Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय परंपरा के समकालीन प्रवक्ता

भारतीय परंपरा के समकालीन प्रवक्ता

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भाग 3

महात्मा गांधी भी इसके अपवाद नहीं थे। उन्होंने कई बार (साउथ अफ्रीका में भी और भारत में भी) सांसारिक युक्ति को अपने नीति-सिध्दांतों के ऊपर वरीयता दी। साथ हीं अपनी सनातनी आस्थाओं एवं सिध्दांतो को बौध्दिक रूप से आकर्षक एवं युगानुकूल ठहराने के लिए एवं आधुनिक पश्चिम के मानदंडों पर वैधाता प्राप्त करने के लिए उन्होंने रस्किन, थोरो, टाल्सटाय एवं कारपेंटर जैसे विद्वानों को अपना गुरू तथा प्रेरणास्रोत बताया। लेकिन पश्चिम के इन परंपरावादी ईसाई तत्वचिन्तकों जैसी सुसंगत वैचारिक प्रतिबध्दता एवं मतवाद गांधीजी में खोजने से भी नहीं मिलता। वे अपने व्यवहारों को सिध्दांत या मत के आधार पर नियंत्रित नहीं करते थे। उनके व्यवहारों को समझने का सूत्र उनकी तात्कालिक प्रेरणा/मनोवेग (मोटिव) और लक्ष्य की पूर्ति के लिए सबसे उपयुक्त युक्ति के बारे में उनकी तात्कालिक समझ एवं उनकी सनातनी आस्थाओं में खोजा जा सकता है। परंतु उन्हें अवसरवादी या समझौता परस्त नहीं कहा जा सकता। अवसरवादी या समझौता परस्त लोग कहीं न कहीं अपने प्रतिद्वंदी से या विपरीत परिस्थितियों से डर कर एक प्रकार के दबाव में समझौता या गठबंधान करते हैं। दूसरी ओर, सनातनी व्यावहारिकतावादी अभय (निर्भय) अवस्था में स्वेच्छा से अपने स्वविवेक के आधार पर बदलती हुई परिस्थितियों का सतत मूल्यांकन करते रहते हैं। इसी बदलते हुए स्वैछिक मूल्यांकन के आधार पर वे स्वविवेक से सांसारिक युक्ति का उपयोग करते हैं। यह सनातन संस्कृति की पारिभाषिक विशेषता है। इसमें नियति के आगे समर्पण और कर्म के सिध्दांत को मानने का भाव भी अंतर्निहित है।

परंतु 1814 के आस-पास राजा राममोहन राय के नेतृत्व में एक प्रकार की अवसरवादी या समझौतापरस्त व्यावहारिकता की वकालत भी भारत में की जाने लगी। अंग्रेजों के मिथक, मानदंड एवं प्रारूप के आधार पर भारतीय समाज एवं संस्कृति को समझने, सुधारने एवं विकसित करने का ''महान कर्म'' पढ़े-लिखे भारतीयों का सामाजिक पुरूषार्थ बनने लगा तथा एक नये प्रकार का वैचारिक एवं तात्तिवक ढुलमुलपन पढ़े-लिखे भारतीयों में लोकप्रिय होने लगा। इस नयी प्रवृति का विकास आधुनिक यूरोप के ज्ञानोदय (एनलाइटेन्मेंट) एवं ब्रिटिश साम्राज्य की भारतीय नीतियों से प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होने के बावजूद तत्कालीन भारत के वैचारिक संघर्षों से भी कहीं न कहीं जुड़ा हुआ था।

मधयकालीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास में हिन्दू समाज के सामने तुलसीदास ने पारंपरिक दृष्टिकोण का एक पक्ष प्रस्तुत किया। उनसे पहले कबीरदास एक दूसरा पक्ष प्रस्तुत कर चुके थे। तुलसीदास के बाद समर्थ रामदास ने एक तीसरा पक्ष प्रस्तुत किया तीनों पक्षों को विस्तार से समझने के लिए कई स्रोतों से तथ्य संग्रह करना पड़ेगा और भारतीय विश्वविद्यालयों में आजकल प्रचलित मानदंडों का अतिक्रमण करना पड़ेगा। संक्षेप में, कबीरदास निर्गुण भक्ति एवं निवृत्तिा मार्ग के प्रवक्ता थे। तुलसीदास सगुण भक्ति एवं प्रवृत्तिामार्ग के प्रवक्ता थे। समर्थ रामदास ने दोनों प्रकार की भक्ति एवं दोनों प्रकार के मार्ग का समन्वय करने का प्रयास किया था। तुलसीदास की परंपरा के सबसे प्रमुख व्याख्याकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल माने जाते हैं। कबीर की परंपरा से महात्मा गांधी और बाबा साहब अम्बेडकर दोनों ने प्रेरणा ग्रहण किया। समर्थ रामदास की परंपरा शिवाजी महाराज से शुरू होकर राणाडे, सावरकर, मुँजे और मालवीय तक सीमित नहीं थी बल्कि यह कहीं न कहीं बंगाल नवजागरण के अधिाकांश हिन्दू चिंतकों को भी प्रेरित करती रही थी। उदाहरण के लिए कांग्रेस के सुरेन्द्रनाथ बनर्जी जैसे कुछ मशहूर नरमपंथी नेता अंग्रेजी राज के बरकत के गीत गाते-गाते स्वदेशी आंदोलन के दौरान मैनचेस्टर के कपड़े और लिवरपूल के नमक का बहिष्कार करने का आग्रह करने लगे। उन्होंने कुछ अधिाक संकोच के साथ हीं सही, राष्ट्रीय शिक्षा के आंदोलन में भी भाग लिया। आम हिन्दुओं को आकृष्ट करने के उद्देश्य से विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार आंदोलन को धार्मिक रंग देने के प्रयत्नों को भी नरमपंथी नेताओं का समर्थन मिला। बाद में मगरा के मंदिर के प्रांगण में भाषण देते हुए सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने तो यहाँ तक दावा किया कि स्वदेशी धार्मिक प्रतिज्ञा की पूरी कल्पना उन्हीं की देन थी। कुछ बड़े से बड़े नरमपंथी नेताओं ने युवा आतंकवादियों के प्रथम दल को चोरी-छिपे आर्थिक सहायता और अपना आर्शीवाद भी दिया था।

