सत्ता का भारतीय खेल
पेज 4 इसी तरह उत्तर आधुनिक युग में किसी भी चीज का तीन जीवन होता है - पहला मशीन उत्पाद के रूप में, दूसरा बाजारू उत्पाद के रूप में और तीसरा फैशनेबुल उत्पाद के रूप में। सभी औद्योगिक उत्पाद मूलत: सैन्य (मिलिटरी) विज्ञान एवं तकनीकी द्वारा बनाये जाते हैं और बाद में उनका असैनिक उपयोग किया जाता है। ऐसे उत्पादों की मशीन के रूप में आयु 20 वर्ष के आसपास होती है, बाजारू उत्पाद के रूप में उनकी आयु 10 वर्ष के आसपास होती है और फैशनेबुल उत्पाद के रूप में इनकी आयु 5 वर्ष के आसपास होती है। इसके बाद इन्हें बिना किसी तर्क के गैर उपयेगी पिछड़ा फालतू बेकार मान लिया जाता है। पहले हथियारों का आक्रामक एवं प्रतिरक्षात्मक दोनों उपयोग होता था। युध्द मूलत: दो सेनाओं के बीच होती थी। सैनिक स्वेच्छा से मरने -मारने को तैयार होते थे। इच्छा शक्ति और वीरता का महत्व होता था। अब हथियार केवल आक्रामक होते हैं। एटम बम प्रतिरक्षात्मक हो ही नहीं सकते। ये केवल आक्रामक होते हैं। पहले एक मनुष्य के जीवन में 2 - 3 बार फैशन बदलता था। अब साल में दो बार फैशन बदल जाता है। पहले क्रिकेट में टेस्ट मैच साल में 2 - 3 बार खेला जाता था। अब पूरे साल क्रिकेट का कोई न कोई मैच चलते रहता है। यह केवल पूंजीवादी सांस्कृतिक उद्योग का मामला नहीं है। केवल वैज्ञानिक खोज या इनोवेशन का मामला नहीं है, समय के अतितेज गति का मामला भी है। अब वैज्ञानिक खोज का लक्ष्य बेहतर तकनीक न होकर लक्ष्यहीन गति के फैशनेबुल बन जाने का मामला है। अब जिन्दगी का कोई उदात्त लक्ष्य नहीं है। अब इन्सटैंट सफलता, फास्ट फूड एवं क्षणभंगुर यश का मामला है। अब लक्ष्य और साधन के बीच कोई नैतिक संबंध नहीं है। हम मूल्यहीनता के उत्तरआधुनिक युग में जी रहे हैं। एक ऐसे युग में भारतीय समाज कई स्तरों पर संक्रमण से गुजर रहा है। इस संक्रमण को समझने का काम न भारतीय राजनीति में हो रहा है और न ही भारतीय सिनेमा में। महात्मा गांधी की विचारधारा सत्ता के सार्वभौमिक खेल को समझने की दृष्टि देती है। उसी तरह यूरोप के ठंढ़े प्रदेशों में बर्फ की चादर फैली रहती है। अत: उनके हेवेन (स्वर्ग) की अवधारणा में सूर्य की गर्मी और आग का होना स्वाभाविक है। इसके विपरीत भारत में गर्मी और सर्दी - अग्नि और सोम दोनों का बराबर महत्व है। यहां का मौसम समशीतोष्ण है। अत: यहां सूर्य और चन्द्रमा दोनों का बराबर महत्व है। वैदिक साहित्य में सेमेटिक (सामी) धर्मों की तरह स्वर्ग एवं नर्क की अवधारणा नहीं है। भारत में मौसम अपने फूलों, फलों, रंगों और खुशबू की जुबान में प्रकृति और संस्कृति के मिलन का पैगाम देती है। प्रकृति की सामान्य चाल और मौसम के सामान्य बदलाव किन और कितने लोगों को अपनी चपेट में ले लेती है ? हमारे आर्थिक प्रबंधक और कर्त्ता धर्त्ता ऊँची बचत दर, अर्थव्यवस्था की तेज वृध्दि की चर्चा तो करते हैं लेकिन वे यह नहीं बतलाते कि राजनेताओं और अधिकारियों के लिए कितनी सरकारी राशी खर्च की जाती है और आमजन की जरूरतों के लिए कितनी ? पिछले साठ सालों से तो बजट का सबसे बड़ा हिस्सा सरकारी कर्मचारियों के वेतन और अन्य सुविधाओं पर प्रतिरक्षा और शहरी ढांचे को समृध्द बनाने पर खर्च होता रहा है। कमसे कम एक साल तो बजट का लक्ष्य शिक्षा, स्वास्थ या कृषि का विकास हो सन 1945 - 46 में भारत के सात उद्योगपंतियों ने देश के विकास हेतु 'बम्बई - प्लान' बनाया था। उनका एक लक्ष्य यह भी था कि हर परिवार को एक छोटा सा घर मिले और साथ में तीस गज कपड़ा सलाना और हर दिन पेट भर खाना। अब विश्वस्तरीय अमीरों में सबसे ज्यादा संख्या भारतीयों की है परन्तु वास्तविक क्रयशक्ति के आधार पर अभी भी 1973 - 74 के स्तर पर गरीबी रेखा का निर्धारण करने के बावजूद गरीबों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। लुभावने नारों के क्रम में अब समावेशी विकास का जुमला जरूर जोड़ा गया है किन्तु कोई भी यह नहीं बता रहा है कि वर्तमान आर्थिक नीतियों पर चलकर कितनी सदियों में हर भारतीय भौतिक - सांस्कृतिक - मानवीय मूल्यों पर आधारित न्यूनतम जीवन - स्तर और सामाजिक सुरक्षा प्राप्त कर पाएगा। कब, कैसे और कैसा समाजिक समावेशन हम हासिल करने जा रहे हैं ?
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