लोक परंपराओं का शास्त्र
हिन्द स्वराज भारतीय संस्कृति की आत्मा ('स्व') को समकालीन परिस्थिति के शरीर (संरचना) में संप्रभु (राज करने वाली स्वायत्ता शक्ति) के रूप में स्थापित करने का मंत्र (रणनीतिक सिध्दांत) है। भारतीय सभ्यता सनातन परंपरा का एक ऐतिहासिक रूप है। विविधाता इसका स्थायी स्वरूप या भाव है। यहाँ एकरूपता या एकरसता का भाव अस्वाभाविक, अप्राकृतिक एवं कृत्रिम माना जाता रहा है। भारतीय सभ्यता की व्याख्या या विश्लेषण्ा के लिए कम से कम नौ प्रकार के दर्शनों (पूर्व मीमांसा, सांख्य, वैशेषिक, न्याय, योग एवं उत्तर मीमांसा (वेदांत) जैसे वैदिक, बौध्द एवं जैन जैसे श्रमणिक एवं लोकायत जैसे प्राकृतिक अनुभववादी) की सहायता ली जाती रही है। मनुष्य, प्रकृति एवं ब्रह्माण्डीय शक्ति के लीलात्मक संबंधों के शिवत्व, सत्य एवं सौन्दर्य की थाह पाने के लिए नौ प्रकार के भाव या रस (शांत, करूण, वात्सल्य, श्रृंगार, वीर, रौद्र, अद्भूत, जुगुप्सा, वीभत्स) की अवधारणा विकसित की गई है। प्रकृति एवं संस्कृति के द्वन्दात्मक संबंधों के विभिन्न सोपानों को ऋतु-चक्र परिवर्तन (वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरत्, हेमंत, पतझड़ (शिशिर)) को अभिव्यक्ति दी गई। मनुष्य के स्वभाव को समझने के लिए चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की अवधारणा विकसित की गई। हर व्यक्ति के जीवन में चार पुरूषार्थों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की प्राप्ति सहजता से हो सके इसके लिए चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य या गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास) की व्यवस्था की गई। चार आश्रमों के अंतगर्त सोलह संस्कारों (गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्न्यन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णभेद, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशान्त, समावर्तन, विवाह, अंत्येष्टि) की विधिा विकसित की गई। जो लोग वैकल्पिक माधयम से जीवन जीना चाहते हैं उनके लिए श्रमण एवं प्राकृतिक अनुभववादी रास्ते सुलभ रहे हैं। तीनों रास्तों से वैवाहिक जीवन शुरू किया जा सकता है अत: 8 प्रकार के विवाह (ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गंधार्व, राक्षस, पिशाच) व्यवस्था की गई है। विवाह का मूल उद्देश्य सृजन (संतान प्राप्ति/ संतानोप्राप्ति) एवं पितृऋण से छुटकारा पाना रहा है भारतीय संस्कृति का क्रेंद्र सूर्य है। प्रकाश-पुंज सूर्य की किरणों में सात रंग (बैंगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी, लाल) हैं। इन विविधाताओं के बीच व्यवस्था की कम से कम चार वैकल्पिक (समानांतर) पध्दतियाँ फलती-फूलती रही हैं - संप्रदायों एवं पंथों की धार्मिक पध्दति, जातियों की सामाजिक पध्दति, कुटुम्बों की नातेदारी पध्दति एवं राज्यों की राजनैतिक पध्दति। ये