समकालीन हिन्दुओं में पाया जाने वाला रणनीतिक व्यावहारिकता का पहला सैध्दान्तिक आधार संभवत: समर्थ रामदास ने विकसित किया था। समर्थ रामदास ने एक ओर तो दासबोधा नामक अपने ग्रंथ में बार-बार मूर्तिपूजा का निषेधा किया है, वह भी काफी कठोर शब्दों में; दूसरी ओर भक्ति मार्ग के तहत मूर्तिपूजा से ईश्वर साक्षात्कार करके द्वैत से अद्वैतानुभव की मुक्ति भी बतलाई। एक ओर वे ब्रह्म को सत्य एवं जगत् को मिथ्या कहते हैं तो दूसरी ओर वे यह कहते हैं कि चरम सत्य विश्व में भी व्याप्त है। वे राम से रहित विश्व को असत्य तथा राम से युक्त विश्व को सत्य मानते हैं। वे साधाक को यह छुट देते हैं कि वह अपनी रूची तथा प्रवृत्तिा के अनुसार साधाना मार्ग का चयन करे। वे बहुत दृढ़ता से कहते हैं कि परमात्मा को प्राप्त करने का मार्ग साधाक के हाथ में हीं है। यदि साधाक की साधाना में गहराई है तो भव सागर को लांधाने के लिए माया नौका बन जाती है। मनुष्य मात्र का उध्दार माया की सहायता लिये बिना हो हीं नहीं सकता। ज्ञान मुक्ति का प्रमुख साधान है किंतु स्वयं ज्ञान विद्यामाया का ही एक उत्कट आविष्कार है। पाँच भौतिक तत्तवों का जो विकास विश्व में दिखाई देता है, वह वस्तुत: माया का ही विकास है। अधयात्म का अर्थ ही है माया तथा ब्रह्म के स्वरूप का ज्ञान। बिना साधाना के सामान्यत: ब्रह्म ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता और सद्गुरू की कृपा से अगर वह प्राप्त हो भी गया तो भी उसे बनाये रखने की दृष्टि से साधाना आवश्यक है। साधाना में परिपूर्णता लाने के लिए भक्ति की आवश्यकता है। समर्थ रामदास खुद मूर्तिपूजक थे और उन्होंने दूसरों को भी मूर्ति-पूजा करना सीखाया। एक विकट एवं विपरीत समय में उन्होंने नवीन देवालयों के निर्माण्ा एवं मूर्ति-स्थापना को उत्सव के रूप में शुरू की। उन्होंने देवालयों के गर्भगृह में राम, सीता व लक्ष्मण की मूर्तियों को स्थापित किया परंतु हनुमान की मूर्ति गर्भगृह में स्थापित न करके मंदिरों के बाहर कहीं भी स्थापित करने की एक नई परंपरा शुरू की और इस प्रकार उन्होंने गर्भगृह की अवधारणा हीं बदल दी। उन्होंने यह भी स्थापित किया कि राम की भक्ति करना या राम के दास की भक्ति करना दोनों का फल ब्रह्म-साक्षात्कार जैसा है। उन्होंने ग्यारह मारूति की स्थापना का उत्सव शुरू किया। उन्होंने ग्यारह सौ मठों में प्रशिक्षित महंतों को स्थापित किया और उन्हें व्यक्तिगत मोक्ष के बदले सामाजिक मुक्ति का पुरूषार्थ करना सिखलाया। इन्हीं मठों और महंतों ने उनके शिष्य शिवाजी महाराज के राजनैतिक अभियानों को संबल दिया। उनकी मान्यता थी कि जबतक स्वराज व तदंतर सुराज्य स्थापित नहीं हो जाता तब तक नैतिक और परमार्थिक शिक्षा देना सुगम नहीं होगा। मधयकालीन दुर्दशा के लिए वे विदेशी आक्रांताओं की तुलना में इस देश के निवासियों खासकर क्षत्रियों के तेज नष्ट होने एवं ब्राह्मणों के अशास्त्रीय ढ़ोंग के बढ़ने की स्थिति को जिम्मेदार मानते थे। शत्रु से लड़ने के लिए गुप्त रीति से तैयारी करने एवं शत्रु की कमजोरी से फायदा उठाते हुए गुरिल्ला युध्द जारी रखने के वे कुशल रणनीतिकार थे। वे शास्त्र और शस्त्र के अधिाकारी आचार्य थे। उन्होंने एक तो सनातनी परंपरा में रूढ़ हो चुके ''गर्भगृह'' की अवधारणा में गुणात्मक रूपांतरण किया और दूसरे अपनी महान कृति  दासबोधा में भक्ति, पुरूषार्थ, नियति और कर्म जैसी सनातनी अवधारणाओं को युगानुकूल स्वरूप प्रदान किया। वे निम्नलिखित क्षेत्रों में समन्वय का प्रयास कर रहे थे - 1. गार्हस्थ्य और परमार्थ, 2. सगुण और निर्गुण, 3. कर्म, भक्ति और ज्ञान, 4. धर्म और राजनीति, 5. विविधा धार्मिक संप्रदायों की सनातनी धारायें, 6. जगत् की सत्यता और असत्यता, 7. भाग्य और पुरूषार्थ, 8. वैयक्तिक उन्नति और सामाजिक उन्नति, 9. विवेक और वैराग्य, 10. उक्ति और कृति, 11. ग्रांथिक ज्ञान और प्रत्यक्ष अनुभव, 12. प्रादेशिक भाषायें, देवनागरी भाषा और संस्कृत, 13. द्वैत और अद्वैत, 14. विभिन्न काव्यशैलियों में अभिव्यक्त सनातनी परंपरायें। इसका पहला राजनैतिक उपयोग शिवाजी महाराज ने किया था। परंतु उसके बाद यह आधुनिक हिन्दू चिन्तकों के सामान्य लक्षण के रूप में फैलता चला गया।

