Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

सत्ता का भारतीय खेल

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सत्ता का भारतीय खेल

 

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इसी तरह उत्तर आधुनिक युग में किसी भी चीज का तीन जीवन होता है - पहला मशीन उत्पाद के रूप में, दूसरा बाजारू उत्पाद के रूप में और तीसरा फैशनेबुल उत्पाद के रूप में। सभी औद्योगिक उत्पाद मूलत: सैन्य (मिलिटरी) विज्ञान एवं तकनीकी द्वारा बनाये जाते हैं और बाद में उनका असैनिक उपयोग किया जाता है। ऐसे उत्पादों की मशीन के रूप में आयु 20 वर्ष के आसपास होती है, बाजारू उत्पाद के रूप में उनकी आयु 10 वर्ष के आसपास होती है और फैशनेबुल उत्पाद के रूप में इनकी आयु 5 वर्ष के आसपास होती है। इसके बाद इन्हें बिना किसी तर्क के गैर उपयेगी पिछड़ा फालतू बेकार मान लिया जाता है। पहले हथियारों का आक्रामक एवं प्रतिरक्षात्मक दोनों उपयोग होता था। युध्द मूलत: दो सेनाओं के बीच होती थी। सैनिक स्वेच्छा से मरने -मारने को तैयार होते थे। इच्छा शक्ति और वीरता का महत्व होता था। अब हथियार केवल आक्रामक होते हैं। एटम बम प्रतिरक्षात्मक हो ही नहीं सकते। ये केवल आक्रामक होते हैं। पहले एक मनुष्य के जीवन में 2 - 3 बार फैशन बदलता था। अब साल में दो बार फैशन बदल जाता है। पहले क्रिकेट में टेस्ट मैच साल में 2 - 3 बार खेला जाता था। अब पूरे साल क्रिकेट का कोई न कोई मैच चलते रहता है। यह केवल पूंजीवादी सांस्कृतिक उद्योग का मामला नहीं है। केवल वैज्ञानिक खोज या इनोवेशन का मामला नहीं है, समय के अतितेज गति का मामला भी है। अब वैज्ञानिक खोज का लक्ष्य बेहतर तकनीक न होकर लक्ष्यहीन गति के फैशनेबुल बन जाने का मामला है। अब जिन्दगी का कोई उदात्त लक्ष्य नहीं है। अब इन्सटैंट सफलता, फास्ट फूड एवं क्षणभंगुर यश का मामला है। अब लक्ष्य और साधन के बीच कोई नैतिक संबंध नहीं है। हम मूल्यहीनता के उत्तरआधुनिक युग में जी रहे हैं। एक ऐसे युग में भारतीय समाज कई स्तरों पर संक्रमण से गुजर रहा है। इस संक्रमण को समझने का काम न भारतीय राजनीति में हो रहा है और न ही भारतीय सिनेमा में। महात्मा गांधी की विचारधारा सत्ता के सार्वभौमिक खेल को समझने की दृष्टि देती है।
गांधी के विजन में अपने समय से आगे देखने की क्षमता थी। 1909 में प्रकाशित हिन्दस्वराज में 2010 के विश्वग्राम को समझने का सूत्र है। 30 जनवरी 1948 को गांधी जी की हत्या कर दी गई। लेकिन उनकी पुस्तकों में सत्ता के खेल और वैकल्पिक सभ्यता दोनों का विवेचन है। गांधी जी को हथियार पर नहीं आत्मबल और सत्याग्रह पर भरोसा था। जबकि उत्तर आधुनिक वैज्ञानिक आत्म - छल (सेल्फ डिसेप्सन) में जीते हैं। फलस्वरूप उनका बौध्दक विमर्श काफी खोखला होता है। इस खोखलेपन पर राजकुमार हीरानी की फिल्में व्यंग तो कर लेती हैं लेकिन ठोस विकल्प प्रस्तुत नहीं कर पातीं। आशुतोष गोवारिकर के स्वदेश में ग्रामीण विकास का ठोस मुद्दा उठाया गया है लेकिन स्वदेश का गांव 2005 के भारत का वास्तविक गांव न होकर एक कृत्रिम गांव है। इसी तरह मधुर भंडारकर की फिल्मों में भारतीय जीवन के समकालीन यथार्थ को प्रस्तुत करने की दस्तावेजी (डाक्युमेंटरी) कोशिश तो होती है लेकिन 2002 में रिलीज हुई 'सत्ता' को छोड़कर वे विकल्पों की बात नहीं करते। 'सत्ता' को मनोज त्यागी और मधुर भंडारकर दोनों ने मिलकर लिखा था। वे एक ही फिल्म में बहुत सारी बातें कहने के लोभ में पड़ गए फलस्वरूप 'सत्ता' महाराष्ट्र प्रदेश की राजनीति पर एक विश्वसनीय फिल्म नहीं बन पायी। इस फिल्म में 2002 तक की भारतीय राजनीति के विभिन्न शेड्स प्रस्तुत् किये गए हैं। भारतीय राजनीति में सत्ता के खेल का कुरूप यथार्थ और अंतर्निहित संभावना पर यह कहा गया है कि कुरूप यथार्थ को सुधारने के लिए साधन शुचिता न आवश्यक है और न वांछनीय। सत्ता की नायिका अनुराधा सहगल में सोनिया गांधी का प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है। परन्तु फिल्म 2002 में बनी थी जबकि सोनिया का व्यक्तित्व मई 2004 के लोकसाभा चुनाव में उभरा। एक महत्वपूर्ण विषय पर कलात्मक दृष्टि से 'सत्ता' एक औसत फिल्म है। इसका गीत और संगीत अति सामान्य है। फिर भी, 'सत्ता' फिल्म को आधार बनाकर स्वतंत्र भारत के सत्ता के खेल पर गंभीर चर्चा की जा सकती है।
अपनी हर कुरूपता के बावजूद भारतीय राजनीति में फिल्म सत्ता के पात्र अन्ना साहब जोशी जैसे समर्पित राजनेता, पवार जैसे ईमानदार और कर्मठ इन्सपेक्टर और अनुराधा सहगल जैसी चमत्कारिक नायिका की कमी नहीं है। ये लोग यदि आपस में सहयोग करें तो राजनीति सत्ता का खेल नहीं बल्कि लोकसेवा का माध्यम बन एकता है। यह ठीक है कि अभी भारतीय राजनीति में यशवंत जैस पावर ब्रोकर, बेग जैसे माफिया और चौहान परिवार जैसे क्षत्रपों की संख्या ज्यादा है जो राजनीति को मनी (पैसा) मसल्स पॉवर (हिंसक माफिया) और ब्रेन (कूटनीतिक जोड़तोड़ में माहिर लोग) का योगफल मानते हैं, लेकिन यदि अनुराधा सहगल जैसी चमत्मकारिक नायिका चाहे तो वैकल्पिक राजनीति का बीज बोया जा सकता है। व्यवस्था परिवर्तन किया जा सकता है। आशा की किरण जगाई जा सकती है। 
यह कितनी चिंतनीय बात है कि अखंडित भारत अब केवल फिल्मों में ही देखा जा सकता है। यथार्थ में विघटनकारी शक्तियां सफल सी होती दिख रही हैं। आज भारतीय राजनीति में ऐसे नेता ही नहीं हैं, जो देश के किसी भी क्षेत्र से चुनाव जीत सकें। विभाजन के पहले मुंबई, लाहौर, कोलकता और चेन्नई फिल्म निमार्ण के महत्वपूर्ण केन्द्र थे। लाहौर के फिल्म उद्योग में गुजराती मूल के दलसुख पंचोली शिखर पर थे। फिल्म निमार्ण के चार केन्द्रों के कारण ही भारतीय सिनेमा की भाषा में सभी भाषाओं के शब्द लिए गए ताकि कोलकाता में बनी फिल्मों को लाहौर, चेन्नई और मुंबई के लोग भी समझ सकें। हिंदुस्तानी सिनेमा की लोकप्रिय संस्कृति में विविध आंचलिकता का समावेश भी हुआ और लोकगीत तथा लोकमुहावरों का संगम भी देखा जा सकता है। इसी तरह अरब के रेगिस्तान में रहने वालों के साहित्य, संस्कृति एवं कला में जन्नत की अवधारणा में शीतल चन्द्रमा और पानी का होना स्वाभाविक है।

