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लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067
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वर्तमान राजनीति की दिशा
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वर्तमान राजनीति की दिशा
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मई 2009 के लोकसभा चुनाव जीतने से पहले कांग्रेस दिल्ली और राजस्थान जीत चुकी थी। लोकसभा चुनाव के साथ आंध्रप्रदेश जीत चुकी थी। अब उसने दिल्ली की तरह महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव तीसरी बार जीत लिया है। साथ ही हरियाणा में और अरूणाचल में भी इसकी सरकार दुबारा बन गई है। लोग अब कांग्रेस के पुनरोदय की बात करने लगे हैं। कुछ लोगों को लग रहा है कि 1977 से कांग्रेस ने जो जमीन गैर - कांग्रेसवादी गठबंधन के चलते खोया था वह 2009 के आसपास दुबारा वापस पा लिया है। अब एक बार फिर 1947 से 1977 की तरह कांग्रेस भारतीय राजनीति में सोनियागांधी के नेतृत्व में अपना कायाकल्प कर लिया है। जबकि 1977 से 2009 तक विपक्षी दलों के गठबंधन के अंतर्विरोध और सांगठनिक पकड़ के चिथड़े बिखर गए और आज ऐसा लगता है कि कांग्रेस 2014 में पुन: चुनाव जीतेगी और राहुल ब्रिगेड़ का शासन आरंभ होगा। उस ब्रिगेड़ में दिग्विजय सिंह एकमात्र अनुभवी नेता होंगे। राजीव ब्रिगेड़ में कई कद्दावर नेताओं की परोक्ष भूमिका था - नरसिंह राव, अर्जुन सिंह, एन. डी. तिवारी, शरद पवार, पी. चिदम्बरम, सुमन दुबे की तुलना में राहुल ब्रिगेड़ बच्चा पार्टी है। भारत के जटिल सभ्यतामूलक समाज को कायम रखते हुए वैश्विक चुनौतियों का सामना करना इनके लिए आसान नहीं होगा।
दूसरी ओर विकल्प नहीं है। केन्द्र में सक्षम विपक्षी पार्टी नहीं है। राज्यों में राजनीतिक दलों की दृष्टि राष्ट्रीय न होकर क्षेत्रीय एवं जातिगत है। विचारधारा के स्तर पर कांग्रेस एकमात्र मध्यमार्गी पार्टी बची है। बिना विचारधारा के गोंद के सत्तालोलुप गठबंधन टिकते नहीं हैं। गैर - कांग्रेसवादी 1967 से मात्र एक नारा है। गैर - कांग्रेसवादी गठबंधन का सैध्दांतिक आधार नहीं रहा है। विपक्ष बंटा रहता है तो 30 - 33 प्रतिशत वोट लाकर कांग्रेस सत्ता में वापिस आ जाती है। कांग्रेस नहीं जीतती सैध्दांतिक विकल्पहीनता के कारण बंटा विपक्ष हार जाता है। महाराष्ट्र के चुनाव में कमर तोड़ महंगाई को रोकने में नाकामी, विदर्भ में किसानों की आत्महत्या और आतंकवाद पर दस साल से जमा हो रही नाकामियों के बावजूद दो कांग्रेसों के गठबंधन के मुकाबले शिवसेना - भाजपा गठजोड़ का प्रदर्शन अपने इतिहास में सबसे खराब साबित हुआ। हरियाणा में चौटाला के लोकदल और भाजपा का गठबंधन टूटना सही वक्त पर सही निर्णय नहीं ले पाने का प्रमुख उदाहरण है। देश भर में हर जगह गठजोड़ बनाकर चलने वाली भाजपा हरियाणा में अकेले चुनाव लड़ने का आत्मघाती फैसला नहीं करती तो हरियाणा में कांग्रेस की हार तय थी।
