Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय राजनीति की विसंगतियां

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भारतीय राजनीति की विसंगतियां

 

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(7) भारतीय राजनीति की परेशानी मोर्चे और गठबंधन को लेकर नहीं वरन समस्या वर्तमान राजनीति परिवेश में बदलते मूल्यों, सिध्दांतहीनता और राजनीतिक दुर्दशा से है। जातिवादी क्षेत्रीय शक्तियों के उभार के कारण देश में अभी तक अपनाए गए विकास के केंद्रीकृत मॉडल ने सामाजिक और भौगोलिक असंतुलन और विशेषताओं को जन्म दिया, जो कि जातिवादी और क्षत्रियों शक्तियों के उदय और विकास का कारण बनी।

आजादी के बाद बिना सामंती आर्थिक ढांचे को तोड़े विकास के पूंजीवादी रास्ते को अपनाना एक ऐतिहासिक गलती थी जिसने केवल सामाजिक विशेषताओं को बढ़ाने का ही काम किया। इन्हीं सामाजिक विशेषताओं के गर्भ से जातीय व क्षत्रीय लामबंदी को आधार मिला।
भूमि सुधारों को लागू करने वाले बंगाल में इन जातिवादी उभारों का तुलनात्मक अभाव सामंती आर्थिक ढ़ांचें को तोड़े जाने के ही कारण है। क्षेत्रीय शक्तियों के उभार ने केवल राजनीतिक दुर्दशाओं को ही बढ़ावा नहीं दिया है, इन क्षेत्रीय शक्तियों ने भारतीय लोकतंत्र के विकास में भी नया अध्याय जोड़ा है। अतीत में जिन जाति व समुदायों के लिए सत्ता निर्धारण के लिए मतदान एक असंभव घटना थी, इन जातीय और क्षेत्रीय शक्तियों के उभार ने उन्हें सत्ता की निर्णायक शक्ति के रूप में पेश किया। हाशिए पर पड़ी जातियों एवं समुदायों का सत्ता के प्रमुख दावेदारों के रूप में उभारना भारतीय लोकतंत्र का विस्तार ही है। हरियाणा, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, उड़ीसा, आंध्र, केरल में ऐसे दलों की निर्णायक भूमिका के बावजूद विकास कार्य धीमा नहीं पड़ा है। गुजरात भाजपा भी व्यक्ति केन्द्रित क्षेत्रीय दल के रूप में ही विकास का वाहक है। अतएव तीसरे या चौथे मोर्चे के गठबंधनों को अलोकतांत्रिक एवं अवसरवादी गठबंधन कहकर नकारते हुए राष्ट्रपति शासन पध्दति और दो दलीय व्यवस्था का विचार एक सांस्कृतिक विविधताओं वाले बहुभाषी समाज में जनवाद को सीमित करने और सत्ता के केंद्रीकरण के लिए एक राजनीतिक तर्क ही कहा जाएगा। यह भारतीय राजनीति के बारे में अभिजात्य- द्विज मानसिकता से उपजी धारणा हे।

राजनीति आज एक कैरियर, एक व्यवसाय बन गया है जिसमें सफलता का आकलन आर्थिक लाभ-हानि से हो रहा है। भारतीय राजनीति के चारो मोर्चों का एजेंडा सत्ता पाना है, समाज बदलना नहीं है। चारो र्मोचे सिध्दांतविहीन-मूल्यहीन व्यावहारिक राजनीति करने लगी हैं। आवश्यकता राजनीति के प्रति नजरिया बदलकर नई राजनीतिक पहल करने की है, न कि राजनीति को खारिज करने की, क्योंकि एक अच्छी राजनीतिक शुरूआत ही खराब राजनीति को बदल सकती है।