चारो व्यवस्थायें एक-दूसरे की पूरक रही हैं। इनके अधिाकार एवंर् कत्तव्य की सीमाएं संस्थाबध्द रहीं हैं। एक व्यक्ति के रूप में संस्कृति को जीना एक बात है। हर प्रतिबध्दता के बावजूद एक व्यक्ति संस्कृति को उपभोक्ता के रूप में ही जीता है और संस्कृति के विभिन्न रूपों को एक स्वाभाविक स्थिति के रूप में ही स्वीकारता है। इस प्रक्रिया में एक निष्क्रियता है। आम आदमी मूलत: एक व्यक्ति के रूप में ही या एक परिवार के रूप में ही तात्कालिक परिस्थिति को स्वाभाविक स्थिति मानकर जीता है। लेकिन वह उसके बहुआयामी स्वरूपों, निहितार्थों, फलितार्थों को भी समझता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। यह काम विशेषज्ञों का है। हर संस्कृति की अपनी समस्यायें होती हैं और उन समस्याओं के समाधान के लिए हर संस्कृति के अपने विशेषज्ञ होते हैं। परंतु विशेषज्ञों और गैर विशेषज्ञों के बीच हर संस्कृति में एक जैसा संबंधा नहीं होता। उदाहरण के लिए, भारतीय संस्कृति में पारंपरिक रूप से विशेष ज्ञान या विशेष अनुभव रखने वाले किसी भी व्यक्ति या परिवार को विशेषज्ञ कहा जाता रहा है। परंतु पश्चिमी समाजों की तरह भारतीय समाज में विशेषज्ञों का कभी अलग वर्ग और गैर विशेषज्ञों का कोई अलग वर्ग नहीं रहा है। हमारे यहाँ हर व्यक्ति, परिवार, जाति एवं संप्रदाय का लक्ष्य किसी-न-किसी प्रकार की विशेष अनुभूति या विशेष ज्ञान या विशेष दक्षता (कुशलता) प्राप्त करना रहा है। इस प्रकार के विशेष ज्ञान, अनुभूति या दक्षता प्राप्ति के सामान्यतया तीन स्रोत रहे हैं (1) शास्त्रीय प्रशिक्षण (2) लौकिक प्रशिक्षण (3) व्यक्तिगत साधाना, तपस, अभ्यास। लेकिन सामान्यतया एक ही परिवार में तीनों तरह से विशेषज्ञता प्राप्त की जाती रही है। इन्हें क्रमश: मार्ग कहा जाता है (ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग, भक्ति मार्ग)। उसी तरह हर राज्य, साम्राज्य एवं राजनैतिक व्यवस्था को बनाने, चलाने एवं विस्तारित करने के लिए अपने विशेषज्ञ होते हैं। करीब-करीब हर राज्य, सामा्रज्य एवं व्यवस्था के विशेषज्ञों का धीरे-धीरे एक वर्ग (प्रभु वर्ग) बन जाता है जो आम आदमियों की तुलना में ज्यादा साधान एवं अधिाकार संपन्न होते हैं। संस्कृति में एक प्रकार की लोकतांत्रिकता या सहभागिकता होती है जिसकी जगह राज्य इत्यादि में अधिाकारर्-कत्ताव्य में गैर-बराबरी किसी-न-किसी तरह आ ही जाती है। प्रभु वर्ग की विशेषज्ञता हर राज्य व्यवस्था के लिए सामान्यत: आवश्यक समझी जाती है। गुलामी के लंबे दौर में भारतीय संस्कृति को तो आम आदमियों ने व्यक्ति, परिवार, जातियों एवं संप्रदायों के स्तर पर कुछ हद तक बचाये रखा लेकिन इस संस्कृति के विशेषज्ञों और उनको पोषित करनेवाली संस्थाओं को नहीं बचाया जा सका। इनके गुरूकुल नष्ट कर दिये गये। उनके विशेषज्ञों को या तो मार दिया गया या उनकी संस्थायें बर्बाद कर दी गई या उन्हें इतना लांछित