धीरे-धीरे यह भाव हिन्दू मान्यता में विकसित हुआ कि मनुष्य के बनाये सिध्दांत पर अड़ना अथवा लकीर का फकीर होना एक प्रकार का अहंकार है जबकि नियति की इच्छा के आगे झुकना या लचीला रूख अपनाना सांसारिक युक्ति है। सोच-समझ कर या राय-मशविरा कर के बनाये गये सामाजिक सिध्दांतों एवं सांस्कृतिक आदर्शों का सामान्य स्थिति में महत्तव एक हद तक तो स्वीकारा जाता है लेकिन विशेष, विषम एवं विकट परिस्थितियों में हर व्यक्ति अपनी अंतरात्मा की आवाज या ईश्वरीय प्रेरणा के आधार पर निर्णय लेता है अथवा बलिदान देता है। बिना अंतरात्मा की स्वीकृति पाये या ईश्वर द्वारा बिना व्यक्तिगत निर्देश पाये केवल सामाजिक आदर्शों एवं सिध्दांतों पर टिके रहने का उदाहरण हिन्दुओं में कम ही पाया जाता है। किसी राजा या महापुरूष के बदल जाने के बावजूद उनकी प्रजा या उनके अनुयायी हिन्दू समाज में सामान्यतया नहीं बदलते। वे अपने पारंपरिक रीति-रिवाजों पर, अपनी व्यक्तिगत आस्था पर एवं व्यक्तिगत सूझ-बूझ पर बने रहते हैं। पश्चिमी समाज एवं सेमेटिक धर्मों में राजा, धर्मगुरू, महापुरूष एवं शास्त्रीय धर्मग्रंथों पर जैसी आस्था, विश्वास बलिदान करने की तत्परता, उत्साह एवं सामूहिकता ऐतिहासिक रूप से देखने को मिलती है वह हिन्दू समाज में सामान्यतया नहीं मिलती।

भारत के किसी धर्मगुरू, महापुरूष या राजा को कभी यह उम्मीद नहीं रहती कि उनकी समझ, साधाना या दावे को बिना व्यक्तिगत रूप से परीक्षा किये या बिना व्यक्तिगत रूप से अंतरात्मा की साक्षी पाये आम जन, प्रजा या अनुयायी सामूहिक अभियान का आधार बनायेंगे। फलस्वरूप समाजसुधार, धर्मसुधार, धर्म परर्िवत्तान या सांस्कृतिक पुनर्निमाण की प्रक्रिया भारत में सिध्दांतों, विचारधाराओं या दर्शनप्रणालियों के आधार पर नहीं चलती। किसी व्यक्ति का मूल्यांकन उसकी विचारधारा या सिध्दांत के आधार पर सामान्यतया नहीं किया जाता। एक सीमा से ज्यादा सिध्दांतों का महत्तव नहीं माना जाता। व्यावहारिक आदर्श के पालन में एक प्रकार का लचीलापन पाया जाता है जिसका आधार हर व्यक्ति की अपनी समझ, आत्मानुभूति एवं ब्रह्मानुभूति तथा समय-समय पर मिलने वाली अंतरात्मा की आवाज होती है।

यह लचीलापन विश्वामित्र, राम, कृष्ण एवं बुध्द जैसे महापुरूषों में भी देखा जा सकता है। दूसरी ओर हरिश्चन्द्र एवं भीष्म पितामह की सिध्दांतवादिता एवं कठोर प्रतिज्ञा पर विपरीत परिस्थिति में भी कायम रहना एक प्रकार का अपवाद माना जा सकता है। सामान्यतया यह माना जाता है कि भाग्य का संबंधा तो कर्मफल से है एवं अकर्म का फल नहीं होता। जबकि नियति का संबंधा ईश्वर की इच्छा से है। फलस्वरूप विपरीत परिस्थिति एवं असहज विश्व व्यवस्था में भी सांस्कृतिक पहचान एवं सनातनी रीति-रिवाजों को कायम रखते हुए पुरूषार्थ करने की रणनीतिक चतुराई हिन्दू समाज में पीढ़ी-दर-पीढ़ी विकसित की जाती रही है।

