सनातन सत्य
पेज 1 इस दुनिया में जिस भी चीज का अस्तित्व है वह अकारण नहीं है। वह अनापेक्षित, अवांक्षित नहीं है। अस्तित्व का कारण कामना या डिज़ायर ही होता है। संसार में जो कुछ भी है वह ईश्वर की इच्छा एवं मर्जी के कारण ही है। संसार में जो कुछ भी है वह ईश्वरीय लीला का अंश है। संसार में अस्त्विवान हर चीज़ की ईश्वर की लीला में एक निश्चत भूमिका है। हर अस्त्विवान चीज़ संसार में स्थित हर दूसरी चीज़ से ईश्वरीय योजना के अनुसार गहरे अर्थ में संबंधित है खासकर आस-पड़ोस में उपलब्ध चीजों में गहरा अंत:संबंध पाया जाता है। इकोलॉजी या पर्यावरण पड़ोस की प्राकृतिक सीमा है । अर्जुन को गीता सुनने से समझ में नहीं आयी। तब श्रीकृष्ण ने अपना विश्वरूप दिखलाया। साम्प्रदायिक आचार्य अपने युग, भाषा और शिष्यों की मनोभूमि को ध्यान में रखकर अपनी गीता (= दर्शन/भाष्य) विकसित करते हैं और विश्वरूप (=ritual =samskar= visual of the cosmos) को एक फार्मुला या सगुण उदाहरण (test case) के रूप में विकसित करते हैं। इसको सम्पूर्णता में चेतना की उच्चतम अवस्था में ही समझा जा सकता है। इस चेतना के बाद व्यक्ति मुक्त हो जाता है। वह शून्य में स्थित हो जाता है। यह निर्गुण की स्थिति है। यह सृजनरूप वेद = संसार के अंत (वेदांत= transcendental consciousness)की स्थिति है। इस अद्वैत वेदांत की स्थिति से विश्वरूप देखने की पात्रता बनती है। विश्वरूप देखने-समझने के बाद युगानुकूल सम्प्रदाय बनाने की पात्रता बनती है। इससे पहले परम शांति नहीं मिलती। इससे पहले जिज्ञासाओं, प्रश्नों, समस्याओं का समाधान नहीं मिलता। मौन नहीं सधती। काम, क्रोध, मोह, अहंकार से मुक्ति भी नहीं मिलती। भक्ति भी नहीं संभव हो पाती। व्यक्ति अपने स्वभाव और स्व धर्म में टिक भी नहीं पाता। विश्वास में स्थिरता नहीं आती। इससे पहले चीजें अंतरविरोधी, अवांक्षणीय एवं असंबध्द दिखती हैं। इससे पहले सुधार, हस्तक्षेप की आवश्यकता महसूस होती है। इससे पहले व्यक्ति बिना कुछ किए बेचैन रहता है। कुछ करने से कर्त्तव्य का अभिमान होता है। अत: भक्त परेशान नहीं होते। वे अपने प्रभु= विश्वरूप को देख लेने के बाद समझ लेने के बाद, कर लेने के बाद परेशान नहीं होते। भक्त देखते हैं। ज्ञानी समझते हैं-सुनकर या पढ़कर। कर्मवादी अपने मुख्य कर्मकांड के स्वरूप के आधार पर विश्वरूप की अनुकृति की रचना कर लेते हैं और इस कर्म को नियमित साधना के रूप में करते रहते हैं। इस दृष्टि से भक्ति मार्ग एवं दुनिया के सारे धार्मिक - सांस्कृतिक विमर्शों का काम आम आदमी को मूल प्रश्नों (noumenal questions) की चिंता से मुक्त करके जिंदगी की जद्दोजहद (संसार) को प्रासंगिक बनाये रखने की है। इस संसार में हर पीढ़ी को अपनी जिन्दगी की जद्दोजहद नए सिरे से लड़नी पड़ती है। यह जिन्दगी केवल श्री कृष्ण की लीला स्थली नहीं, सनातन युध्द भी है जिसमें हर जीव अपने आप में अर्जुन है- दुविधाग्रस्त योध्दा। वह युध्द नहीं लड़ना चाहता, लेकिन उसे न सिर्फ लड़ना पड़ता है बल्कि किसी न किसी तरह जीतना पड़ता है। इस युध्द में हम हारने के लिए भी स्वतंत्र नहीं है। रणछोड़ कर भागने के लिए श्रीकृष्ण की तरह कूबत (अवतारी पुरूष, पूर्णावतार) चाहिए। वर्ना रणछोड़ कर जान बचाना जिन्दगी भर सालती रहती है। कर्त्तव्य और अधिकार के युग्म से ही जिन्दगी अर्थपूर्ण बनता है। संसार के सारे विमर्श में पात्रता कर्तव्य और अधिकार के युग्म पर ही आधारित है। कर्तव्य से भागकर (रणछोड़ कर) आप न तो जिन्दगी में अधिकार पा सकते हैं, न सफलता, न चैन।
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