अभी तो यूपीए भारी लग रही है। चुनाव बाद चौथे र्मोचे की ताकतें भाजपा के साथ नहीं जाने वाली हैं। मायावती की मौजूदगी मुलायम को तीसरे र्मोचे में जाने से रोकेगी। नतीजे बताएंगे कि यूपीए में टूट नुकसानदेह है या फायदेमंद। अगर यह फायदेमंद साबित हुई तो इस चुनाव के सर्वाधिक चतुराईपूर्ण दांव के रूप में जानी जाएगी। एन.डी.ए का विपक्ष में बैठना देश के दुरगामी भविष्य के लिए अच्छा है। रामदेव महाराज और संघ परिवार को आत्मपरीक्षण और तैयारी के लिए पर्याप्त मौका मिल जाएगा।

 

            
(8)  भारत में गरीबों का बहुमत हे। वे वोट भी डालते हैं। लेकिन जिस तबका को गरीब वर्ग चुनता है उनके एजेंडे में गरीबी उन्मूलन की चर्चा तक नहीं होती। धर्म, जाति और क्षेत्रीयता के कठघरों में बंधे वोटर, वोटर से कटे राजनीतिक दल और इन दिनों से कटा अपनी ही दुनिया में मशगूल मीडिया समकालीन भारत की विसंगति को प्रतिबिंबित करते हैं। इसका कोई सरल समाधान किसी के पास नहीं है। रामदेव महाराज खुद राजनीति में आकर योगी आदित्यनाथ से ज्यादा बड़ा कमाल कर पायेंगे ऐसा नहीं लगता। राजनीति से बाहर रहकर ही ये अपने समर्थकों के वोट को प्रभावित कर सकते हैं। यह वोट मूलत: विश्वहिंदू परिषद समर्थकों एवं पिछड़ी जाति के बीच से आएगा। आस्था चैनल का सदुपयोग वे बिना राजनीतिक विशेषज्ञों के सहयोग के नहीं कर पाएंगे। उन्हें योग और आयुर्वेद के मार्केटिंग की अच्छी समझ है लेकिन राजनीति की जटिलता को वे फिलहाल नहीं समझते। वे एक सरल व्यक्ति हैं। वे जितना सरल तरीके से संघ परिवार का विकल्प बनना चाहते हैं यह उतना सरल काम नहीं है। पिछले 9 वर्षों से गोविन्दाचार्य यही करने की कोशिश कर रहे हैं। 110 करोड़ के देश में 5-10 करोड़ को प्रभावित करना संभव है लेकिन एक छोटे से प्रदेश हरियाणा में भी सत्ता प्राप्त करना आसान नहीं है। सत्ता का अलग गणित होता है। समकालीन भारत में मध्यकालीन सेनाओं की जगह राजनीतिक दल बन गए हैं। युध्द की जगह चुनाव ने ले लिया है। मध्यकालीन सेनापतिओं की जगह क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों ने ली हे। उस वक्त भी alliance  गठबंधन होता था। एक दलीय शासन साम्राज्य की तरह चलता है। गठबंधन की राजनीति सामंतवाद की तरह चलता है। फलस्वरूप राजनीति में युध्द का उन्माद पैदा करना जरूरी माना जाता है। इसके लिए एक तरह की ब्रेनवाशिंग करनी होती है। भावनात्मक ज्वार पैदा करना होता है। प्रेरित करना होता है। ऐसा फोकस आस्था चैनल पर देखने को नहीं मिलता। अलजजीरा और आस्था चैनल में अंतर है। संघ परिवार के पास पांचजन्य और और्गनाइजर तो है लेकिन टी.वी. चैनल नहीं है। भाजपा चुनाव प्रबंधन और विज्ञापन पर तो बहुत खर्च करती है लेकिन फाउन्डेशन या चैनल बनाने पर इनका जोर नहीं है। रामदेव महाराज के पास चैनल तो है लेकिन इनके पास प्रगतिशील लेखक संघ, PWA, IPTA जैसा प्रभावी संगठन नहीं है। फलत: इनके वक्ता अलग-अलग भाषा, अलग-अलग चीज बोलते हैं।

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