प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय का पुनरोध्दार
पेज 2 इसी के मद्येनजर एक 'नालंदा मेंटर ग्रुप' की स्थापना हुई, जिसका अध्यक्ष नॉबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन को चुना गया। इसका काम है अंतरराष्ट्रीय सहयोग की संभावना पर विचार, विश्वविद्यालय का प्रशासनिक ढ़ांचा, इसकी वित्तीय व्यवस्था पर विचार और विद्यालय के पुनर्जीवन का प्रस्ताव पेश करना। अभी तक चार बैठकें - सिंगापुर, बीजिंग, टोकियो, और दिल्ली हो चुकी हैं, लेकिन रपट अभी तक तैयार नहीं हुई है। इसकी मंथर गति से लोग निराश हो रहे हैं। कई प्रकार की शंकाएं पैदा की जा रही है। पहला, क्या यह मेंटर ग्रुप नालंदा की संस्कृति और गरिमा के अनुरूप अपनी रपट में प्रारूप दे पाएगा? लोगों को चिंता है कि इस ग्रुप के सदस्य विद्वान अवश्य हैं , लेकिन बौध्द परंपरा का कोई अनुभव नहीं है। परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वतंत्र भारत में किसी भी महत्वपूर्ण संस्था या ढ़ांचा के निर्माण का इतिहास दुर्भाग्य से देरी, जरूरत से ज्यादा लागत, अक्षमता, भ्रष्टाचार और अवरोधों का इतिहास है, चाहे फिर वह स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, अस्पताल, सड़क या पुल निर्माण का मामला हो या फिर रेलवे, हवाई अड्डे का मामला हो। पिछले दशकों में एक समाज के तौर पर हमने यह मान लिया है कि शेडयूल तो सिर्फ 'नाम के वास्ते' होते हैं क्योंकि जिन्दगी की वास्तविकताएं इस पर टिके रहना असंभव बना देती हैं। आज किसी को व्यवस्था के बदलने पर भरोसा नहीं है। हम हमेशा आज के लिए योजना बनाते हैं और इसकी आपूर्ति कल नहीं वरन परसों होती है और हम एक राष्ट्र-राज्य के रूप में स्थायी कमियों में रहने के लिए लगातार खुद को कोसते रहते हैं। हमारे देश में विपत्ति की अपरिहार्यता, लचर-प्रदर्शन, अभाव, देरी, बर्बादी और भ्रष्टाचार को लेकर एक तरह की स्वीकृति का भाव रहा है। लेकिन अब यह चलने वाला नहीं है। हमारी युवा पीढ़ी ज्यादा सवाल पूछने वाली, सतत मांग करने वाली और स्वभाव से ही अधीर है। इस पीढ़ी के सवालों का जवाब भगवान बुध्द की वाणी एवं बौध्द परम्परा में है। सवाल है कि क्या नालंदा मेंटर ग्रुप नई पीढ़ी की आकांक्षाओं पर खरा उतरेगा ? यदि इसका उत्तर हां है तो नालंदा विश्वविद्यालय भारत के सांस्कृतिक नवजागरण का केन्द्र बनेगा अन्यथा समकालीन मगध विश्वविद्यालय का एक संशोधित रूप बनेगा।
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