Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय संस्कृति में शिक्षा: परम्परा एवं चुनौतियां

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भारतीय संस्कृति में शिक्षा: परम्परा एवं चुनौतियां

 

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भारतीय शिक्षा की सभ्यतामूलक चुनौतियां

भारतीय शिक्षा एवं संस्कृति में रावण बुराई और बुरी शक्तियों का सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक है। बुराई और बुरी शक्तियों का प्रतीक  होने के बावजूद वह पश्चिमी सभ्यता के अर्थों में शैतान या शैतानी शक्ति नहीं है। पश्चिमी सभ्यता में शैतान न सिर्फ परमेश्वर का विरोधी है बल्कि वह अपने आप में परम स्वायत्त है। पश्चिम में शैतान की अवधारणा के विपरीत भारतीय संस्कृति में रावण न सिर्फ ईश्वर की रचना है बल्कि वह भगवान शिव का महान भक्त और शैवागम का परम विद्वान भी है। रामायण की शब्दावली में उसे राक्षस कहा गया है। भारत की लोक संस्कृति में रावण सनातनी खलनायक माना जाता है। रावण आज एक व्यक्ति न रहकर प्रतीक बन गया है। भारतीय संस्कृति में वह छल, कपट और दुष्टता का प्रतीक पुरूष माना जाता है। इसके बावजूद भारतीय संस्कृति रावण को पश्चिमी अर्थों में शैतान या ईश्वर विरोधी स्वायत्त शक्ति नहीं मानती। इसके विपरीत भारतीय संस्कृति रावण को ईश्वरीय योजना का महत्वपूर्ण अंग मानती है। भारतीय संस्कृति मानती है कि जहाँ भी जीवन है, वह अमृत के कारण है चाहे वह दशरथ पुत्र राम का जीवन हो या दशानन रावण का जीवन। यदि संसार सनातन दृष्टि से एक 'लीला' है तो रावण की भूमिका भी किसी महत् उद्देश्य से ही लिखी गई होगी । सामी दृष्टि में एक साथ दो साम्राज्य स्वीकार किये गये हैं - (1) ईश्वर का साम्राज, (2) शैतान का साम्राज। सनातनी परंपरा में  एक ही साम्राज है धर्म का साम्राज । धर्म वह है जो धारण करता है,  जीवन का आधार है, जो अस्तित्व और अमृत का आधार है। भारतीय संस्कृति मानती है कि रावण की नाभि में भी अमृत है। फलस्वरूप जब तक नाभि में तीर नहीं मारा जायेगा, तब तक 'रावण' नहीं मरेगा। नाभि में तीर लगते ही रावण के अंदर कैद अमृत सारे संसार में फैल जायेगा। तब रावण अपने आप 'मर' जायेगा। यह एक मिथक है। भारतीय संस्कृति का यह सनातन मिथक आज भी प्रासंगिक है।

     हमें भी समझना होगा कि 21वीं सदी का रावण कौन है।  वह रावण अमेरिका नहीं है, न विश्व मुद्रा कोष या विश्व बैंक ही है । यदि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हम रावण समझते हैं, तो यह भी हमारा भोलापन है। गाँधी रावण के असली स्वरूप को समझते थे। परमहंस रामकृष्ण, श्रीअरंविन्द इत्यादि भी रावणत्व को समझते थे। बुध्द भी इस सनातनी रावण को समझते थे परन्तु    हजार बरस की गुलामी ने हमें मानसिक रूप से वहाँ ले जा कर छोड़ा है, जहाँ हम अपने पुरखों की पूजा तो करते हैं पर उनसे प्रेरणा नहीं ले सकते। हम उनसे अपनापन तो महसूसते हैं पर उनके प्रयोगों का महत्त्व नहीं समझते।

