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लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067
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आनंद (1970) हृशिकेष मुंखर्जी की फिल्म
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आनंद (1970) हृशिकेष मुंखर्जी की फिल्म
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यह हिन्दी सिनेमा का सबसे उत्तम रचनाओं में से एक है। यह मुंबई शहर और राजकपूर को समर्पित है। मुंबई शहर भारत का सर्वोत्तम महानगर है जिसमें पूरे भारत के लोग रहते हैं, वह भी शांतिपूर्वक। यह 1966 में शुरू हुए शिवसेना की राजनीति का प्रतिलोभ है। आनंद सहगल पंजाबी है, भाष्करबनर्जी बंगाली है, प्रताप कुलकर्णी मराठी है, मुरारीलाल और उसकी नाटक मंडली की नायिका गुजराती है, पहलवान दारा सिंह और नौकर रामु काका उत्तर भारतीय हैं। मैट्रन डीसा गोवा की हैं। हृशिकेष मुखर्जी की फिल्मों में खलनायक या खलनायिका नहीं होते। यह फिल्म एक ठेंठ भारतीय फिल्म है जिसमें आनंद सहगल का जिंदादिल चरित्र राजकपूर के व्यक्तित्व से प्रभावित है। राजकपूर वास्तविक जीवन में हृशिकेष मुखर्जी को बाबू मोशाय ही कहा करते थे। दोनो 1959 से घनिष्ठ मित्र थे। हिन्दी की अधिकांश फिल्मों में ऐलोपैथिक डाक्टर को नायकत्व दिया गया है। मुखर्जी की फिल्म अनुराधा का नायक एक ऐलोपैथिक डाक्टर है। इस फिल्म में एक रोगी नायक है, और होमियोपैथी, मोनी बाबा, सिध्द पीठ आदि की भी सकारात्मक प्रस्तुति है। फिल्म आंधी की तरह इस फिल्म के संवाद भी काव्यात्मक हैं। आंधी की तुलना में इसमें कम गीत हैं - 3 गीत + एक कविता। फिल्म का हर दृष्य और हर संवाद अर्थपूर्ण है। यह भारतीय संस्कृति के बहुआयामी स्वरूप को सम्पूर्णता में प्रस्तुत करता है। यह ट्रेजडी होते हुए भी ट्रेजडी नहीं है। यह कॉमेडी भी नहीं है। इसमें हर तरह के रस मिले हुए हैं। इसमें बौध्द दर्शन और वैश्णव भक्ति का मिला - जुला रूप है। दसमें हर क्षण को आनंदमय बनाने का बौध्द दर्शन है। इसमें संसार एक दिव्य लीला है। इसमें ईसाई (मैट्रन डीसा) और मुस्लिम (ईषाभाई सूरत वाला) पात्र भी हैं। प्रारंभ में भाष्कर बनर्जी नास्तिक है लेकिन आनंद सहगल के सोहबत में वह आस्तिक हो जाता है। मौनी बाबा और आनंद सहगल पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। आनंद के प्यार में मैट्रन डीसा भी पुनर्जन्म के विश्वास का अनादर नहीं करती। ईषाभाई भी स्वर्ग में मिलने की बात करता है।
इसमें दोस्ती की गरिमा है। मौत पर जिन्दगी की जीत है। इसमें पारंपरिक अखाड़ा है। अखाडों की स्थापना 8 वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने की थी। इसका लक्ष्य हिन्दू समाज की रक्षा के लिए क्षात्र तेज से दीप्त सन्यासियों को संगठित करना था। ये दसनामी सम्प्रदाय कहलाते हैं। दसनामी सम्प्रदाय के इन अखाडों के प्रभाव में भारत के भिन्न - भिन्न इलाकों में 8वीं शताब्दी से ही अखाड़े बने हैं। ये लोग सामान्यतया बजरंगबली की पूजा करते हैं और कुश्ती लड़ते हैं, व्यायाम करते हैं, प्राकृतिक चिकित्सा से कई तरह के रोगों का उपचार करते हैं और समाज में सुरक्षा और व्यवस्था कायम रखने में अपनी भूमिका निभाते हैं। जब आनंद को पता चलता है कि डाक्टर भाष्कर बनर्जी की प्रेमिका रेणु को मुहल्ले के शोहदे तंग करते हैं तो वह पास के अखाड़े के गुरू के पास फरियाद लेकर जाता है और गुरू शोहदों को डांट - डपट कर भगा देता है। इसके बाद शोहदे डर कर तंग करना छोड़ देते हैं।