शिवसेना का उभार 1960 के दशक में शुरू हुआ था। मराठी राजनीति अस्मिता के इस आक्रामक और हिंसक प्रयोग को कभी छिपी और कभी खुली शह देकर कांग्रेस ने वामपंथी प्रभाव वाले श्रमिक आंदोलन का शिकार किया था। कितनी विचित्र बात है कि महाराष्ट्र में कांग्रेस की जीत में उन शक्तियों का निर्णायक हाथ है, जो शिवसेना आंदोलन के गर्भ से निकली हैं। चाहे वे कांग्रेस के बाहर सक्रिय राज ठाकरे हों, या फिर कोंकण पर प्रभाव रखने वाले नारायण राणे हों या किसी जमाने में ठाकरे के दाएं हाथ रहे छगन भुजबल हों। महाराष्ट्र की शुगर लॉबी अब भी शरद पवार के साथ है। संभव है कि शरद पवार की मृत्यु के बाद राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का सोनिया कांग्रेस में विलय हो जाए। मूपनार की मृत्यु के बाद उनकी पार्टी का कांग्रेस में विलय हो ही चुका है। कांग्रेस के पास अपना मास - बेस विकसित करने का कोई सक्षम नीति, एजेंडा या सक्षम नेतृत्व नहीं रहा है। आंध्र में राजशेखर रेड्डी एक अपवाद थे। पंजाब में भी अकाली दल और शिरोमणी गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी के प्रभाव को तोड़ने के लिए कांग्रेस ने भिंडरावाला को खड़ा किया था। राजीव गांधी की सरकार ने ही रामजन्मभूमि का ताला खुलवाया था और शाहबानो प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को संसद में कानून बनाकर निरस्त किया था। स्वतंत्रता आंदोलन की जमापूंजी धीरे - धीरे छीजती रही है। दलित, मुसलमान और ब्राहमण कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक थे। दलित और ब्राहमण आज उत्तर प्रदेश में बसपा के साथ हैं। पिछड़े और राजपूत सपा के साथ हैं। पहले मुसलमान सपा और बसपा में बंटे हुए थे। आज मुसलमान कांग्रेस के साथ जुड़ने लगे हैं लेकिन दलित, पिछड़े और सवर्ण अब भी कांग्रेस के साथ नहीं हैं। बिहार में भी अभी कांग्रेस का कोई ठोस वोट बैंक नहीं है। हरियाणा में चौटाला, बिहार में लालू - पासवान एवं नीतीश, यू. पी. में मायावती और मुलायम 2014 तक एक राजनीतिक फोर्स बने रहेंगे। कांग्रेस का पुनरोदय होना अभी आसान नहीं है। यू. पी. ए. की सरकार 2014 में तीसरी बार भी बन सकती है, लेकिन अकेले कांग्रेस की सरकार बनना मुश्किल है। उलटे कांग्रेस की सीट घट सकती है। समस्या कांग्रेस की नीयत और नीतियों के साथ है। कांग्रेस वंशवादी पार्टी भर नहीं है, तदर्थवादी नीतियों और जोड़ तोड़ में विश्वास करने वाली कामचलाऊ सरकार चलाने वाली पार्टी है। यह पार्टी आम - आदमी की परवाह नहीं करती। भारत को महाशक्ति बनाने का इसके पास कोई स्वप्न नहीं है। इसके पास दूरगामी नीतियों का अभाव है। भूमिपतियों और पूंजीपतियों के बारे में भी कांग्रेस की कोई स्पष्ट नीति नहीं है। राष्ट्र- निर्माण में इनकी भूमिका के बारे में कांग्रेस दिग्भ्रमित है। पूंजीपति या भूमिपति किसी भी देश में बहुसंख्यक नहीं होते लेकिन व्यवस्था पर उनका काफी प्रभाव होता है। उनकी राष्ट्र - निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। महात्मा गांधी के सर्वोदय की विचारधारा इस समय गैर - कांग्रेसवाद की सबसे उपयुक्त विचारधारा हो सकती है। विश्वग्राम में गांधी की नीतियों को पकड़ कर ही भारत अपनी 120 करोड़ जनता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करते हुए एक शांतिपूर्ण एवं खुशहाल विश्वग्राम के अभ्युदय में अपनी निर्णयकारी भूमिका निभा सकता है। गांधी की बुनियादी शिक्षा और स्वराजी शिक्षा की अवधारणा के तहत प्रतिभा को तराशने का अनोखा प्रयोग किया जा सकता है। खासकर सैध्दांतिक विज्ञान एवं विषयों की शिक्षा के बारे में गांधीवादी नीतियों से बेहतर नीति इस बाजारवादी समय में नहीं हो सकती।
