Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

आनंद (1970) हृशिकेष मुंखर्जी की फिल्म

आनंद (1970) हृशिकेष मुंखर्जी की फिल्म

 

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आनंद फिल्म का एक प्रमुख थीम विवाह है। डा. कुलकर्णी की शादी का साल गिरह, डा. बनर्जी और रेणु का विवाह, आनंद की प्रेमिका का दूसरे व्यक्ति से विवाह और ईषाभाई सूरतवाला की विवाह की समस्या। इन विवाहों की कथा को बहुत मनोरंजक ढंग से प्रेम विवाह बनाम माता - पिता द्वारा ठीक किये गए अरेन्जड मैरिज का मनोरंजक कॉनट्रास्ट प्रस्तुत किया गया है। रेणु की मां कहती भी है कि अब माता - पिता से कौन पूछता है अब तो प्रेम विवाह का जमाना है। पूरा भारत 1970 में भले ही मूलत: पारंपरिक रहा हो, बम्बई महानगर में 1970 तक आते - आते प्रेम विवाह का चलन काफी बढ़ गया था। अत: 1960 के दशक से हिन्दी सिनेमा में टेक्नीकलर प्रेम और रोमांस की कहानियां 1950 के दशक के सामाजिक सन्दर्भों वाले कथानकों की तुलना में काफी बढ़ गए थे। 1957 में बने मुसाफिर से हृशिकेष मुखर्जी ने हल्की फुल्की मनोरंजन की भाषा में मध्यवर्गीय भारतीय समाज के सामाजिक पहलुओं को अपनी फिल्मों में जगह देना जारी रखा था। वे एक तरफ विशुद्ध कॉमेडी (चुपके - चुपके, बाबर्ची, गोलमाल बनाया) तो दूसरी तरफ अनाड़ी, सत्यकाम, आशीर्वाद, आनंद, अभिमान और बेमिशाल जैसी सोदेश्य सामाजिक फिल्में भी बनायी। आनंद उनकी फिल्मों का सरताज है जिसमें उनकी रचनात्मक ऊर्जा का विष्फोट हुआ है। लाइलाज बीमारी पर आनंद उनकी एकमात्र फिल्म नहीं है। इसी थीम पर 1975 में उन्होंने मिली नामक फिल्म बनायी थी जिसमें जया भादुड़ी और अमिताभ बच्चन की मुख्य भूमिका थी। यह फिल्म आनंद की तरह सफलता नहीं पा सकी तो उसका प्रमुख कारण यही था कि मिली की बीमारी फिल्म की केन्द्रीय वस्तु है जबकि आनंद की बीमारी उसके जीवन और संबंधों की मात्र पृष्ठभूमि है। आनंद एक बहुआयामी फिल्म है और मिली मूलत: कारूणिक फिल्म है। एक कारण और भी है आनंद राजेश खन्ना के सुपर स्टारडम के समय बनी थी जबकि मिली की नायिका जया भादुड़ी सुपर सितारा नहीं थी और न 1975 तक अमिताभ बच्चन सुपर सितारा के रूप में स्थापित हुए थे। 1973 में जंजीर आ चुकी थी। अभिमान आ चुकी थी। 1975 में मिली और दीवार आ चुकी थी। परन्तु शोले साल के अंत में आयी थी। अमिताभ बच्चन की सितारा हैसियत बनने लगी थी लेकिन 1975 के अंत तक धर्मेन्द्र, संजीव कुमार, मनोज कुमार, शशि कपूर और विनोद खन्ना उनसे उन्नीस नहीं थे। केवल राजेश खन्ना का पराभव होना शुरू हुआ था। 1973 में बॉबी के रिलीज से ऋषि कपूर का उदय हुआ था। अमिताभ सुपर सितारा 1977 में आयी मुकद्दर का सिकंदर तथा डॉन से बने। उससे पहले उनके नाम से फिल्में नहीं बिकती थी। निर्देशक, कहानी, पटकथा, गीत - संगीत की भूमिका तब तक सुपर सितारे से कम नहीं होती थी। 1969 से 1973 के बीच राजेश खन्ना अकेले सुपर सितारा थे। 1973 से 1977 तक कई सितारों के बीच प्रतिस्पर्धा थी जिसमें अमिताभ बच्चन अंतत: विजयी हुए। अमिताभ बच्चन को सुपर सितारा बनाने में जितना योगदान सलीम - जावेद द्वारा गढ़ा यंग्री यंग मैन की इमेज का है उससे कम योग दान मनमोहन देसाई और हृशिकेष मुखर्जी की फिल्मों का नहीं है। अमिताभ बच्चन यदि अंतत: अपने समकालीनों पर भारी पड़े तो उसका कारण ही यही था कि वे एक ही काल खंड में गंभीर, हंसोड और यंग्री यंग मैन तीन तरह की भूमिका एक समान दक्षता से कर सकते थे। और नि:संदेह यह कहा जा सकता है कि इस दक्षता के बीज फिल्म आनंद में नजर आये थे। इसीलिए उन्हें इस फिल्म के लिए बेस्ट सहायक अभिनेता का पुरस्कार भी मिला था।