इस फिल्म में मुंबई (बम्बई) केवल मराठियों का शहर न होकर सम्पूर्ण भारत का महानगर है जिसमें भारत के भिन्न - भिन्न इलाकों के लोग शांतिपूर्वक एक - दूसरे के साथ मिल - जुल कर रहते हैं। 1966 में शुरू हुए शिवसेना की संकुचित राजनीति का यह फिल्म बड़ी शालीनता से जवाब देती है। फिल्म 1970 के अंत में रिलीज हुई थी। यह मुंबई शहर को एक नये रूप में प्रस्तुत करती है। 1950 के दशक की शुरूआत में नव केतन बैनर के तले देवआनंद अभिनित टैक्सी ड्राइवर फिल्म में अलग तरह का बम्बई शहर दिखता है। 20 वर्षों में बम्बई काफी बदल चुका है। गगन चुंबी इमारतों के साथ झुग्गी झोपड़ी और चॉलों की समानांतर दुनिया भी आनंद फिल्म में दिखती है। जिसमें डाक्टर भाष्कर बनर्जी रोग और गरीबी के बीच अपना डाक्टरी जंग जारी रखता है।
1970 में बम्बई एक हरा - भरा खूबसूरत शहर था। समुद्र का पानी गंदा नहीं हुआ था। समुद्र का किनारा पानी और बालू पर पसरा एक खूबसूरत नजारा पेश करता है। उस पर मन्नाडे का गाया गाना 'जिन्दगी कैसी है सुहानी हाये, कभी तो हंसाये कभी ये रूलाये ' गाते हुए राजेश खन्ना का मस्त अभिनय। 1969 में राजेश खन्ना को सुपर सितारा का हैसियत प्राप्त हुआ था और हृशिकेष मुखर्जी के निर्देशन में आनंद उनके अभिनय का उँचाई प्रस्तुत करता है। अमिताभ बच्चन ने 1969 में जब अभिनय शुरू किया था तो राजेश खन्ना सुपर सितारा बन चुके थे। रमेश देव और सीमा, देव, सुमिता सान्याल और ललिता पवार, जॉनी वाकर, दुर्गा खोटे और दारा सिंह सभी ने अच्छा अभिनय किया है परन्तु आनंद मूलत: राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन की फिल्म है। दोनों ने बहुत अच्छा अभिनय किया है। जयवंत पाठारे की फोटोग्राफी कमाल की है। उनका कैमरा उतना ही काव्यात्मक दृष्य रचता है जितना हृशिकेष मुखर्जी, गुलजार, बिमल दत्ता और डी. एन. मुखर्जी की पटकथा। हमेशा की तरह हृशिकेष मुखर्जी के निर्देशन एवं संपादन में दोष निकालना मुश्किल है। आनंद हृशिकेष मुखर्जी की नि:संदेह सर्वश्रेष्ठ कृति है जिसकी कहानी उन्होंने खुद लिखी थी। इस कहानी की प्रेरणा हृशिकेष मुखर्जी और राजकपूर की मित्रता पर आधारित है। राजकपूर और आनंद सहगल के चरित्र में कई समानता है। केवल एक प्रमुख अन्तर है। आनंद सहगल कैंसर रोग का मरीज है और वह जानता है कि उसे जीने के लिए मात्र 6 माह मिला है। जबकि स्वभाव से भोले और मस्त राजकपूर को बचपन से प्रेम का रोग था। उन्होंने अपने बचपन से बुढ़ापा तक कई महिलाओं से पवित्र प्रेम किया और अंत तक भोले बने रहे। जिस तरह आनंद पूरी जिन्दगी अपने अनदेखे सोलमेट मुरारीलाल को खोजता रहा उसी तरह राजकपूर विवाहित होते हुए भी हर सुन्दर स्त्री में अपना सोलमेट खोजते रहे।प्रेम का रोग था।
दूसरी संस्कृतियों में यदि दो मर्दों के बीच बहुत गहरी दोस्ती हो तो उन्हें होमोसेक्सुल समझा जाता है जबकि भारत में दो युवकों या दो मर्दों के बीच दोस्ती को पवित्रतम संबंधों में से एक माना जाता है। 1973 में निर्मित प्रकाश मेहरा निर्देशित जंजीर में एक गाना है जो प्राण और अमिताभ बच्चन की दोस्ती के बारे में है - यारी है इमान मेरा, यार मेरी जिन्दगी। उसी तरह 1975 में निर्मित रमेश सिप्पी की फिल्म शोले में धर्मेन्द्र और अमिताभ बच्चन की दोस्ती के बारे में एक गाना है- ये दोस्ती हम नहीं तोडेंगे, तोडेंगे दम मगर तेरा साथ ना छोडेंगे। आनंद सहगल और भाष्कर बनर्जी की दोस्ती मात्र 6 माह पुरानी दोस्ती है। जबकि भाष्कर बनर्जी और प्रताप कुलकर्णी की पुरानी दोस्ती है। ईषाभाई सूरतवाला और आंनद सहगल की दोस्ती तो मात्र कुछ सप्ताह पुरानी है। वास्तव में भारत के बंटवारे का मारा रिफ्यूजी आनंद सहगल एक अनाथ है जिसे परायों और अपरिचितों से दोस्ती और संबंध बनाना खूब आता है। उसके व्यवहार की मस्ती के पीछे न सिर्फ कैंसर के रोग के कारण अपनी छोटी जिन्दगी का अहसास है बल्कि अपनी प्रेमिका से बिछुड़ने की उदासी भी है। परन्तु वह मानता है कि जिन्दगी बड़ी होनी चाहिए लम्बी नहीं। वह मानता है कि उदासी भी खूबसूरत हो सकती है।
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