रंग और होली
पेज 1 हर सभ्यता ने रंग को अपने लिहाज से गढ़ा है लेकिन इत्तेफाक से किसी ने भी ज्यादा रंगों का नामकरण नहीं किया । ज्यादातर भाषाओं में रंगों को दो ही तरह से बांटा गया है। पहला सफेद यानी हल्का और काला यानी चटक अंदाज लिए हुए। 1672 में नयूटन ने रंगो पर अपना पहला पेपर प्रस्तुत किया था जो बहुत विवादों में रहा। गाथे ने न्यूटन के सिध्दांत को पूरी तरह नकारते हुए 'थ्योरी ऑफ कलर्स' नामक किताब लिखा। गोथे के सिध्दांत अरस्तु से मिलते हैं। गोथे ने कहा कि गहरे अंधेरे में से सबसे पहले नीला रंग निकलता है, यह गहरेपन को दर्शाता है। वहीं उगते हुए सूरज में से पीला रंग सबसे पहले निकलता है जो हल्के रंगों का प्रतिनिधित्व करता है। 19 वीं शताब्दी में कलर थेरेपी का प्रभाव कम हुआ लेकिन 20वीं शताब्दी में यह नए स्वरूप में पैदा हुआ। आज के कई डाक्टर कलर थेरेपी को इलाज का बढ़िया माध्यम मानकर इसका इस्तेमाल करते हैं। प्राचीन मिस्र समाज का सूर्य की पूजा करने का सिध्दांत आधुनिक युग में भी काम आ रहा है। आज सूर्य हमारी सेंट्रल हीटिंग प्रणाली और लाइट सिस्टम को रोशन कर रहा है। सूय की रोशनी के अभाव में ठंडे मुल्कों के लोगों को सीजनल इफेक्टिव डिस ऑडर से जूझते हुए देखते हैं। विक्टोरियन काल में ज्यादातर लोग काला या स्लेटी रंग पहनते थे। रंग विशेषज्ञ मानते हैं कि हमें प्रकृति से सानिध्य बनाते हुए रंगों को कलर थेरेपी के बजाव जिन्दगी के तौर पर अपनाना चाहिए। अरस्तु ने 4थी शताब्दी ईसापूर्व में नीले और पीले की गिनती प्रारंभिक रंगो में की। इसकी तुलना प्राकृतिक चीजों से की गई जैसे सूरज-चांद, स्त्री-पुरूष, फैलना-सिकुड़ना, दिन-रात, आदि। यह तकरीबन दो हजार वर्षों तक प्रभावी रहा। 17-18वीं शताब्दी में न्यूटन के सिध्दांत ने इसे सामान्य रंगों में बदल दिया। भारत में होली सबसे सरस पर्व है। यह अस्तित्व के आनंद का उत्सव है। होली में किसी प्रकार का द्वंद्व नहीं है। 'फागुन में ससुर जी देवर लगे'- ससुर में देवरपन हमेशा मौजूद था, पर वह उभरता तब है जब उसे आवश्यक उद्यीपन मिलता है। यह उद्यीपन बहू देती है। बहू में भी सनातन नारी साल भर जीवित रहती है, पर बाहर आने के लिए वह उचित मौसम का इंतजार करती है। प्रकृति की सचेतनता वसंत ऋतु में पूरे शबाब में होती है। वसंत ही एकमात्र ऋतु है जिसका कोई अतिरेक नहीं हो सकता। वसंत ऋतु परिवर्तन के पूरे चक्र का उत्कर्ष है। इसी के लिए प्रकृति साल भर तैयारी करती है। वसंत प्रकृति का यौवन भी है और उसकी रचनात्मकता का चरम उभार बिंदु भी। उसमें आनंद ही आनंद है, रस ही रस है, जीवन ही जीवन है। इसीलिए संपूर्ण जीव जगत के साथ उसकी अनुकूलता है। वसंत में प्रकृति खुलती और खिलती है। संस्कृति के निरंतर विकास ने न केवल शरीर को कोमल और सुंदर बनाया है, बल्कि दो शरीरों के बीच कला का इतना बड़ा सागर पैदा किया है जिसमें हम निरंतर खेलते रहते हैं। होली इसी सांस्कृतिकता का उत्सव है। नर- नारी का आर्कषण एक विशिष्ठ प्रकार का आर्कषण है, जिसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। इसीलिए सभी भक्त ईश्वर को अपना माशूक मानकर उसकी मादक अनूभुति से घिरे रहते हैं। अतिशय निकटता नए आविष्कार करने की क्षमता को कुंद कर देती है। निष्प्रयास स्वीकृति प्रेम को आलसी बना देती है। पूरी तरह स्वकीय और पूरी तरह परकीय दोनों बोरियत देते हैं। आर्कषण की डोरी अतिशय तनाव से टूट कर गिर सकती हैं और बहुत ज्यादा ढीली हो जाने पर लुंज-पुंज हो जाती है। दोनों ही संस्करण घातक हैं। होली के त्योहार में हर स्त्री और हर पुरूष को थोड़ा स्वकीय और थोड़ा परकीय बनने का मौका मिलता है। जैसे प्रकृति की व्यवस्था अभिन्न है। हर जर्रा दूसरे जर्रे का ससुराल या मायका। यह एक साथ अध्यात्म एवं प्रेम दोनो है। रंग में रस है। रस ध्वनि तथा स्पर्श में है। रंग होली का मुख्य दूत है। प्रकृति भी इस मौसम में अपने रंगों का पूरा खजाना खोल देती है। होली के सांस्कृतिक पर्व में पुरूष-स्त्री भौरा एवं फूल बन जाते हैं ताकि रस, रंग एवं होली मिलन हो सके और जिंदगी में आनंद की रसधार पूरे साल बहती रहे। एक होली से दूसरी होली के बीच प्रकृति में नित्योत्सव चलते रहता है। इसको यज्ञोत्सव भी कह सकते हैं। प्रकृति के यज्ञोत्सव को समझना एवं महसूसना संभव है। केवल टहलते हुए भी इसको समझा जा सकता है। खासकर के प्राकृतिक वातावरण में नियमित भ्रमण करके ऋतु चक्र के भीतर प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक संवत्सर को महसूस किया जा सकता है। इसके लिए व्यक्ति को अपनी भीतरी उलझन से बाहर आना होगा।
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