बाजारवाद के इस दौर में सैध्दांतिक विज्ञान एवं विषयों में शिक्षा बड़ी कमाई का माध्यम नहीं हो सकती। छात्र तकनीकी विषयों - इंजीनियरिंग, सूचना विज्ञान, प्रबंधन, चिकित्सा आदि की ओर लपकते हैं। नोबेल पुरस्कार प्रौद्योगिक नबीनीकरण के लिए नहीं मिलते और न चिकित्सा में व्यक्तिगत हुनर के लिए मिलते हैं। नोबेल पुरस्कार किसी ऐसे अनुसंधान पर दिया जाता है, जिससे वैज्ञानिक सोच को दिशा मिले, विज्ञान के किसी नए सिध्दांत का प्रतिपादन हो, कोई वैज्ञानिक गुत्थी सुलझ जाए, कोई प्राकृतिक समस्या या पहेली का हल निकल आए। ऐसे सभी अनुसंधानों में तकनीकी क्षमता के साथ- साथ सैध्दांतिक समझ का होना आवश्यक है।
हमारे देश में बाजार के हावी होने के कारण सैध्दांतिक शिक्षा का बाजार भाव बहुत कम है। सरकारी स्तर पर बड़ी प्रयोगशालाएं या अनुसंधान संस्थाएं या तो नौकरशाही के चंगुल में फंसी हैं या दिशाहीन होकर निष्क्रिय हो चुकी हैं। दूसरी ओर निजी उद्योग अनुसंधान के प्रति उदासीन हैं। निजी उद्योगों में बड़ी और आधुनिक प्रयोगशालाओं का सर्वथा अभाव है। भारत में मौलिक और सैध्दांतिक अनुसंधान के अवसर ही बहुत कम हैं और जो हैं, उनमें अनुसंधान के क्षेत्र चुनने की सुविधाएं नहीं के बराबर हैं। जवाहरलाल नेहरू और शांति स्वरूप भटनागर ने वैज्ञानिक अनुसंधानशालाओं की श्रृंखलाएं बनाने का सपना देखा ही नहीं। विभिन्न क्षेत्रों में काम करने की सुविधा हमारे देश में आसानी से उपलब्ध नहीं है। अधिसंख्य छात्र आज व्यापारिक और प्रौद्योगिक विषयों की ओर ही जाते हैं और जिन्हें वहां जगह नहीं मिलती, वे ही सैध्दांतिक विज्ञान का रास्ता लेते हैं। व्यापार और प्रौद्योगिकी हर देश में अधिकतर छात्रों की पसंद होती है, क्योंकि इसका संबंध सीधे -सीधे बाजार से होता है, लेकिन विकसित देशों में मूल - विज्ञान की ओर जाने वाले छात्र दोयम दर्जे के नहीं होते, पहले दर्जे के प्रतिभाशाली छात्र ही होते हैं। मौलिक अनुसंधान के क्षेत्र में हम आज भी पश्चिम से लगभग आधी सदी पीछे हैं। चिंता की बात यह है कि मौलिक अनुसंधान में जो भारतीय लगे हुए हैं उनके सामने अनिश्चित भविष्य का खतरा मंडराता रहता है। फलस्वरूप डा. खुराना से लेकर वेंकटरमन रामकृष्णन तक की पीढ़ी को प्रारंभिक प्रशिक्षण के बाद पश्चिम में ही जाना पड़ा है। इस स्थिति को बदलने के लिए हमारे नेतृत्व में न तो इच्छाशक्ति दिखाई देती है और न ही कल्पनाशीलता। भारतीय राजनीति की वर्तमान दिशा न तो आम आदमी की बुनियादी जरूरत पूरी करने के प्रति समर्पित है और न ही भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाने के लिए प्रतिभा तराशने के लिए प्रतिबध्द है। महात्मा गांधी के हिन्दस्वराज में भारत की हर समस्या का समाधान है। हिन्दस्वराज गांधी ने नवंबर 1909 के तीसरे सप्ताह में लिखा और यह इंडियन ओपिनियन में 11 और 18 दिसंबर 1909 को छपा। एक पुस्तिका के रूप में इसका गुजराती संस्करण जनवरी 1910 में छपा। बंबई सरकार ने इसे 2 मार्च 1910 को प्रतिबंधित किया। गांधी ने इसका अंग्रेजी अनुवाद इंडियन होम रूल के नाम से मार्च 1910 में छापा। 22. 7. 1910 में भारत सरकार ने अंग्रेजी संस्करण को भी प्रतिबंधित कर दिया। पिछले सौ वर्षों में विश्व में इसकी प्रासंगिकता बढ़ी है। इसका कारण है कि भारत अन्य देशों के लिए एक रोल मॉडेल बन रहा है।
