Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

रंग और होली

रंग और होली


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भीतरी उलझन दूर करने के लिए कई उपाय हैं। योग की विभिन्न प्रणालियां, पूजा-पाठ, जप-तप की विभिन्न प्रणालियां। ज्ञान मार्ग की विभिन्न शाखाएं।

मौसम (=हवा + सूर्य का ताप+ चन्द्रमा की शीतलता+ पृथ्वी की दैनिक गति+ आकाश की छटा) को टहलने के दौरान महसूस कीजिए। आस-पास के पेड़ों में ऋतु चक्र का फलन महसूस कीजिए। पशु-पक्षियों की गति एवं स्थिति में संवत्सर का फलन महसूस कीजिए। यह अनुभूति अपने आप में परम आनंददायक है।

मनुष्य अपनी यादें गढ़ता है और जीवन की संध्या या निराशा के क्षणों में उनकी जुगाली करता है। लेकिन जो लोग प्रकृति के यज्ञोत्सव को समझते हैं उनके लिए हर क्षण आनंद और आशा से भरा रहता है। रंगो पर केंद्रित होली जैसा यज्ञात्मक पर्व अन्य किसी भी संस्कृति में नहीं मिलेगा। रंग दिल के कैनवास पर उतर कर उमंग और उत्साह की तस्वीर बनाते हैं। लाल रंग से व्यक्ति की एकाग्रता बढ़ती है। नीला रंग रचनात्मक को बढ़ाने में सहायक होता है।

जब होली आती है तो इंसान ही क्या प्रकृति पर भी उसका प्रभाव पड़ता हैऔर पत्ते पत्ते पर भी बहार आ जाने का गुमान होता हे। हमारे देश में ज्यादातर त्योहार फसल और मौसमों के हिसाब से मनाए जाते हैं। नई फसल कटने के बाद जब फसल घर- खलिहान में आती है तो उससे हम पकवान बनाकर घर-घर बांटते हैं। होली की एक विशेष चीज छेड़छाड़ होती है जिससे हम लोग रोज की रूटीन-लाइफ से खुद को अलग कर सकें।

भारतीय संस्कृति में हर चीज के महत्व को दर्शाने के लिए कोई न कोई पर्व रचा गया है। जिेदगी में रंगों के महत्व को बताने के लिए होली पर्व का सृजन किया गया। आधुनिकता का सतही प्रभाव सबसे पहले अमीर वर्ग के जीवनोत्सव पर पड़ता है। मध्यवर्ग अमीर होने के सपने देखता है और विफल होने पर कुंठित हो जाता है। अनचाहे ही मध्य वर्ग की छद्म आधुनिकता उसकी उत्सव प्रियता को घटा देती है।

आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग जीवन के असमान युध्द में निहत्था लड़ता है और उत्सव के किसी भी अवसर को नहीं छोड़ता, क्योंकि उसकी झोली में अनायास कुछ नहीं गिरता। वह आनंद के क्षण चुरा लेता है। आम आदमी आनंद की चोरी में निपुण हो गया है। वह आज भी सारे पारंपरिक उत्सव पूरे जोश से मनाता है। दरअसल उसके पास औरों की तरह आनंद के विकल्प भी उपलब्ध नही हैं। फिल्म उद्योग में लगभग चालीस साल तक राजकपूर की होली प्रसिध्द रही परंतु उनकी किसी भी फिलम में होली का दृश्य नहीं है। आर्थिक उदारवाद और मल्टीप्लैक्स के प्रभाव में होली के दृश्य और गीत हिंदुस्तानी सिनेमा में घटकर लुप्रप्राय हो चुके हैं। समाज की समकालीन मुख्यधारा में अवहेलना के कारण ही सिनेमा से होली गीतों का लगभग लोप हो गया है। टेलीविजन के कारण लोग घरघुसिया हो गए हैं और घुम्मकर प्रवृति कम हो गया है। टेलीविजन ने भी उत्सवप्रियता का स्वरूप बदला है। छोटे पर्दे पर प्रस्तुत वैकलिक संसार में सारे सीरियल पात्र होली के रंग में सराबोर होते हैं और उसमें उड़ाए रंग को टेलिविजन का आदी दर्शक स्वयं महसूस करता है।

 

भारत में प्रकृति को संरक्षित रखते हुए त्योहार मनाने की प्रथा रही है। इसमें यह ध्यान रखा जाता है कि हम आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या छोड़कर जा रहे हैं। भारतीय संस्कृति की पारिभाषिक विशेषता इसकी उदारता और सहिष्णुता है।

पौराणिक हिंदू काल में नारी शरीर की पूजा की जाती थी। इसका प्रमाण हमारी कलाकृतियां हैं। नारी के सुन्दर शरीर को दर्शाना या चित्रन करना हमारी कला में आम-फहम चीज रही है। हिन्दूवाद में कहीं भी पाप अथवा मानसिक या आध्यात्मिक गंदगी का कोई विचार नहीं है। पाप और शर्म का विचार; शरीर को छिपाने का विचार तो ईसाई और इस्लाम धर्म के साथ आया है। नारी शरीर को पाप और आकर्षण के साथ जोड़ने का विचार बहुत नया है। नजीर अकबराबादी संभवत: हमारे देश के पहले शायर हैं, जिनकी शायरी में होली का लोक तरंग और वे लोग मिलते हैं, जिनके जीवन में सौंदर्य अपने परंपरागत नहीं, व्यवहारिक अर्थो। में पाया जाता है। नजीर ने न केवल हमारे त्योहारों का चित्रन किया, बल्कि उसमें उन्होंने स्वयं भाग भी लिया। वे पूरे होश-ए-हवास और जोशे-खरोश के साथ होली खेलने के लिए कई बार बृज गए, वहां की विशेष होली खेलकर आए। उनकी शायरी में ईसा मसीह, पैगंबर मुहम्मद, किशन कन्हैया, गुरू नानक और हकीम लुकमान अपने इतिहास तथा कारनामों के साथ नजर आते हैं। उनके यहां लाकतंत्र एवं लोकतरंग दोनों पाया जाता है। उनके यहां लोक जीवन की असल और सच्ची तसवीरें देखने को मिलती हैं। आज होली भारत के अधिकांश समुदायों में जिंदगी के सतरंगे सपनों में मस्ती का रंग भरने एवं जिंदगी के उत्सव मनाने का राष्ट्रीय त्योहार बन गया है।

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