Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

महात्मा गांधी का सभ्यता मूलक विमर्श

महात्मा गांधी का सभ्यता मूलक विमर्श

 

सभ्यता वह फ्रेमवर्क या व्यवस्था पध्दति है जिससे आदमी अपना फर्ज अदा करता है। फर्ज अदा करने का मतलब है नीति का पालन करना। नीति के पालन का मतलब है अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखना। ऐसा करते हुए हम अपनी असलियत को पहचानते हैं।

सभ्यता की पारंपरिक अवधारणा भारत और यूनान के साहित्य में समानार्थक है। यूनानी दार्शनिक प्लेटो के अनुसार यूनानी नगर-राज्य एवं यूनान के राजनीतिक समुदाय संसार में दैवीय नगर (कॉस्मिक सिटी) की अभिव्यक्ति है। दैवीय नगर को संस्कृत साहित्य में स्वर्ग कहा जाता है। भारत की पारंपरिक सभ्यता के अंतर्गत संसार में लोक (गांव एवं नगर में कायम सभ्यतामूलक जीव व्यवस्था) स्वर्ग की ही अनुकृति मानी जाती है। भारत और यूनान के प्राचीन साहित्य और संस्कृति में मनुष्य, प्रकृति, मनुष्येतर जीव, जगत एवं दैवीय शक्तियों के बीच संतुलन को धर्म कहा जाता था। पारंपरिक अवधारणा में ईश्वर का नगर-राज्य या सभ्यता की अवधारणा सभी समुदायों के सदस्यों में समझदारी, सहनशीलता, साहस और न्यायप्रियता के साथ सत्य पर आधारित व्यावसायिक जिम्मेदारी होना आवश्यक है। इस प्रकार एक सभ्यता एक आदर्श एवं सत्यनिष्ठ समाज या सहकारी कार्यशाला है जिसके उत्पादन लाभ के लिए नहीं बल्कि मनुष्य की शारीरिक एवं आत्मिक जरूरतों की पूर्ति के लिए होता है। इस सभ्यता में वस्तुओं का उत्पादन बेचने या लाभ के लिए न होकर उपयोग के लिए होता है और इस प्रकार से जीवों की सेवा के लिए होता है। कर्म की भारतीय अवधारणा भी यही है। भारतीय दर्शन में कर्म विश्वकल्याण के लिए किये जाते हैं। अपने कर्म के प्रति समर्पण भाव से ही मनुष्य पूर्णता को प्राप्त होता है। कृषि और हस्त शिल्प पारंपरिक सभ्यता के आधारस्तंभ हैं। मशीन युग और विश्व व्यापार ने सभ्यता को मुश्किल स्थिति में डाल दिया है। महात्मा गांधी और आनंद कुमारस्वामी पारंपरिक सभ्यता के प्रमुख सिध्दांतकार हैं।