किया गया कि उन लोगों ने अपने आप धीरे-धीरे स्वधर्म निभाना छोड़ दिया। फिर उनको लोभ-लालच देकर दूसरे कामों में लगा दिया गया; या, भारतीय संस्कृति को विरूपित और विखंडित करके विधार्मी साम्राज्य को पोषित करने वाली गतिविधिायाँ चलाने का ''प्रोजेक्ट'' दे दिया गया। इस प्रोजेक्ट का दिशा-निर्देश, गति, निहितार्थ, फलितार्थ आदि साम्राज्य के विशेषज्ञों द्वारा पहले से तय कर दिये जाते थे। विधार्मी साम्राज्य बनते-बिगड़ते रहे। राज्य और इसके संसाधानों पर कब्जा करने के लिए केवल सैनिकाें और सेनापतियों की आवश्यकता नहीं पड़ती, बुध्दिजीवियों और कलाकारों की भी आवश्यकता पड़ती है। कोई भी साम्राज्यवादी सामान्यतया किसी देश पर विजय प्राप्त करने के उपरांत उस देश के निवासियों और उनकी संस्कृति को पूरी तरह नष्ट नहीं करना चाहता। हर साम्राज्य को अपनी सुविधा एवं अपने लाभ के लिए गुलाम चाहिए, कुशल कारिंदे चाहिए, देशी परिस्थितियों में साम्राज्य के अनुकूल इंफ्रास्ट्रक्चर एवं संस्थायें चाहिए। इनके विकास में बहुत समय, श्रम और साधान लगता है। अत: साम्राज्य के रणनीतिकार अक्सर देशी परिस्थिति को अनुकूल बनाना, उस देश की संस्थाओं एवं विशेषज्ञों को नष्ट करने से बेहतर मानते हैं और केवल अपनी प्रभुता बनाये रखना चाहते हैं। स्पेन वालों ने कोलंबस द्वारा अमेरिका खोजने के बाद वहाँ के मूल निवासियों और वहाँ की संस्कृतियों के साथ जो किया वह एक तरह का अतिवाद था जिसकी जड़े धार्मान्धाता में थी, साम्राज्यवाद में नहीं। अधिाकांश साम्राज्यवादी मूलत: दो काम करते हैं (1) उस देश के कानून को अपने देश के कानून के अनुकूल बनाते हैं और (2) उस देश की व्यवस्था एवं सभ्यतामूलक संस्थाओं को पोषित करने वाली, विशेष को पैदा करने वाली शास्त्रीय प्रणाली को तोड़ देते हैं। अन्य चीजों को नये साम्राज्य के फ्रेमवक से जोड़कर विरूपित कर दिया जाता है। इस दृष्टि से अंग्रेजों ने मैकॉले की शिक्षा नीति के तहत अपनी साम्राज्यवादी नीतियों को सूत्रबध्द किया। इसके तहत भारत की शास्त्रीय प्रणाली को इसके जीवंत स्रोतों से काट कर सुखा दिया गया। देश की परंपराओं, रीति-रिवाजों, कानूनों को अप्रासंगिक बना दिया गया और इनके स्थान पर अंग्रेजी साम्राज्य को पोषित करने वाले, तथाकथित आधुनिक कानून एवं आधुनिक शास्त्रीय प्रणालियाँ लाद दी गई। भारत के देशी विशेषज्ञों को संरक्षण एवं प्रोत्साहन देने की बजाय, उनके खिलाफ तरह-तरह के कुतर्क रचकर हर तरह की गड़बड़ी, कुरीतियाँ, असहिष्णुता एवं जलालत के लिए जिम्मेदार ठहराया गया और लांछित किया गया। दूसरी ओर, भारतीय परंपरा एवं शास्त्रीय प्रणाली के यूरोपीय विशेषज्ञ (इंडोलॉजिस्ट एवं ओरिएन्टैलिस्ट) तैयार किए गए जिन्होंने कुछ तो नासमझी बस और बहुत कुछ साम्राज्यवादी साजिश के तहत एक जीती-जागती सनातनी सभ्यता को एक ऐतिहासिक एवं पुरातात्तिवक खिलौने की तरह पेश किया। अंग्रेजों द्वारा प्रायोजित