   भगवान बुध्द, आचार्य नागार्जुन, गुरू गोरखनाथ, आचार्य रामानुज, महात्मा कबीर, गुरूनानक, संत रैदास, संत मीराबाई, समर्थ रामदास, परमहंस रामकृष्ण, एवं महात्मा गाँधी जैसे महापुरूष कलियुगी सनातनता के प्रेरणा पुंज हैं। इनके आलोक में हमें नहीं लगता कि पश्चिम से हमें ज्ञान, विज्ञान या   आधुनिकता सीखने की जरूरत है। सनातन परंपरा पुरानी कब पड़ती है ? सनातन परंपरा को पुनर्नवा यूँ ही नहीं कहा गया है। इसमें सतत अंकुरन होते रहता है। हमेशा पुनर्रचना होते रहती है। यह पुनर्रचना समाज में, प्रतीकों में, शास्त्रों में और कलाओं में भी होता है। रावण की अवधारणा तो नहीं बदलती लेकिन रावण का स्वरूप एवं आवरण बदलते रहती है। रावण को समझने के लिए मिथकों की परंपरा को समझना आवश्यक है। यह याद रखना आवश्यक है कि रामायण और महाभारत प्रतीक शास्त्र हैं, ये ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं हैं। सनातन परंपरा में कालजयी शास्त्रों की ही रचना होती है। शास्त्रों की भाषा प्रतीकों की कूट भाषा होती है। इसको पढ़ने की कला और तकनीक गुरू-शिष्य परंपरा को संस्थानिक आधार देता है। इसी परंपरा और इसी आधार के संदर्भ में रावण को समझा जा सकता है। पश्चिमी शैतान की अवधारणा से तुलना करके नहीं समझा जा सकता।

हम रावण से क्यों हारते हैं ? रावण कौन है ? वह कैसे मरेगा ? ये सनातन प्रश्न है। प्रश्न हमे याद हैं परन्तु इसके सनातन उत्तर हम भूल चुके हैं। इसका ऐतिहासिक उत्तर भी हम नहीं देते। हम मानते हैं कि रावण अब भी शुक्रनीति पढ़ता है जबकि बृहस्पति राजधर्मसूत्र हमारे लिए पुरातात्विक महत्त्व की चीज है। हम मानते हैं कि चाणक्य के अर्थशास्त्र से हमारा काम चल जाएगा, अब भी चल जाएगा पर हम यह जानने की कोशिश नहीं करते कि रावण आजकल कौन-सा शास्त्र पढ़ता है और क्या सचमुच बृहस्पति के राजधर्मसूत्र की तुलना में चाणक्य का अर्थशास्त्र हमारे युग के ज्यादा अनुकूल है? एक तरफ हम मानते हैं कि राम ने विभीषण, हनुमान, सुग्रीव आदि के बल पर, उनकी सहायता से रावण को हराया था, दूसरी तरफ हम स्वदेशी की बात करते हैं। क्या विभीषण स्वदेशी था? स्वदेशी में 'स्व' प्रमुख है या 'देश'? राष्ट्र का अर्थ क्या सचमुच 'नेशन' होता है या 'सिविलाइजेशन' होता है ? इन मूल प्रश्नों का उत्तर कैसे दिया जाता है हमारे यहाँ, और कैसे दिया जाता है रावण के यहाँ ? इसको सभ्यताओं के समाजशास्त्र के तहत ही समझा जा सकता है। दुर्भाग्य से महात्मा गाँधी के बाद इस देश में सभ्यता समीक्षा की परंपरा मृतप्राय है।

कभी हमारे यहाँ गुरूकुल होता था और रावण के यहाँ केवल गुरू थे, शुक्राचार्य। आज रावण के यहाँ गुरूकुल है और हमारे यहाँ गुरू तो होते हैं, उनका वंश नहीं चलता। हमारे यहाँ केवल गृहस्थों के वंश चलते हैं, जैविक वंश चलते हैं, जबकि रावण के यहाँ गुरूकुलों में बौध्दिक और आध्यात्मिक वंश चलता है। एक युग के केंद्र में सामान्यत: एक ही गुरू या एक ही राष्ट्र -राज्य या एक ही गुरूकुल होता है। जब तक भारत में नालंदा बौध्द गुरूकुल नहीं हुआ था वह सनातन परंपरा का संयुक्त केंद्र था। फिर नालंदा बौध्द गुरूकुल हो गया। दुर्भाग्य से भारत के तत्कालीन हिन्दू मानस ने बौध्द आविष्कारों और बौध्द पध्दत्ति के साथ अपने को उस तरह नहीं जोड़ा जिस तरह वे तक्षशिला के गुरूकुल के साथ जुड़ा महसूस करते थे। श्री गोपीनाथ कविराज ने लिखा है कि ईसाई द्वितीय शतक से लेकर द्वादश  शतक तक भारत में बौध्दमत का प्रमुख स्थान रहा है। इसके बावजूद बौध्द - दर्शन एवं धर्म का परिचय प्राय: लोगों को नहीं है।

 

 

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