उसी तरह यूरोप के ठंढ़े प्रदेशों में बर्फ की चादर फैली रहती है। अत: उनके हेवेन (स्वर्ग) की अवधारणा में सूर्य की गर्मी और आग का होना स्वाभाविक है। इसके विपरीत भारत में गर्मी और सर्दी - अग्नि और सोम दोनों का बराबर महत्व है। यहां का मौसम समशीतोष्ण है। अत: यहां सूर्य और चन्द्रमा दोनों का बराबर महत्व है। वैदिक साहित्य में सेमेटिक (सामी) धर्मों की तरह स्वर्ग एवं नर्क की अवधारणा नहीं है। भारत में मौसम अपने फूलों, फलों, रंगों और खुशबू की जुबान में प्रकृति और संस्कृति के मिलन का पैगाम देती है। प्रकृति की सामान्य चाल और मौसम के सामान्य बदलाव किन और कितने लोगों को अपनी चपेट में ले लेती है ? हमारे आर्थिक प्रबंधक और कर्त्ता धर्त्ता ऊँची बचत दर, अर्थव्यवस्था की तेज वृध्दि की चर्चा तो करते हैं लेकिन वे यह नहीं बतलाते कि राजनेताओं और अधिकारियों के लिए कितनी सरकारी राशी खर्च की जाती है और आमजन की जरूरतों के लिए कितनी ? पिछले साठ सालों से तो बजट का सबसे बड़ा हिस्सा सरकारी कर्मचारियों के वेतन और अन्य सुविधाओं पर प्रतिरक्षा और शहरी ढांचे को समृध्द बनाने पर खर्च होता रहा है। कमसे कम एक साल तो बजट का लक्ष्य शिक्षा, स्वास्थ या कृषि का विकास हो सन 1945 - 46 में भारत के सात उद्योगपंतियों ने देश के विकास हेतु 'बम्बई - प्लान' बनाया था। उनका एक लक्ष्य यह भी था कि हर परिवार को एक छोटा सा घर मिले और साथ में तीस गज कपड़ा सलाना और हर दिन पेट भर खाना। अब विश्वस्तरीय अमीरों में सबसे ज्यादा संख्या भारतीयों की है परन्तु वास्तविक क्रयशक्ति के आधार पर अभी भी 1973 - 74 के स्तर पर गरीबी रेखा का निर्धारण करने के बावजूद गरीबों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। लुभावने नारों के क्रम में अब समावेशी विकास का जुमला जरूर जोड़ा गया है किन्तु कोई भी यह नहीं बता रहा है कि वर्तमान आर्थिक नीतियों पर चलकर कितनी सदियों में हर भारतीय भौतिक - सांस्कृतिक - मानवीय मूल्यों पर आधारित न्यूनतम जीवन - स्तर और सामाजिक सुरक्षा प्राप्त कर पाएगा। कब, कैसे और कैसा समाजिक समावेशन हम हासिल करने जा रहे हैं ?

 

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