गांधी को अभूतपूर्ण सफलता मिली। अमिताभ बच्चन इलाहाबाद के सांसद बने। उन्होंने हेमवतीनंदन बहुगुणा को हरा दिया और कुछ वर्षों के लिए वे सिनेमा से दूर हो गए। परन्तु उनकी फिल्में 1992 तक लगातार प्रदर्शित होती रहीं। 1983 के बाद उनको मेगास्टार कहा गया। मनमोहन देसाई उनको 'वन मैन इन्डस्ट्री' कहते थे। इसके बावजूद 1983 से 1988 तक हिन्दी सिनेमा का ट्रेंड बदल गया था और इसे जितेन्द्र - श्रीदेवी का युग कहा जा सकता है। इस ट्रेंड को 1989 में सूरज बड़जात्या की 'मैंने प्यार किया' यश चोपड़ा की 'चांदनी' और सुभाष घई की 'राम - लखन' ने बदला। 1988 में माधुरी दीक्षित की तेजाब और जूही चावला - आमिर खान की कयामत से कयामत तक आ चुकी थी। 1993 से 1988 तक सिनेमा हॉल में दर्शकों ने सपरिवार जाना बंद कर दिया था। इस पीरियड में टीवी और होम वीडियो ने दर्शकों का ध्यान खींचा था। सिनेमा के प्रति मध्यवर्गीय दर्शकों में उन्माद घट गया था। 1988 - 89 से दर्शकों ने सिनेमा हॉल में दुबारा जाना शुरू किया। यह माधुरी दीक्षित का युग - प्रवेश था। 1989 में चांदनी श्रीदेवी की अंतिम भव्य सफलता थी। 1988 के तेजाब से 1994 के हम आपके हैं कौन तक माधुरी दीक्षित युग था। 1993 से गोविन्दा और शाहरूख खान की फिल्मों को लगातार सफलता मिलती रही। दोनो की अपनी फैन - सर्किल बनी। 2000 से हृतिक रोशन और अक्षय कुमार का उदय हुआ। 2001 से आमिर खान ने खुद को रिडिफाइन किया। तीनों में अक्षय कुमार की सफल फिल्मों की संख्या सबसे ज्यादा रही है। आमिर खान और हृतिक रोशन बहुत कम फिल्में करते हैं। लेकिन विज्ञापन फिल्मों में शाहरूख खान, सचिन तेंदुलकर और अमिताभ बच्चन का जलवा सब पर भारी रहा। शाहरूख खान जैसा व्यवस्थित व्यवसाय हिन्दी फिल्मों में किसी ने नहीं किया। विज्ञापन फिल्मों से शादी - ब्याह में नाचने तक, क्रिकेट के व्यवसाय से लेकर राजनीतिक तिकडम तक शाहरूख खान ने 1993 से वह सब कुछ किया जो व्यावसायिक सफलता और पैसा कमाने के लिए किया जा सकता है। लेकिन टैलेन्ट और सिनेमाई लोकप्रियता में अमिताभ बच्चन, आमिर खान, गोविन्दा और हृतिक रोशन के सामने शाहरूख उन्नीस पड़ते हैं। शाहरूख केवल अभिनेता नहीं हैं, वे एक ब्रांड हैं और किंग खान के रूप में उन्होंने अपनी सफल ब्रांडिंग की है। वे ओवर एक्टिंग करते हैं। चक दे इंडिया एकमात्र अपवाद है। उनमें रॉ टैलेन्ट की कमी है। वे स्वाभाविक अभिनय नहीं कर सकते। वे गोविन्दा की तरह डांस, हृतिक और अक्षय कुमार की तरह स्टंट, अमिताभ और अमिर की तरह अभिनय नहीं कर सकते। गोविन्दा और अक्षय कुमार की तरह वे कॉमेडी भी नहीं कर सकते। परन्तु उनसे बेहतर व्यवसायी कोई नहीं है। उनको बड़े बैनर का हमेशा सहयोग मिलता रहा है। शाहरुख अच्छे आदमी हैं। वे बहुत मिहनती हैं। उनमें व्यावसायिक चातुर्य है। उनमें स्टार अपील भी है लेकिन वे बहुत टैलेन्टेड अभिनेता नहीं है ।वे बहुत भाग्यशाली हैं कि इतना कम टैलेन्ट में उनको इतनी सफलता मिली। अक्षय कुमार ने 1991 से अभिनय शुरू किया था। लेकिन उनको बड़ी सफलता सन 2000 में प्रियदर्शन की हेराफेरी से मिली। प्रियदर्शन ने 1992 में मुस्कराहट नामक फिल्म से हिन्दी सिनेमा में प्रवेश किया था। यह मलयालम फिल्म  किलुक्कम का हिंदी संस्करण थी। 1997 में प्रियदर्शन ने विरासत बनायी थी जिसकी काफी चर्चा हुई थी। परन्तु सन 2000 से वे कॉमेडी फिल्मों के उस्ताद के रूप में उभरे। शाहरूख ने 1992 से अभिनय शुरू किया और पहली फिल्म से ही उनको सफलता मिल गई। अक्षय कुमार की सफलता की तुलना गोविन्दा, अमिताभ बच्चन और जितेन्द्र की सफलता से की जा सकती है। चारो ने बहुत लंबा संघर्ष किया है। चारो को सफलता देर से मिली है। इनमें अमिताभ निराले हैं। उनकी तुलना भारत में किसी से नहीं की जा सकती। बी बी सी के एक ओपिनियन पॉल में उनको मिलेनियम स्टार का दर्जा मिला है। परन्तु जितेन्द्र, गोविन्दा और अक्षय कुमार की तुलना की जा सकती है। तीनों आम जनता के बीच काफी लोकप्रिय रहे हैं। भले ही इन पर फूहड़ता का आरोप लगा हो परन्तु दोष केवल इनका नहीं है, निर्देशकों और दर्शकों का भी है। निर्माताओं का भी है। हम जिस तरह के देश, जिस तरह की राजनीति, जिस तरह की अर्थव्यवस्था और जिस तरह की संस्कृति गढ़ रहे हैं उसमें फिल्मी मनोरंजन भी उसी प्रकार का होगा। लेवी स्ट्रॉस की भाषा में उपरोक्त सभी आयामों में सहधर्मिता है। परम्परावादी भारतीय समाज धीरे - धीरे आधुनिक फूहड़ता को अपनाता जा रहा है।

 

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