आनंद की पटकथा और कास्टिंग दोनों में एक संतुलित सम्पूर्णता थी जिसकी तुलना में मिली की पटकथा और कास्टिंग उन्नीस पड़ती है। आनंद का किरदार राजेश खन्ना के अलावे अगर किसी और ने किया होता तो यह फिल्म संभवत: इतनी स्वाभाविक नहीं बन पाती। कास्टिंग के मामले में इसकी तुलना 1970 के दशक की फिल्मों में संभवत: केवल शोले से की जा सकती है जिसका निर्माण 1975 में हुआ था रमेश सिप्पी के शोले में हर चरित्र की कास्टिंग और पटकथा में स्थान भी एक संतुलित सम्पूर्णता में है। शोले एक भव्य फिल्म है जिसमें स्पेकटेकल नैरेटिव पर भारी पड़ जाता है। आनंद में नैरेटिव और स्पेकटेकल का संतुलन है। आनंद एक मध्यम बजट की कारपोरेट फिल्म है। इसे एन. सी. सिप्पी ने निर्माण करवाया था। जी. पी. सिप्पी व्यावसायिक सिनेमा के एक बड़े निर्माता थे। शोले उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति है जो उनके बेटे रमेश सिप्पी ने निर्देशित किया था। एन. सी. सिप्पी मध्यम बजट की सोदेश्य फिल्मों के निर्माता थे। उन्होंने हृशिकेष मुखर्जी और गुलजार जैसे संवेदनशील तथा कलात्मक निर्देशकों के प्रोजेक्ट को फाइनेंस किया। इस मामले में एन. सी. सिप्पी की तुलना भारत सरकार की संस्था नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कारपोरेशन (एन. एफ. डी. सी.) और राजश्री प्रोडक्संन से की जा सकती है। 1970 के दशक में एन. सी. सिप्पी, ताराचंद बड़जात्या (राजश्री प्रोडक्संन के मालिक) और एन. एफ. डी. सी. के प्रयास से छोटे और मध्यम बजट की स्वस्थ मनोरंजन देने वाली कलात्मक फिल्मों की बहार आ गई थी जिसके प्रभाव में हिन्दी भाषी समाज के भीतर एक रचनात्मक विष्फोट हुआ था। हृशिकेष मुखर्जी निर्देशित आनंद इस रचनात्मक विष्फोट का स्वर्णकलश है।
आनंद एक ठेंठ हिन्दू फिल्म है। हृशिकेष मुखर्जी बिमल रॉय के साथ न्यू थियेटर्स कोलकाता से मुंबई आये थे। न्यू थियेटर्स में तीन तरह की फिल्में बनती थी। एक देबकी कुमार बोस की ठेंठ हिन्दू फिल्में थीं जिस पर चण्डीदास, विद्यापति, रामकृष्ण परमहंस और भारत के स्वतंत्रता संग्राम का प्रभाव था। दूसरी पी. सी. बरूआ की रोमांटिक त्रासदी वाली फिल्में थी। तीसरी नितिन बोस की राममोहन राय और रबीन्द्रनाथ टैगोर जैसे ब्रहम समाजी समाज सुधारकों से प्रभावित फिल्में थीं। बिमल रॉय और हृशिकेष मुखर्जी ने तीनों प्रकार की फिल्मों के बीच एक संतुलन स्थापित किया जबकि केदार शर्मा, राजकपूर और लेख टंडन देबकी कुमार बोस की परंपरा के विस्तार थे। राजकपूर के पटकथा लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास मार्क्सवादी परंपरा के सुधारवादी थे अत: नितिन बोस के सुधारवाद और राजकपूर की प्रारंभिक फिल्मों के सुधारवाद में महीन अंतर है। राजकपूर के दूसरे पटकथा लेखक वी. पी. साठे मार्क्सवादी नहीं थे। इन्दरराज आनंद और रामानंद सागर ने भी राजकपूर के लिए लेखन किया था। परंतु राजकपूर अपने लेखकों से अपनी तरह का काम लेते थे। एक निर्देशक के रूप में ख्वाजा अहमद अब्बास राजकपूर की तुलना में व्यावसायिक रूप से असफल थे। मेरा नाम जोकर और बॉबी का लेखन अब्बास ने राजकपूर की मांग को पूरा करने के लिए किया था। राजकपूर पर अपने गुरू केदार शर्मा और दादागुरू देबकी बोस का गुणात्मक प्रभाव अंत तक बना रहा। उन पर एक प्रभाव अमिय चक्रवर्ती का भी थ जो मूलत: हिमांषु रॉय के बाम्बे टॉकिज के एक निर्देशक थे।
राजकपूर की तुलना में हृशिकेष मुखर्जी न्यू थियेटर्स के ज्यादा प्रतिनिधि फिल्मकार थे। वे बिमल रॉय के साथ - साथ देबकी बोस और पी. सी. बरूआ से भी प्रभावित थे। बिमल रॉय ने अपने कैरियर का प्रारंभ एक कैमरामैन के रूप में किया था। सिनेमैटोग्राफी उनके निर्देशन को प्रारंभ से ही नियंत्रित करती थी। जबकि हृशिकेष मुखर्जी ने अपनी शुरूआत एक संपादक के रूप में की थी। अत: एक निर्देशक के रूप में या पटकथा लेखक के रूप में उनका दृष्टिकोण संपादक की तरह किफायती बना रहता है। गुलजार के निर्देशन एवं लेखन पर उनका गीतकार वाला रूप हावी रहता है। आनंद केदार शर्मा के जोगन या चित्रलेखा की तरह नैरेटिव प्रधान फिल्म नहीं है। इसमें नैरेटिव और स्पेकटेकल का संपादकीय कौशल से किया गया किफायती संतुलन है। यह मूलत: प्रतीकात्मक एवं लाक्षणिक रूप से हिन्दू दृष्टि में जीवन एवं मृत्यु तथा भाग्य एवं पुनर्जन्म की आनंद - दायक कहानी कहती है। इसमें हिन्दू संस्कृति का उदात्त रूप पेश किया गया है जिसमें मुसलमान और ईसाई पात्रों को भी सहजता से जीवन जीने और संबंध बनाने में दिक्कत नहीं होती। आनंद फिल्म का हिन्दू धर्म भारतीय संस्कृति की तरह बहुआयामी, सहनशील एवं लचीला है।

