महात्मा गांधी की पुस्तक हिन्दस्वराज का दार्शनिक आधार
पेज 2 मध्यकाल में चर्च के बड़े पादरियों पर भ्रष्टाचार के बड़े आरोप लगे। उन पर भोली भाली जनता के शोषण, अत्याचार का आरोप लगा। जैसे आजकल के प्रजातंत्र में राजनेताओं पर लगता है । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि मध्यकाल की आम जनता और उनकी सामाजिक - सांस्कृतिक संस्थाएं भी भ्रष्ट या अनैतिक थीं । आम जनता और प्रभु वर्ग के अंतर को समझना आवश्य है । इरिक फ्रॉम ने अपने अध्ययनों में इस ओर संकेत किया है । कुमारस्वामी के सम्प्रदाय में भी इसी ओर संकेत है । काल्विन के थियोलॉजी में प्रकृति और मनुष्येतर जीव मनुष्य की सुविधा या भोग के लिए हैं । केवल मनुष्य वह भी ईसा के अनुयायी मोक्ष पा सकते हैं । काल्विन मानते हैं कि संसार वीर भेग्या है । अत: वे वीर एवं सफल बनने के लिए प्रेरित करते हैं । उनके थियोलॉजी में साधन शुचिता पर ज्यादा जोर नहीं है । किसी भी साधन से सफलता पाने की होड़ में लगना वीर की निशानी है । इस थियोलॉजी में कमजोर व्यक्ति या जीव के लिए गरिमापूर्ण जीवन की कोई संभावना नहीं है । इस थियोलॉजी में केवल व्यक्ति काल्विन का अनुयायी व्यक्ति स्वायत्त एवं राज्य सम्प्रभु है । बाजार प्रकृति का सांस्कृतिक रुप है । पैसा पुण्य की भौतिक अभिव्यक्ति है । जिसके पास जितना ज्यादा पैसा है वह उतना हीं ईश्वर का दुलारा है । केवल वही स्वर्ग पाएगा । केवल उसे ही तरने का साल्वेशन का मौका मिलेगा । महात्मा गांधी एक सनातनी वैष्णव थे । उनके लिए धरती पर जीवों के जन्म का एक परम पावन लक्ष्य था । वे कहते थे कि हर जीव का प्रथम कर्त्तव्य आत्म- साक्षात्कार है । आत्म- साक्षात्कार के बाद अपने स्वभाव के अनुसार जीव अपना स्वधर्म चुनता है और अपने स्वधर्म के अनुसार वह अपने जीविकोपार्जन का साधन चुनता है । स्वैछिक रुप से स्वनाकुल कर्म करने के क्रम एवं प्रकिया में वह ब्रहम- साक्षात्कार करता है । वे मानते थे कि बिना नैतिक समाज व्यवस्था के नैतिक जीवन जीना संभव नहीं है । वे यह भी मानते थे कि बिना नैतिक साधन अपनाये नैतिक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती है । हिन्द स्वराज एक विपरीत समय में नैतिक साधनों के आधार पर नैतिक जीवन जीने के लिए एक मेनीफेस्टो या घोषणापत्र प्रस्तुत करती है । यह एक नैतिक समाज व्यवस्था और कल्याणकारी जीवन को सामुदायिक स्तर पर जीने के लिए बुनियादी शिक्षा देने वाली पुस्तिका है ।
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