Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय का पुनरोध्दार

प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय का पुनरोध्दार

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इसी के मद्येनजर एक 'नालंदा मेंटर ग्रुप' की स्थापना हुई, जिसका अध्यक्ष नॉबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन को चुना गया। इसका काम है अंतरराष्ट्रीय सहयोग की संभावना पर विचार, विश्वविद्यालय का प्रशासनिक ढ़ांचा, इसकी वित्तीय व्यवस्था पर विचार और विद्यालय के पुनर्जीवन का प्रस्ताव पेश करना। अभी तक चार बैठकें - सिंगापुर, बीजिंग, टोकियो, और दिल्ली हो चुकी हैं, लेकिन रपट अभी तक तैयार नहीं हुई है। इसकी मंथर गति से लोग निराश हो रहे हैं। कई प्रकार की शंकाएं पैदा की जा रही है। पहला, क्या यह मेंटर ग्रुप नालंदा की संस्कृति और गरिमा के अनुरूप अपनी रपट में प्रारूप दे पाएगा? लोगों को चिंता है कि इस ग्रुप के सदस्य विद्वान अवश्य हैं , लेकिन बौध्द परंपरा का कोई अनुभव नहीं है।
ये लोग हार्वर्ड-ऑक्सफोर्ड की तर्ज पर विश्वविद्यालय बनाने की सलाह दे सकते हैं, बौध्द परंपरा के चरित्र और ज्ञान निर्माण का प्रारूप तैयार करना इसके वश का नहीं है। और यदि यह हार्वर्ड-ऑक्सफोर्ड बना तो यह कोई नई बात नहीं होगी। दूसरा, क्या नालंदा के इर्द-गिर्द वैसा सामाजिक और आर्थिक धरातल तैयार किया जा सकता है, जो नालंदा के उत्कर्ष काल में था? कोई भी संस्था सामाजिक और आर्थिक धरातलों से भिन्न परिस्थिति में पनप नहीं सकती है। नालंदा देश का गरीब इलाका है, हिंसा यहां की दिनचर्या है और इसके प्रवर्तकों में उस त्याग की कमी है, जो उस जमाने में पाया जाता था। गौतम बुध्द के आदर्शों का प्रतीक नालंदा विश्वविद्यालय, ऑक्सफोर्ड, जिसका जन्म 1167 में हुआ, की संस्कृति और सभ्यता से प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
नालंद में एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय शिक्षण संस्थान की स्थापना करने की शर्त है कि बिहार का तेज आर्थिक विकास हो, जिससे वहां की गरीबी मिटाई जा सके। आज का बिहार देश का सबसे गरीब इलाका है। साथ ही, सामाजिक समरसता को स्थापित करने की जरूरत है, क्योंकि बुध्द का यह एक महत्वपूर्ण संदेश है। आज बिहार की शिक्षा का स्तर बहुत खराब है। वहां के छात्र बिहार से बाहर पढ़ने जा रहे हैं और लोग काम की तलाश में दूसरें प्रांतों में जा रहे हैं। नालंदा के पुनर्जीवन की लालसा सही है मगर चुनौतियां कई हैं। नालंदा विश्वविद्यालय प्राचीन मगध साम्राज्य के वैभव एवं समृध्दि का प्रतीक था जबकि आज मगध गरीबी, असुविधा एवं निराशा का प्रतीक है। इस मगध के नालंदा में विश्व स्तर का विश्वविद्यालय बने यह अपने आप में मुश्किल लेकिन वांक्षणीय घटना होगी।

परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वतंत्र भारत में किसी भी महत्वपूर्ण संस्था या ढ़ांचा के निर्माण का इतिहास दुर्भाग्य से देरी, जरूरत से ज्यादा लागत, अक्षमता, भ्रष्टाचार और अवरोधों का इतिहास है, चाहे फिर वह स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, अस्पताल, सड़क या पुल निर्माण का मामला हो या फिर रेलवे, हवाई अड्डे का मामला हो। पिछले दशकों में एक समाज के तौर पर हमने यह मान लिया है कि शेडयूल तो सिर्फ 'नाम के वास्ते' होते हैं क्योंकि जिन्दगी की वास्तविकताएं इस पर टिके रहना असंभव बना देती हैं। आज किसी को व्यवस्था के बदलने पर भरोसा नहीं है। हम हमेशा आज के लिए योजना बनाते हैं और इसकी आपूर्ति कल नहीं वरन परसों होती है और हम एक राष्ट्र-राज्य के रूप में स्थायी कमियों में रहने के लिए लगातार खुद को कोसते रहते हैं। हमारे देश में विपत्ति की अपरिहार्यता, लचर-प्रदर्शन, अभाव, देरी, बर्बादी और भ्रष्टाचार को लेकर एक तरह की स्वीकृति का भाव रहा है। लेकिन अब यह चलने वाला नहीं है। हमारी युवा पीढ़ी ज्यादा सवाल पूछने वाली, सतत मांग करने वाली और स्वभाव से ही अधीर है। इस पीढ़ी के सवालों का जवाब भगवान बुध्द की वाणी एवं बौध्द परम्परा में है। सवाल है कि क्या नालंदा मेंटर ग्रुप नई पीढ़ी की आकांक्षाओं पर खरा उतरेगा ? यदि इसका उत्तर हां है तो नालंदा विश्वविद्यालय भारत के सांस्कृतिक नवजागरण का केन्द्र बनेगा अन्यथा समकालीन मगध विश्वविद्यालय का एक संशोधित रूप बनेगा।

 

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