आनंद फिल्म 1970 में बनी। इसकी कहानी हृशिकेष मुखर्जी ने खुद लिखी थी। अमेरिका में 1969 में द गॉड फादर उपन्यास का प्रकाशन हुआ था इसके लेखक मारियो पूजो थे। 1969 में शक्ति सामंत ने आराधना फिल्म बनायी थी जिससे राजेश खन्ना सुपर सितारा बने। इतालवी मूल के फ्रांसिस फोर्ड कपोला ने 1972 में 'द गॉड फादर' फिल्म का पहला भाग बनाया था। 1975 में इससे प्रेरित दो फिल्में बनीं फिरोज खान की धर्मात्मा और रमेश सिप्पी की शोले। भारत में अपराध का महिमामंडन 1975 से ही हुआ। लेकिन 'द गॉड फादर' में केवल अपराध का महिमामंडन नहीं था, फ्रांसिस फोर्ड कपोला ने माफिया को अमेरिकी पूंजीवाद के रूपक में बदल दिया था। गॉडफादर में अमेरिका में रहते आए एक इतालवी माफिया परिवार के 1945 से 1955 तक के दस सालों का वृतांत उकेरा गया है। यह दरअसल द्वितीय विश्वयुध्द के बाद उभरी विश्व व्यवस्था में अमेरिकी पूंजीवाद का उत्कर्ष काल है। द गॉडफादर का नायक एक बूढ़ा डॉन विटो कॉरलेऑन है जो अमेरिकी पूंजीवाद के प्रतीक माफिया परिवार का मुखिया है। बूढ़ा होता डॉन विटो हिंसा के आदेश देता है, जो दरअसल पूंजी और ताकत को हासिल करने की युक्तियां भी हैं। लेकिन फिल्म में माफियाओं के बीच खूनी खेल ही नहीं चलता, वहां अपराध के बीच परिवारों में मानवीय संबंधों के वृतांत भी दिखते हैं। यह फिल्म अपराध करने वालों के परिवारों में फैले प्रेम संबंधों, तनावों, इर्ष्या, वात्सल्य और रहस्यों की भूल भुलैया में भी उसी खूबी के साथ जाती है, जिस तरह वह हिंसा के नरक में उतरती है। एक बड़े माफिया परिवार के शीर्ष पर बैठे डॉन विटो का अपने परिवार से गजब का जुड़ाव है। विटो का अभिनय मार्लन ब्रैंडो ने निभाया था। इसके लिए उन्हें सबसे अच्छे अभिनेता का ऑस्कर भी मिला था। आनंद और गॉडफादर की तुलना करके भारतीय और अमेरिकी संस्कृति के अंतर को समझ सकते हैं। आनंद की मृत्यु के बाद पूरी फिल्म में करूणा की लहर फैल जाती है जबकि माफिया के दो गुटों के बीच लड़ाई में जब विटो के बेटे सनी की हत्या होती है तो बेटे का शव विराग नहीं और गहरी हिंसा का उत्प्रेरक बन जाता है। यह अधिकार क्षेत्र और शक्ति बनाए रखने का दुष्चक्र और विवशता है। भारत की पहली फिल्म ' राजा हीरश्चन्द्र' थी जबकि अमेरिका की पहली फिल्म ' द ग्रेट ट्रेन रॉबरी' थी। तब से भारतीय सिनेमा और अमेरिकी सिनेमा का मूल स्वर नहीं बदला है। 1970 के दशक में आनंद और द गॉडफादर इसका उदाहरण है।

          

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