Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

योग एवं भोग

योग एवं भोग

 

सनातन धर्म एवं संस्कृति के दायरे में युग-निरपेक्ष लेखन ही टिकता है। युग-सापेक्ष लेखन को युग खा जाता है। कालजयी रचना युग-निरपेक्ष ही होती है।

सनातन वैदिक ज्ञान किसी भी युग को समझने की दृष्टि तथा चेतना देता है। यह कभी भी अप्रासंगिक नहीं होता। इसको प्रासंगिक बनाने की जरुरत ही नहीं है। यदि  ऋचाएं आपको सुपात्र समझ कर खुलती हैं तो आपके पास अपने आप शक्ति आएगी । आप अपने आप शक्तिमान बन जाएंगे। भोगने के लिए शुद्र होना जरुरी है। योगने के लिए तपस-ब्राहमणत्व जरुरी है। यह biological- नैसर्गिक evolution- devolution - (आरोहण अवरोहण) का मामला है। जिसका नैसर्गिक झुकाव मोक्ष-कैवल्य-निर्वाण के प्रति है वह अपने आप धीरे-धीरे नपुंसक (सृजन की नवीन प्रक्रिया से दूर) होते चला जाएगा। जिसका नैसर्गिक झुकाव-सृजन-शक्ति-समृध्दि-भोग के प्रति है वह अपने आप सतोगुण से विरत और तमोगुण में रत हो जाएगा। जिसमें गति नहीं है वह स्थिति हो जाएगा। जिसमें स्थिति है उसमें गति नहीं होगी। नदी एक मात्र अपवाद है जिसमें गति और स्थिति एक साथ है।

कुछ भी बनने या करने के लिए अपनी हद में, अपनी सीमा में, अपने स्वभाव में, अपने स्वभाव स्वधर्म में स्थित होना जरुरी है। आपको जो भी मिलता है वह आपके कर्म का ही फल होता है। इसका क्रियामान या क्रियाथील कर्म होना जरुरी नहीं है। संचित कर्म फल ही प्रारब्ध है।

कोई भी युग हो, कोई भी देश-काल-परिस्थिति-भाषा-विमर्श हो, as a whole, यह एक  sui- generis divine play (दैवीय लीला) का ही manifestation होता है और इस लीला के अनुरुप ही अपनी स्व-भाविक भूमि को तलाशनी पड़ती है। इसमें moral-ethical dilemma भी सामना करना पड़ता है। इसमें आप अपनी सीमा में जितना universalistic (सार्वभौमिक) सोच सकते हैं अवश्य सोचिए। लेकिन भूमिका आपकी local (स्थनीय) ही हो सकती है। और इसमें आपका वास्तव में कोई competitor नहीं होता है।

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