महात्मा गांधी के अनुसार सभ्यता आचरण का वह प्रकार है जो मनुष्य को कर्तव्य का सही रास्ता दिखलाता है। कर्तव्य पालन ही नैतिकता का पालन है। हिन्द स्वराज (1909) नामक अपने प्रमुख ग्रंथ के अंतर्गत उन्होंने अपना सभ्यता मूलक विमर्श प्रस्तुत किया है। इसका सैध्दांतिक आधार एक ओर सनातन भारतीय सभ्यता की उनकी अपनी समझ है जो मूलत: उनकी व्यक्तिगत अनुभूतियों पर आधारित है। लेकिन दूसरे स्तर पर यह प्लेटो, रस्किन, थुरो और टाल्स्टाय जैसे पश्चिमी परंपरावादियों की रचनाओं से भी प्रभावित है। पारंपरिक मूल्यों को आधार बनाकर इस पुस्तक में वे आधुनिक सभ्यता की व्यवस्थित समालोचना प्रस्तुत करते हैं। उनका कहना है कि आधुनिक सभ्यता एक अस्वभाविक, शैतानी या राक्षसी लोभ लालच पर आधारित सभ्यता है जिसके सदस्य बाहरी दुनिया की खोजों में और शरीर के तात्कालिक (क्षणिक) सुख में लगे रहते हैं। इस सभ्यता में नीति और धर्म की बात ही नहीं है। यह अधर्म पर आधारित ईश्वर-विमुख सभ्यता है। गांधी जी कहते हैं कि आधुनिक लोग हिन्दुस्तान पर यह तोहमत लगाते हैं कि हम आलसी हैं और गोरे लोग मेनहती और उत्साही हैं। आधुनिक मानदंडों पर खरा उतरने के लिए कई हिन्दुस्तानी अब अनावश्यक रूप से गलत दिशा में प्रयत्नशील हो गए हैं। जैसा पाखंड आधुनिक सभ्यता में पाया जाता है उसकी  तुलना में सभी धर्मो में पाया जाने वाला व्यावहारिक पाखंड कम खतरनाक और कम दुखदायी होता है। धार्मिक पाखंडों को कोई सही नहीं समझता। सभी इसको पाखंड ही समझते हैं। ऐसे लोग जो पाखंडी नहीं हैं इसमें नहीं फंसते। इसका असर मूलत: पाखंडियों पर ही पड़ता है। फलस्वरूप इसका असर हमेशा के लिए बुरा नहीं रहता। परंतु आधुनिक सभ्यता के पाखंड को लोग विकास और प्रगति समझते हैं। लोग इसके पाखंड में बलिदान के भाव से कूद पड़ते है। फिर वे न तो दीन के रहते हैं और न दुनिया के। उनका तो लोक और परलोक दोनों बिगड़ जाता है। आधुनिक सभ्यता के वहमोें और पाखंडो से आधुनिक सभ्यता में आस्था रखने वाले लोगों को लडने का कोई कारण नजर नहीं आता। जबकि सभी धर्मों के भीतर धर्म और पाखंड के बीच धार्मिक संघर्ष सदैव चलते रहता है। अंग्रेजीराज के प्रभाव में आधुनिक हिन्दुस्तानी पाखंडी, नामर्द, नपुंसक और डरपोक बन गए हैं। भारत में पहाड, नदी, बाध, भेंडिए, बाढ़, सूखा के बीच भी लोग निर्भय होकर अपने धर्म का पालन करते रहे हैं। किसी भी सच्ची, अच्छी और कल्याणकारी सभ्यता का आधार धर्म,नीति और मूल्य होते हैं तथा यंत्रों, तकनीको एवं मशीनों का उपयाग मात्र साधन के रूप में होता है। जबकि आधुनिक सभ्यता का आधार लोभ, लालच, यंत्र, तकनीक एवं मशीन पर आधारित पाखंड है। इसमें मनुष्य के जीवन, आकांक्षा, सुख-दुख, सफलता- असफलता, लाभ- हानि, प्रगति-पतन जैसे मूल विषयों के स्थान पर तकनीक परिभाषित करने लगते हैं। भगवान ने मनुष्य की हद उसके शरीर की बनावट से बांध दी है। लेकिन आधुनिक मनुष्य ने उस बनावट की हद को लांघने का उपाय (तकनीक) ढुंढ निकाला। वह अपनी कुदरती हद के मुताबिक अपने आसपास रहने वालों की ही सेवा कर सकता है, पर आधुनिक मनुष्य ने अपने तकनीकी अहंकार में सारी दुनिया की सेवा करने का पाखंड पाल लिया। यह पाखंड खोखला है। एक व्यक्ति या एक समूह सारी दुनिया की सेवा कर ही नहीं सकता। इसके लिए अनेक धर्मों का और अनेक समूहों, समूदायों की आवश्यकता है। इसीलिए हिन्दुस्तान में सभी धर्मों एवं मतों के लिए स्थान है। राष्ट्र या सभ्यता का अर्थ हिन्दुस्तान में तात्विक रूप से सदैव विश्व व्यवस्था या वसुधैव कुटुम्बकम के रूप में रहा है। भारत के विभिन्न धार्मिक समुदायों में प्रेम और झगड़ा एक सीमा में रहती रही है परंतु सामुदायिक बैर का स्थायी विचार अंग्रेजों के आने से पहले नहीं था। धर्म तो एक ही जगह पहुंचने के अलग-अलग रास्ते हैं। पूजा पध्दति, रीति रिवाज और उपासना की साम्प्रदायिक व्यवस्था में अंतर भारतीय सभ्यता में स्वभाविक मानी जाती है।

