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लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067
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शाक्त सम्प्रदाय में मूर्ति रहस्य
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शाक्त सम्प्रदाय में मूर्ति रहस्य
प्रथम महालक्ष्मी भगवती ने सम्पूर्ण जगत् को अधिष्ठाता से रहित देखकर केवल तमोगुण रूप उपाधि का आश्रय लेकर महाकाली रूप धारण कर लिया। अनन्तर महालक्ष्मी ने अतिशुध्द सत्व के द्वारा महाविद्या सरस्वती का रूप धारण कर लिया। रजोगुण के संयोग से महालक्ष्मी का रक्त - रूप धारण किया। प्रथम महालक्ष्मी भगवती साभ्यावस्था भिमानिनी हैं। उनमें तीनों गुण सम अवस्था में हैं। भगवती ने ब्रहमा का सरस्वती से, रूद्र का गौरी से, वासुदेव का लक्ष्मी से विवाह कर दिया। ब्रहमा ने सरस्वती के साथ ब्रहमाण्ड बनाया, रूद्र ने गौरी के साथ संहार का काम किया और विष्णु ने लक्ष्मी के साथ पालन किया। ब्रहम दृष्टि से चैतन्यरूपा सरस्वती, सत्तारूपा लक्ष्मी, आनन्दरूपा काली हैं, अत: चैतन्य का अभिव्यंजक सत्व, सत्ताव्यंजक रज और आनंद व्यंजक तम है। सुषुप्रि में तम की बहुलता से आनंदमय की व्यक्ति होती है। आनंद भोक्ता सत्व का पर्यवसान तमोरूपा निद्रा में होता है, इसलिए रूद्र में तम का व्यवहार होता है।
सत्ताव्यंजक रज का पर्यवसान सत्वात्मक ज्ञान में होता है, इसलिए विष्णु को सत्व कहा गया है। चैतन्यव्यंजक रज अपने रूप में रहता है, इसलिए ब्रहमा को रज कहा गया है। इतिहास की दृष्टि से पहले उत्पत्ति, फिर स्थिति, फिर संहार होता है। साधना में संहार, पालन, उत्पादन का क्रम मान्य होता है। स्थितिकाल में भी उन्नति के लिए तीनों शक्तियों की अपेक्षा है। दोषों का संहार, रक्षषीय गुणों का पालन और फिर अविद्यमान गुणों का उत्पादन साधना का लक्ष्य होता है। रोगों का नाश, प्राणों का रक्षक और बल का उत्पादन क्रमश: शिव, विष्णु और ब्रहमा का काम है।
शैव, वैष्णव, शाक्त सबके यहां अपने इष्टदेव को ही मूलतत्व माना जाता है। मूलतत्व में ही पूर्ण सर्वज्ञता आदि की विवक्षा से सत्वमय कहा जाता है। गुणकृत आवरण एवं तत् प्रभाव से रहित होने के कारण उसे ही निर्गुण् भी कहा जाता है। केवल शिव से संहार नहीं होता, शिव की शक्ति काली से संहार होता है। केवल प्रकाश से सृष्टि नहीं होती, इसलिए सरस्वती (सत्व) को रज के अधिष्ठाता ब्रहमा का सहारा लेना पड़ता है। रज से कार्य बनता चलता है, परन्तु यदि उसमें टिकाव नहीं हो, तो पालन कार्य नहीं हो सकता, अत: कार्य को टिकाऊ या स्थिर करने के लिए लक्ष्मी को तमोगुण के अधिष्ठाता विष्णु की अपेक्षा होती है। तम के प्राबल्य में अत्यंत रूकावट होने पर पालन न होकर संहार होता है। परन्तु संहार में भी किसका, कब, कितने दिन तक संहार हो, इसके ज्ञान के लिए सत्व की अपेक्षा है, इसीलिए काली शिव का सहारा लेती हैं। अन्यथा ब्रहमा को रज, रूद्र को तम और विष्णु को सत्व का अधिष्ठाता कहा जाता है। ब्रहमा का रंग रक्त है, शिव शुक्ल और विष्णु कृष्ण हैं। सत्व गुण के कारण शिव शुक्ल और तमो गुण के कारण विष्णु कृष्ण हैं।
स्थिर रखना तम का कार्य है, अत: पालक में तम का परमापेक्ष है। अन्यत्र संहार होने से रूद्र में तम, पालक होने से विष्णु को सत्वमय कहा गया है। कहीं निराकर और अव्यक्त को आकाश के समान श्याम रंग का व्यंजक माना गया है। त्रिदेवियों की रूप व्यवस्था तो सर्वथा गुणों के अनुसार है। त्रिदेवों में उत्पादक को राजस, पालक को सात्विक और संहारक को तामस गुणों का नियंत्रक कहा गया है।
तामसी प्रकृति जगत् का उपादान है, फिर भी उसक भीतर राजस और सात्विक अंत: करणादि होते हैं। तमोलेशानु विध्द सत्वप्रधान अविद्या में भी तमोरज आदि के तारतम्य से उत्कर्षापकर्ष होता है, वैसे ही विशुध्द सत्वप्रधान विद्या या माया में भी सात्विक, राजस, तामस भेद होते हैं। उसी भेद से ब्रहमा, विष्णु आदि बनते हैं। यह ईश्वर कोटि है, इनकी उपाधिमाया है, वह विशुध्द सत्वप्रधाना होती है, फिर भी उत्पादक में रज, पालक में सत्व और संहारक में तम का अंश रहता है।
रज की हलचल और सत्व की ज्ञानशक्ति ही सृष्टि कर सकती है, इसीलिए ब्रहमा की पत्नी सरस्वती से सृष्टि होती है। तम की रूकावट से और रज की हलचल से पालन होता है, अतएव विष्णु पत्नी लक्ष्मी से पालन होता है। सत्व के प्रकाश एवं तम के अवष्टम्भ से संहार होता है, अत: शिव पत्नी गौरी से संहार होता है।
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