उपरोक्त संदर्भ में, आधुनिक भारत के सिध्दांतकार स्वामी विवेकानंदजी माने जा सकते हैं जबकि पारंपरिक भारत के समकालीन सिध्दान्तकार हिन्द स्वराज के सम्पादकजी (गांधीजी) माने जा सकते हैं। दोनों में अंतर्विरोधा नहीं विविधाता है। स्वामी विवेकानंद 'शास्त्र' से 'लोक' की यात्रा करते हैं और हिन्द स्वराज के सम्पादकजी 'लोक' से 'शास्त्र' की यात्रा करते हैं। स्वामी विवेकानंद का प्रशिक्षण मूलत: ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के विद्यालय, प्रेसिडेंसी कॉलेज एवं साधारण ब्रह्म समाज में हुआ था और इसी पश्चिमी दृष्टि एवं पृष्ठभूमि से गुजरते हुए स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सानिधय में उनका रूपांतरण हुआ। रूपांतरण के बाद वे पश्चिम की यात्रा पर गये। उन्होंने पश्चिम के एक वर्ग को प्रभावित भी किया और पश्चिम की उपलब्धिायों को उन्होंने स्वीकारा भी तथा कुछ हद तक पश्चिम से वे प्रभावित भी हुए। समकालीन समृधिा से चमकते भारतवासियों को, एक अर्थ में, स्वामी विवेकानंद का मानस पुत्र कहना ज्यादा सही है, भले ही उनको मैकाले पुत्र कहने का चलन करीब-करीब रूढ़ हो चुका है।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस एक ऐसे पुल हैं जिससे स्वामी विवेकानंद का आधुनिक भारत और महात्मा गांधी का पारंपरिक भारत स्वाभाविक रूप से जुड़ जाता है। स्वामी विवेकानंद ने पारंपरिक भारत की लोक परंपरा को समझने की गंभीर कोशिश नहीं की थी। महात्मा गांधी ने पारंपरिक भारत की शास्त्रीय परंपरा को समझने की कोशिश नहीं की थी। फलस्वरूप दोनों एक-दूसरे के पूरक कहे जा सकते हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंस की दृष्टि में सभी धर्म सत्य हैं और प्रत्येक धर्म के द्वारा ईश्वर के निकट पहुँचा जा सकता है। यानी जितने मत, उतने पथ। सभी धर्म सत्य हैं और भिन्न भिन्न धर्मों का सहारा लेकर कोई भी आस्थावान व्यक्ति ईश्वर के पास पहुँच जाता है। ठीक उसी तरह जिस तरह नदियाँ भिन्न भिन्न दिशाओं से आती हैं, परंतु सभी समुद्र में जा गिरती हैं। वहाँ पर सभी एक हैं।

