श्री विष्णु तत्व
विष्लृ धातु से विष्णु शब्द की निष्पत्ति होती है तथा व्यापक परब्रहम परमात्मा को ही विष्णु कहा जाता है। अनन्त कोटि ब्रहमाण्डोत्पादिनी शक्ति में कार्योत्पत्ति के लिए प्रकाशात्मक सत्व, चलनात्मक रज तथा अवष्टम्भात्मक तम की अपेक्षा होती है। ब्रहम ही रज के संबंध से ब्रहमा, तम के संबंध से रूद्र एवं सत्व के संबंध से विष्णु बन जाता है। उत्पादिनी शक्ति विशिष्ट ब्रहम ब्रहमा, संहारिकी शक्ति विशिष्ट ब्रहम रूद्र तथा पालिनीशक्ति विशिष्ट ब्रहम विष्णु बन जाती है। तीनो अन्तर्यामी हैं। अनन्तकोटि ब्रहमाण्डात्मक सम्पूर्ण विश्व के उत्पादक ब्रहमा, पालक विष्णु और संहारक रूद्र सर्वथा एक ही हैं। अनन्त कोटि ब्रहमाण्ड की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलयंकारिणी महाशक्ति ही समपूर्ण शक्तियों की केन्द्र है। उन्हीं शक्तियों से अनन्त ब्रहमाण्ड बनते हैं। प्रत्येक ब्रहमाण्ड की शक्तियों में तम-प्रधान शक्ति से भूत- भौतिक प्रपंच की सृष्टि होती है। तामस भूतों में भी सत्व, रज, तम आदि का अंश रहता है। अतएव सात्विक भूतों से अन्त:करण एवं ज्ञानेन्द्रियाँ, राजस से प्राण एवं कर्मेन्द्रियां उत्पन्न होती हैं। तामस से स्थूल भूत बनते हैं। ब्रहमाण्डशक्ति के जैसे तामस अंश से उपर्युक्त प्रपंच बनाता है, वैसे ही रजस्त मोलेशानुविध्द सत्वांश से अविधा एवं रज आदि से अननुविध्द सत्व से विद्या या माया का आविर्भाव होता है। अविधाएं रज आदि के अनुवेध-वैचित्त्य से अनन्त हैं। अत: उनमें प्रतिबिम्बित चैतन्यरूप जीव भी अनन्त है। जो लोग अविधा को भी एक ही मानते हैं, उनके मत से जीव भी एक ही होता है। विशुध्द सत्वप्रधानाविद्या में भी अशंत: सत्व, रज, तम होते हैं। उसी सत्व प्रधाना शक्ति स्वरूपा विद्या के सात्विक अंश से विष्णु, राजस अंश से ब्रहमा और उसी विद्या के तामस अंश से रूद्र का आविर्भव होता है। महाशक्ति के तम:प्रधान अंश से जड़वर्ग का, अशुध्द सत्वप्रधान शक्ति से मोक्षवर्ग का और विशुध्द सत्वप्रधान शक्ति से महेश्वर का आविर्भाव होता है। महाशक्तिविशिष्ट ब्रहम एक ही है, अत: ब्रहम का ही भोग्य , भोक्ता तथा महेश्वर के रूप में आविर्भाग समझा जाता है। जगत के पालन में सर्वातिशायी ऐश्वर्य की अपेक्षा होती है, अत: विष्णु भगवान् में परमेश्वर्य का अस्तित्व है। समग्र ऐश्वर्य, समग्र धर्म, समग्र यश, समग्र श्री, समग्र ज्ञान, समग्र वैराग्य जिसमें हों, वही भगवान् हैं, अथवा प्राणियों की उत्पत्ति, प्रलय, गति, आगति, विद्या, अविद्या को खूब जानने वाला ही भगवान् है। विश्व-मात्र को फलित- प्रफुलिलत करना, उनेक ऐश्वर्य से पूर्ण करना पालक का काम है। इसीलिए विष्णु भगवान् में पराकाष्ठा का ऐश्वर्य पाया जाता है। माया, सूत्रात्मा, महान्, अहंकार, प्रञ्चतन्मात्रा, ग्यारह इन्द्रियाँ, पंच महाभूत इन षोडश विकारों के साथ महाविराट् भगवान् का स्थूल रूप है। भगवान् के उसी सातिवक रूप में तीनों भुवन प्रतिभासित होते हैं। यही पौरूष का रूप है। भूलोक ही इस पुरूष का पाद है। द्यौलोक ही शिर है, अन्तरिक्ष लोक ही नाभि है, सूर्य्य नेत्र, वायु नासिका, दिशाएं कान, प्रजापति प्रजेनेन्द्रिय, मृत्यु पायु (गुदा), लोकपाल बाहु, चन्द्रमा मन और यम ही भगवान् की भृकुटी है। लज्जा भगवान का उत्तरोष्ठ है, लोभ अधरोष्ट है, जयोत्सना दन्त है, माया ही मन्दहास है, सम्पूर्ण भूरूह (वृक्षादि) लोम हैं, मेघ केश हैं। तम की उपाधि से उपहित, तम के नियामक भगवान् शिव का वर्ण श्यामल है। उन्हीं का ध्यान करते-करते विष्णु श्यामल हो जाते हैं। विष्णु का ध्यान करते-करते उनका स्वाभाविक शुक्ल रूप शंकर में प्रकट हो जाता है। ये दोनों ही परस्परानुरक्त एवं परस्परातमा हैं। युग के अनुरूप भी युगनियामक भगवान् का रूप होता है। जैसे मनुष्यों का नियमन के लिए भगवान् को मनुष्यानुरूप बनना पड़ता है, वैसे ही युगनियमन के लिए भगवान् को युगानुरूप बनना पड़ता है। सत्वप्रधान कृतयुग, रजोमिश्रित सत्वप्रधान त्रेता, रज: प्रधान द्वापर और तम:प्रधान कलियुग होता है। अत: कृतयुगीन भगवान् शुक्ल रूप में प्रकट होते हैं। त्रेता के अनुरूप भगवान् का रक्तरूप है, द्वापर के अनुरूप पीत एवं कलि के अनुरूप भगवान् का कृष्ण रूप होता है।
|