उभरती हुई विश्व व्यवस्था और भारतीय सिनेमा
दुनिया की वे अर्थव्यवस्थाएं जिन्होंने अमेरिकी सिध्दांत नहीं माने (चीन,लैटिन अमेरिकी देश, भारत) वे कभी भी इस तरह की मंदी में नहीं फंसी और न ही वर्तमान में किसी प्रकार के संकट का सामना कर रही हैं। ऐशियन टाइगर्स (इंडोनेशिया, मलेशिया, थाइलैंड, दक्षिण कोरिया, जापान), मैक्सिको व अर्जेटिंना रियल स्टेट की गिरावट व विज्ञापनों के प्रचार के प्रलोंभनों के शिकार होने के कारण अल्पावधि की पूंजी दीर्घकालीन योजनाओं के लिए कर्ज के तौर पर लेने की गलती के कारण तथा अपने विकास का जरूरत से ज्यादा आकलन करने अैर अमेरिका को निर्यात बढ़ाने के कारण फंसते चले गए। भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान सभी आर्थिक, राजनीति और सैन्य रूप से अमेरिका के ''सुरक्षित जबड़े'' में पहुंच गए हैं। इसलिए अगले महीने दिल्ली में होने वाला सार्क सम्मेलन नव कट्टरपंथी वैश्विक विचारधारा के इस क्षेत्र में मजबूत होने का ही एक आयोजन होगा। आश्चर्य यह है कि सी. पी. एम. वाले भी यू. पी. ए. सरकार द्वारा संचालित इस अमेरिकी वर्चस्व को फैलाने में बराबर के भागीदार हैं। क्या प्रकाश कारत और सीताराम याचुरी भारत के ''गोर्वाचोव और येल्तसिन'' हैं जिन्हें सर्र्वहारा हित की जगह अमेरिकी हित के साथ खड़ा होने का फायदा समझ में आ गया हैं। सी. पी. एम. के विरोध में नक्सलवादी उठ रहे हैं। जनवरी - फरवरी 2007 में झारखंड - उड़ीसा के सीमावर्ती जंगलों में दक्षिण एशिया के माओवादी नेतृत्व का सम्मेलन हुआ। इसमें भारत के 16 राज्यों के करीब एक सौ माओवादी नेताओं ने हिस्सा लिया। इनके अलावे नेपाल के तीन और बांग्लादेश व फिलीपींस के एक -एक माओवादी नेता इसमें शामिल हुए। इसमें भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के खिलाफ आंदोलन तेज करने के लिए पीपुल्स लिबरेशन आर्मी और सी. पी. आई. (एम) के सैनिक दस्ते को मजबूत करने से लेकर नए कैडरों को इस आंदोलन से जोड़ने का संकल्प लिया गया है। गुरिल्ला लड़ाई के साथ - साथ मोबाइल युध्द की रणनीति भी इस सम्मेलन में बनाई गई, जिसके सहारे शहरी इलाकों को निशाना बनाया जाएगा। ये लोग आंध्र में तेलांगना, महाराष्ट्र में विदर्भ और उड़ीसा में कोसल राज्य के गठन के पक्ष में हैं। ये मानते हैं कि छोटे राज्य उनके आंदोलन का मुकाबला नहीं कर पाएंगे और इससे उन्हें उपमहाद्वीप में कम्युस्टि राज स्थापित करने में आसानी होगी। माओवादी विचारधारा एवं कोऑड़िनेशन कमिटि ऑफ माओइस्ट पार्टिज एण्ड़ आर्गनाइजेशन ऑफ साउथ ऐशिया तथा अलकायदा एवं जेहादी इस्लाम अमेरिकी वर्चस्व के खिलाफ कम से कम ऐशिया में कम से कम साउथ ऐशिया में काफी व्यवस्थित प्रतिरोध की तैयारी कर रहे हैं। इनके बीच आज - न - कल समझौता हो जायेगा। चीन और पाकिस्तान इन्हें प्रयत्क्षया परोक्ष समर्थन देते रहेंगे। 1991 से ईसाई भारत को तृतीय विश्वयुध्द का रणक्षेत्र बनाना चाहते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप युध्द स्थल में बदल रहा है। इराक के बाद ईरान फिर भारत। अफगानिस्तान बनाम नेपाल। पाकिस्तान बनाम श्रीलंका। बंगलादेश बनाम उत्तारपूर्व। अमेरिकी वर्चस्व बनाम जेहादी इस्लाम एवं माओवादी। अंत में भारत में फाइनल खेला जायेगा। चीन इस फाइनल युध्द का उसी तरह दर्शक होगा जैसा अमेरिका द्वितीय विश्वयुध्द का दर्शक था। दोनों विश्वयुध्दों के बाद अमेरिकी सिनेमा और अमेरिकी सेना ने यूरोपीय सपनों को बेदखल किया था। भारत को इस स्थिति का पहले भी अनुभव था। गांधीयुग (दूसरे विश्वयुध्द के समय) और विनोबा - जयप्रकाश युग (नक्सलबाड़ी से इमरजेंसी