एवं आधुनिक पश्चिमी दृष्टि से प्रस्तुत इस भारतीय सभ्यता की सुन्दरता और सम्पूर्णता पर गर्व तो किया जा सकता था परंतु यहर् वत्तमान या भविष्य में एक स्वस्थ, समृध्द एवं संतोषप्रद सामाजिक जीवन की आधारशिला नहीं बन सकती थी। अंग्रेजों के आने तक देश में जितने भी पारंपरिक शास्त्र एवं ग्रंथ भोजपत्र, ताड़-पत्र, ताम्र-पत्र, या अन्य माधयमों में संप्रेषित थे उनका संग्रह एवं संपादन करने का साम्राज्यवादी उत्साह रंग लाया। आज जितने भी ग्रंथ एवं शास्त्र पुस्तकालयों या बाजारों में मिलते हैं उनके संस्करण या तो अंग्रेजी राज द्वारा तैयार कराये गये या अन्य यूरोपीय संस्थाओं द्वारा तैयार कराये गये हैं। उस वक्त के देशी रियासतों द्वारा तैयार किये गये संस्करण भी यूरोपीय विद्वानों द्वारा या यूरोपीय मानकों पर यूरोपीय पध्दति द्वारा तैयार किये गये। फलस्वरूप, जब भारतीय लोगों में अपनी परंपराओं को एवं शास्त्रीय पध्दतियों को जानने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी तो गैर-यूरोपीय स्रोतों का अकाल दिखने लगा। परंतु हमारे सौभाग्य से सनातन सभ्यता के भारतीय स्वरूप को गैर-यूरोपीय स्रोतों से समझना अब भी संभव है। शास्त्रीय परंपरा से हमारा जीवंत संबंधा भले ही टूट गया है परंतु लोक परंपरा में जीवंत स्रोत अब भी बचे हुए हैं। सामी (सेमेटीक) परंपरा में दीक्षित होने के कारण अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने अंग्रेजी राज के दौरान लोक परंपरा को निरीह और अशक्त समझकर अपने भरोसे जीने मरने के लिए छोड़ दिया था। उन्होनें अपनी पृष्ठभूमि के कारण भारत की लोक परंपरा की शक्ति को कम करके आंका। उन्हें केवल संस्कृत भाषा में लिखित और ब्राह्मणों द्वारा संरक्षित शास्त्रीय ज्ञान से खतरा लगा जबकि वाचिक परंपरा और लोक भाषाओं में उपस्थित लोकशास्त्रों की वे ठीक से पहचान नहीं कर सके। उन्होंने दर्शन, गणित और धर्मशास्त्रों को अपना निशाना बनाया। परंतु साहित्य, कला एवं लोक में व्याप्त पारंपरिक ज्ञान-विज्ञान, तकनीक, विधिायों एवं रीतियों को या तो समझ नहीं पाये या इनके निहितार्थ एवं फलितार्थों के महत्तव का आकलन नहीं कर पाये। वे इन्हें मनोरंजन के साधान एवं कौतूहल की वस्तु मानते रहे। सामान्यतया इनके प्रति अंग्रेजों की नीति सामान्यत: उदासीनता की रही परंतु कई बार मनोरंजन के साधान एवं सांस्कृतिक विविधाता के साधान के रूप में उन्होंने इनको प्रोत्साहन एवं संरक्षण भी दिया। वे समझ नहीं पाये कि पश्चिमी सामी सभ्यता के विपरीत भारतीय सभ्यता के केन्द्र में गणित, यांत्रिकी एवं धर्मशास्त्र की यूरोपीय अवधारणाओं से ज्यादा महत्तवपूर्ण मिथक, साहित्य, कला एवं संगीत की गुणात्मक रूप से अलग, सनातनी अवधारणाएँ रही हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि महात्मा गांधी को प्रभावित करने वाले जॉन रस्किन मूलत: कला समीक्षक एवं कला-इतिहासकार थे और आनन्द