श्रीरामकृष्ण की पहली मान्यता यह है कि सबसे पहले ईश्वर का दर्शन करना आवश्यक है। निराकार या साकार दोनों प्रकार के ईश्वर का दर्शन फलप्रद है। जो ईश्वर मन-वाणी से परे हैं, वे ही भक्त की सुविधा एवं कल्याण के लिए देहधारण करके दर्शन देते हैं और बात करते हैं। ईश्वर दर्शन के बाद, उनका निर्देश लेकर ही लोकहित के कार्य करने चाहिए। ईश्वर का निर्देश पाने के लिए पहले चित को शुध्द करना चाहिए। मन एवं चित शुध्द होने पर भगवान पवित्र आसन पर आकर बैठते हैं। रामकृष्ण कहते हैं कि पहले ईश्वर तत्व में डुबकी लगाओ। बिना डुबकी लगाये और ईश्वर का आर्शीवाद पाये लोगों को समझाना कठिन काम है। भगवान के दर्शन के बाद यदि किसी को उनका आदेश प्राप्त हो, तो वह लोक-शिक्षा दे सकता है। भगवान के निर्देश के बिना लोकशिक्षा नहीं होती। वे सरलता से पूछते हैं कि शास्त्र कितना पढ़ोगे? केवल विचार करने से क्या होगा? पहले ईश्वर की कृपा प्राप्त करने की चेष्टा करो। पुस्तकें पढ़कर क्या जानोगे? पढ़ने तथा अनुभव करने में बहुत अंतर है। ईश्वर-दर्शन के बाद शास्त्र, विज्ञान आदि सब कूड़ा-कर्कट जैसे लगते हैं। बिना साधाना एवं पुरूषार्थ के ईश्वर के साथ परिचय नहीं होता। ईश्वर प्राप्ति के लिए निर्जन में उन्हें पुकारो। कुछ दिन सब कुछ छोड़कर उन्हें अकेले में पुकारो। धर्म का उद्देश्य है ईश्वर को प्राप्त करना, उनका दर्शन करना। श्री रामकृष्ण यह भी कहते हैं कि आस्थावान हिन्दू शब्दों और सिध्दांतों के जाल में समय बिताना नहीं चाहता। वह यथाशीधा्र ईश्वर का साक्षात्कार कर लेना चाहता है। कारण, ईश्वर के केवल प्रत्यक्ष दर्शन से ही समस्त शंकाएँ दूर हो सकती हैं। अत: हिन्दू ऋषि आत्मा के विषय में, ईश्वर के विषय में अक्सर यही प्रमाण देते हैं कि ''मैंने आत्मा का दर्शन किया है, मैंने ईश्वर का दर्शन किया है।'' हिन्दुओं की सारी साधाना-प्रणाली का लक्ष्य केवल एक ही है और वह है सतत अधयवसाय द्वारा पूर्ण बन जाना, देवता बन जाना, ईश्वर के निकट पहुँचकर उनका दर्शन करना। और इस प्रकार ईश्वर-सान्निधय को प्राप्त कर उनका दर्शन कर लेना, ईश्वर के समान पूर्ण हो जाना - यही असल में हिन्दू धर्म है।

रामकृष्ण कहते हैं कि धर्म केवल सिध्दांतों या मतवादों में नहीं है। सभी धर्मों का चरम लक्ष्य है आत्मा में परमात्मा की अनुभूति। यही एक सार्वभौमिक धर्म है। समस्त धर्मों में यदि कोई सार्वभौमिक सत्य है तो वह है ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करना। परमात्मा और उनकी प्राप्ति के साधानों के संबंधा में विभिन्न धर्मों की धारणाएँ भिन्न भिन्न भले हीं हो, पर उन सब में वही एक केंद्रीय भाव है। सहस्र त्रिज्याएँ भले ही हों, पर वे सब एक ही केंद्र में मिलती है, और यह केंद्र है ईश्वर का साक्षात्कार - इस इन्द्रिय-ग्राह्य जगत् के पीछे, इस निरन्तर खाने-पीने और थोथी बकवास के पीछे, इन उड़ते छाया-स्वपनों और स्वार्थ से भरे इस संसार के पीछे वर्तमान किसी सत्ता की अनुभूति। समस्त ग्रन्थों और धर्ममतों के अतीत, इस जगत् की असारता से परे वह विद्यमान है, जिसकी अपने भीतर ईश्वर के रूप में प्रत्यक्ष-अनुभूति होती है। कोई व्यक्ति संसार के समस्त गिर्जाघरों में आस्था भले ही रखता हो, अपने सिर में समस्त धर्मग्रन्थों का बोझ लिये भले ही घूमता हो, इस पृथ्वी की समस्त नदियों में उसने भले ही बप्तिस्मा लिया हो, फिर भी यदि उसे ईश्वर-दर्शन न हुआ हो तो उसे रामकृष्ण घोर नास्तिक ही मानते हैं।

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