तक) में। अब तीसरा मौका आया है। हिन्दी सिनेमा ने तीसरा रास्ता को मजबूत किया था। इस बार भी भारतीय सिनेमा की भूमिका जमीनी लड़ाई से ज्यादा महत्वपूर्ण होगी। प्रिंट मीड़िया एवं टी. बी. को अमेरिकी बाजारवाद जीत चुका है। लड़ाई सिनेमा और कम्युनिटी रेड़ियों के स्तर पर ही हो सकती है। जिस तरह सेना के सामान का प्रजातांत्रिक इस्तेमाल हो रहा है ठीक उसी तरह सिनेमा एवं कम्युनिटी रेड़ियो के तकनीक का भी होगा। आज अमेरिकी सेना के सामान जेहादी इस्लाम और माओवादी गुरिल्लों के पास भी उसी प्रजातांत्रिक विरासत की तरह उपलब्ध हैं। अखबार, पत्रिकाओं तथा टेलीविजन पर अमेरिकी बाजारवाद, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापन एवं पूंजी के खेल जेहादी इस्लाम एवं माओवादियों या अन्य प्रतिरोधियों के लिए पहुंच के बाहर हो गई हैं। अलजजीरा का भी सीमित रणनीतिक महत्व है। चीनी टी. वी. पर भी अमेरिकी वर्चस्व के खिलाफ सफल प्रतिरोधी कार्यक्रम नहीं चलाया जा सकता। लेकिन हैंडीकैमरा से डी. वी. डी. मार्केट एवं एकल ठठिया सिनेमा हॉल के लिए स्थानीय लेखकों - कलाकारों, तकनीक शिल्पियों की मदद से 12 से 25 लाख में फिल्में बनाई जा सकती हैं। 10 से 15 लाख में प्रभावी कम्युनिटी रेड़ियों चलाया जा सकता है। इसके लिए तकनीक एवं शिल्प, पध्दति एवं उपकरण् सब उपलब्ध है। उससे भी ज्यादा सरलता से उपलब्ध है जितना सरलता से जेहादी इस्लाम एवं माओवादियों को मारक हथियार उपलब्ध हैं। जरूरत केवल थेड़ी ट्रेनिंग और थोड़ी ओरिएंटेशन प्रोग्राम चलाने की है। पूंजी एवं तकनीक के डर से युवकों - युवतियों को मुक्त करने की है। गांधी के हिन्द स्वराज में इसके लिए सूत्र एवं सिध्दांत उपलब्ध हैं। केवल गांधी का उदाहरण अप्रासांगिक मान लिया गया है। चरखा का उदाहरण या सूत काटने का उदाहरण लोकप्रिय नहीं हो पाया। नई पीढ़ी को यह आकर्षित नहीं कर पाया। यहां गांधीजी से चूक हुई। वे समय से पहले यह बात कह गए। चरखा वामनावतार का तीसरा पग हो सकता है। पहला पग तो कैमरा को सकता है। बुनियादी शिक्षा में चरखा नहीं चल पाया परंतु कैमरा और फिल्म निर्माण या कम्युनिटी रेड़ियो चल सकता है। एक वाचिक परम्परा वाला देश जब सदियों की गुलामी से मुक्त होता है तो आप चरखा नहीं पकड़ा सकते, हल नहीं पकड़ा सकते। आप कैमरा पकड़ा सकते हैं, कम्पयुटर पकड़ा सकते हैं। माइक पकड़ा सकते हैं। कलम नहीं पकड़ा सकते। गांधीजी लोक के जानकार थे परंतु शास्त्र रचने लगे। गांधीजी व्यवस्थित रूप से शास्त्र के जानकार नहीं थे। सैध्दांतिक रूप से वे न अपने यहां का शास्त्र पढ़ पाये थे, न पश्चिम का। फलत: उनसे एक छोटी सी गलती हो गई। वे कालवाह्य उदाहरण से सनातन धर्म एवं सनातन सत्य को स्थापित करने की गलती कर बैठे। उनक शिष्यों ने गांधीजी को अपनी समस्या नहीं बतलाकर और भी ज्यादा अनर्थ किया और वे गांधीजी से कटते चले गए। लेकिन गांधीजी से कट कर यह देश तरक्की नहीं कर सकता। गांधीजी से संसद बनये बिना वह सदियों की गुलामी से मुक्त नहीं हो सकता। गांधीजी हमारी अवचेतन को मुक्त करने के लिए भगीरथ जैसे प्रयारस करते रहे। केवल सिनेमा वालों ने गांधी के महत्व को ठीक तरीके से प्रस्तूत करना जारी रखा। 1921 के बाद के भारतीय सिनेमा पर गांधीजी का प्रभाव थोड़े - बहुत कालविरोध के बावजूद आज तक जारी है। लगे रहो मुन्नाभाई हो या स्वदेश, वीरजारा हो या विवाह, नया दौर हो या मदर इंडिया, दुश्मन हो या दो आंखे बारह हाथ जैसी फिल्मों पर गांधीजी के हिन्दस्वराज में वर्णित स्वराजी विमर्श की छाया किसी न किसी रूप में दिख ही जायेगी।
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