भारतीय सभ्यता में गांव और क्षेत्र के ज्यादातर साधन उसी गांव या क्षेत्र की आवश्यकता पूर्ति के काम में लगाया जाता था। आवश्यकता से अधिक संसाधन ही बाहर भेजा जाता था। जीविका को उपासना की एक विधि माना जाता था। हर व्यक्ति अपने काम या व्यापार या श्रम के द्वारा प्रभु प्राप्ति या आत्म-साक्षात्कार करने की कोशिश करता था। गांव से बाहर लोग तीर्थाटन या तीर्थयात्रा पर मात्र कैतूहलवश एक नई जगह सैर -सपाटे के लिए नहीं जाते थे बल्कि आत्म-परिष्कार, आत्म-शुध्दि और ब्रहम-साक्षात्कार के लिए जरूरी पात्रता बढ़ाने, नैतिक बल प्राप्त करने और पवित्रता के भाव से खुद को भरने के लिए जाते थे। इसमें तीर्थस्थान और तीर्थयात्रा का दुर्गम, दुरूह, कष्टसाध्य, समय-साध्य और श्रम साध्य होना मददगार एवं उपयोगी होता था। अब आधुनिक साधनो ने निर्यात- आयात एवं तीर्थटन को सुविधाजनक, आरामदायक और मनोरंजक बनाकर इनका स्वरूप बदल दिया है। इससे समाज में पवित्रता और आत्म-तृप्ति के स्रोत सूखने लगे है।

पारंपरिक व्यक्ति को जब कोई काम पसंद नही आता तो वह सत्याग्रह या आटमबल का उपयोग करता  है। सत्याग्रह में वह अपना ही बलिदान देता है। सत्याग्रह से लड़ने हुए अगर लड़ाई गलत ठहरी तो सिर्फ लड़ाई छेड़ने वाला ही दुख भोगता है। यानी अपनी भूल की सजा वह खुद भोगता है। जबकि युध्द या खूनी संघर्ष में निर्दोष को भी सजा भोगना पड़ता है। अत: सत्याग्रह नैतिक रूप से एक बेहतर विकल्प है। अपनी आस्था के अनुसार अपने अधिकारों के लिए खुद कष्ट भोगना, कष्ट सहन करना चाहिए। यही सत्याग्रह की कुंजी है। जो कानून हमें पसन्द न हो वह भी हमें मानना चाहिए यह आधुनिक शिक्षा है। यह अवधारणा किसी भी पारंपरिक धर्म के खिलाफ है और गुलामी की हद है। जिस आदमी में सच्ची इंसानियत है वह केवल खुदा से डरता है। किसी और से नहीं डरता। दूसरों के बनाए हुए कानून उसके लिए बंधनकाराक नहीं होते। संख्या में ज्यादा लोग जो कहें उसे थोड़े लोगों को मान लेना चाहिए, बहुमत का निर्णय माना ही जाना चाहिए, यह भावना तो करीब- करीब सभी पारंपरिक समाजों के लिए नई बात है। यह एक अधार्मिक एवं अनैतिक बात है, एक वहम है। इस वहम को सिर्फ सत्याग्रह ही दूर कर सकता है। सत्याग्रह के लिए शारीरिक बल नहीं आत्मबल चाहिए। महात्मा गांधी की दृष्टि में पारंपरिक सभ्यता का आधार सत्याग्रह है।

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