कुमारस्वामी खुद ही कला समीक्षक एवं कला-इतिहासकार बन गये थे। भारत में विज्ञान एवं तकनीक की लोक-साधाना कला के रूप में ही हुई है और संसार को लीला (नाटक) माना जाता रहा है। भारत में जब भी बड़ा सामाजिक परिवर्तन हुआ है तो उसका मानक एवं वाहक मिथकों एवं महाकाव्यों के रूपांतरण को माधयम बनाकर हुआ है। हर व्यक्ति अपनी समझ से ही विरोधिायों को झुकाता, तोड़ता या लाचार बनाता है। विरोधिायों की समझ और सभ्यता को समझकर बहुत कम तोड़ता-फोड़ता है। विजेताओं के अहंकार से की गई हत्या सामान्यत: सम्पूर्ण सभ्यता की हत्या नहीं होती। ठीक उसी तरह लोक साहित्य, लोक कलायें, लोक के रीति-रिवाज, कहावतें, मुहावरों एवं लोक धर्म की सांप्रदायिक परंपरायें अंग्रेजी राज में भी अक्षुण्ण रह गईं। परंपराओं को समझने का यह सूत्र भारत के आम जन को तो मालूम है हीं चीन, रूस और यूरोप के गैर आधुनिक मनीषियों को भी मालूम रहा है। उदाहरण के लिए रस्किन, टाल्सटाय, विलियम मॉरिस, रेने गुयेनो, लुई रेनेयू, जोसेफ कैम्पबेल, कार्ल जुंग, आनन्द कुमारस्वामी, मार्को पैलिस और कनफ्युशियस के समकालीन अनुयायियों जैसे माओत्से तुंग आदि लोगों को भी मालूम रहा है। गांधीजी के हिन्द स्वराज के स्रोत ऐसी ही लोक परंपरायें रही हैं। हिन्द स्वराज का उद्देश्य देशी विशेषज्ञों की एक स्वराजी जमात पैदा करके सनातनी सभ्यता को पोषित करने वाली प्रणाली विकसित करना रहा है। आज के भारत में उपरोक्त पारंपरिक अवधारणाओं, इसकी शब्दावलियों और इसके ऐतिहासिक रूपों को पुनर्जीवित करने की न तो कोई संभावना बची है और न इसकी कोई आवश्यकता ही है। समकालीन समस्याओं के समाधान के लिए की जाने वाली किसी भी गंभीर और प्रतिबध्द कोशिश में इनसे प्रेरणा अवश्य ली जा सकती है। इनका पुनर्नवीनीकरण (रिमेनीफेस्टेशन) तो अवश्य हो सकता है लेकिन वह भी एक दिन में या एक साल में नहीं। इसमें समय लगता है। पीढ़ियां लगती हैं। हिन्द स्वराज लिखने के पीछे महात्मा गांधी का मूल उद्देश्य अंग्रेजी राज या आधुनिक व्यवस्था के भीतर ऐसी ही संस्थाओं और विशेषज्ञों के स्वभाविक विकास के लिए सभ्यतामूलक विमर्श का निर्माण करना था। आज भी सनातन जीवन मूल्यों के प्रति प्रतिबध्द लोगों की दृष्टि से हिन्द स्वराज ऐसी एकमात्र समकालीन पुस्तिका है जिससे संप्रदाय निरपेक्ष, सभ्यतामूलक विमर्श बनाने की प्रेरणा और मार्गदर्शन प्राप्त हो सकता है। इसे भारतीय संस्कृति के संप्रदाय निरपेक्ष सभ्यतामूलक स्वरूप से परिचय कराने वाली प्रारंभिक पुस्तिका के रूप में भी नई पीढ़ी को दिया जा सकता है। एक भारतीय व्यक्ति को गांधीजी का हिन्द स्वराज एक सनातनी व्यक्ति के रूप में अपने समय और समकालीन चुनौतियों का न सिर्फ सामना करने का आत्मबल देता है बल्कि 'सत्यम, शिवम, सुन्दरम' को सफलता का मानदंड मानते हुए परम वैभव की प्राप्ति के लिए प्रेरित भी करता है।
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