समकालीन भारत में विवाह
आजकल भारत में प्राय: एकविवाह प्रथा ही अपनाई जाती है। प्रत्येक सामाजिक-धार्मिक समुदाय में विवाह की आयु बढ़ रही है। अधिकांश विवाह माता-पिता द्वारा तय किए जाते हैं, परंतु संबंञ्ति लड़के-लड़की की राय भी ली जाने लगी है। शहरी इलाकों में अंतजार्तिय एवं अंतर्सामुदायिक विवाह भी होने लगे है। वरमूल्य (डाउरी) की प्रथा उन समुदायों में भी बढ़ रही है जिनमें इसका प्रचलन नहीं था। उदाहरण के लिए मुसलमानों, ईसाईयों तथा कुछ जनजातीय समूहों में। पारंपरिक 'दहेज' एक स्वैच्छिक दान का रूप था जबकि आधुनिक 'डाउरी' एक प्रकार का वर-मूल्य माना जा सकता है जिसे मोल-भाव के बाद कन्या-पक्ष वर-पक्ष को देता है। वर-मूल्य की प्रथा 'समुदाय' एवं सामूदायिक आदर्शो के लगातार कमजोर पड़ने तथा व्यक्ति एवं परिवार के निहित स्वार्थो के महत्त्वपूर्ण बनने का प्रतीक हैं। यह प्रचलन बहू तथा उसके सास-ससुर के प्रेम और आत्मीयता के बंधन को गंभीरता से प्रभावित करता है खासकर तब जब उसके जन्म वाले परिवार से बहुत अञ्कि मांग की जाती है। यह प्रचलन उस कन्या के लिए अंतहीन दुखों का कारण बनता है जिसके माता-पिता वर के घर वालों के लालच को पूरा करने में असमर्थ होते हैं। भारत सरकार द्वारा दहेज निरोञ्क कानून बनाया गया हैं। स्त्रियों की आर्थिक आत्म-निर्भरता तथा उनमें स्वाभिमान की भावना एवं भावी वर के ज्ञानोदय से इस प्रथा को हतोत्साहित किया जा सकता है। तलाक तथा अलगाव की दर में वृध्दि हुई है। पत्नियाँ अपने अधिकारों के प्रति अञ्कि जागरूक एवं आग्रही हो रही है। फलस्वरूप प्रजातांत्रिक माहौल में पति-पत्नी की भूमिकाएँ पुनर्परिभाषित हो रही हैं। आजकल पति के लिए घर के कामों में हाथ बटाना असामान्य नहीं है। खासकर जब पत्नी भी नौकरी या व्यवसाय करती हो। अन्य समाजों की तुलना में भारतीय समाज में विवाह संस्था का स्थायित्व अभी भी कायम है।
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