भारत की तुलना में चीन अन्य देशों के लिए एक अनुकरणीय रोल मॉडेल नहीं हो सकता। एक तो उसकी राजनीतिक व्यवस्था अनुकरणीय नहीं है। दूसरे, उसकी भाषा सीखना अन्य देशों के लिए आसान नहीं है। तीसरा, अपनी मानसिकता में चीन खुद को दुनिया का केन्द्र समझता है जिसे मिडिल किंगडम सिंड्रोम कहते हैं। चौथा, जनसंख्या और आर्थिक विकास दर के मामले में हम से आगे होने के बावजूद, संपन्नत सूचकांक 2009 के अनुसार भारत 45 वें नंबर पर है जबकि चीन 75 वें नंबर पर है। संपत्ति और खुशहाली के मेल से परिभाषित वैविश्क संपन्नता सूचकांक में भारत ने चीन को कोसों पीछे छोड़ दिया है। यह सूचकांक दर्शाता है कि देश में लोगों को कितनी स्वतंत्रता हासिल है, उनमें सामुदायिक भावना कितनी प्रबल है और लोकतांत्रिक प्रणाली के साथ सरकार के प्रति एकजुटता कितनी मजबूत हैं। लोकतांत्रिक संस्थाओं के वर्ग में भारत 36 वें स्थान पर है। उसके और चीन के बीच 64 स्थानों का फसला है। इसी तरह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मामले में हम 47 वें स्थान पर हैं जबकि चीन 91 वें स्थान पर है। सरकारी तंत्र पर भरोसे के मामले में भारत चीन से 52 स्थान आगे यानि 41 वें स्थान पर है। लोगों के एक दूसरे पर भरोसे और आपसी मदद का पयार्य मानी जाने वाली सामाजिक पूंजी के मामले में भारत दुनिया में पांचवे पायदान पर जगह मिली है, जबकि चीन नीचे से तीसरे नंबर पर है।
कुछ समीक्षकों के अनुसार आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरते चीन की 'प्रगति' का एक कारण उसका यौन व्यापार भी है। अरब देशों के साथ दुनिया भर में खोले जा रहे चीनी रेस्त्रां, मसाजक्लब और स्पा की आड़ में बेश्यावृत्ति को बढ़ावा दिया जा रहा है। ब्रिटेन, अमेरिका, और ऑस्ट्रेलिया समेत कई देशों में अचानक सामने आए सेक्स अपराधों के पीछे चीन के इसी अवैध कारोबार को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। चीन और खाड़ी देशों के बीच बढ़ते व्यापारिक संबंधों पर शोध करने वाले अर्थशास्त्री बेन सिफेनडोरकर ने कहा, दोनों देशों के बीच की सांस्कृतिक खाई को देखते हुए यह खतरे का सूचक है। इस कारोबार को संचालित करने वाला भूमिगत चीनी माफिया 'ट्रायड' महिलाओं की तस्करी में भी लिप्त है। यमन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के कई देशों में पिछले दो हफ्ते में कई वेश्यालयों को बंद कर इनके मालिकों को गिरफ्तार किया गया है। ये लोग युवा चीनी महिलाओं को शिक्षकों आदि की नौकरी देने के बहाने सेक्स रैकेट में धकेल देते हैं। विश्व व्यापी मंदी में तीस लाख से ज्यादा चीनी नागरिक केवल उद्योगों में बेरोजगार हुए हैं। चीनी समाज में केवल दस करोड़ लोगों संपन्न हैं जबकि करीब एक सौ पच्चीस करोड़ लोगों की आर्थिक एवं सामाजिक हालत काफी खराब है। चीनी विकास में असंतुलन भारत से बहुत ज्यादा है। कम्युनिष्ट तानाशाही वाली राजनीतिक व्यवस्था में राज्य केन्द्रित पूंजीवादी व्यवस्था अपनाने के अपने खतरे होते हैं। चीनी समाज इसी त्रासदी से गुजर रहा है। एक ओर वह अपनी अर्थव्यवस्था को बाजारी पूंजीवाद की प्रयोग स्थली बनाकर महाशक्ति के रूप में उभर रहा है तो दूसरी ओर नेपाल, भारत और अन्य देशों में माओवादी आंदोलन को संरक्षण देता है। इस परिस्थिति में चीन किसी प्रजातांत्रिक देश का रोल मॉडेल नहीं हो सकता।
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