Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता

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भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता

 

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 संस्कृति के अंतर्गत तकनीक, उपकरण, भौतिक वस्तुएं, उपभोक्ता वस्तुएं, गृह सज्जा एवं भवन निर्माण कलाओं, उत्पादन विधियों, व्यापार, वाणिज्य, युध्द कला  एवं अन्य सामाजिक गतिविधियों को शामिल किया जाता है। अभौतिक संस्कृति के अंतर्गत मानदंडों, मूल्यों, विश्वासों, मिथकों, अनुष्ठानों, साहित्य, कर्मकाण्ड, कला रूपों  एवं अन्य बौध्दिक-साहित्यिक गतिविधियों को सम्मिलित किया जाता है। संस्कृति के दोनों पहलू सामान्यत: एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। परन्तु कभी-कभी भौतिक संस्कृति में जल्दी परिवर्तन हो जाता है जबकि अभौतिक संस्कृति में काफी धीमी गति से परिवर्तन होता है।


2  भारतीय संस्कृति की अवधारणा :
सामाजिक संरचना की दृष्टि से समाजशास्त्रियों द्वारा पारंपरिक भारतीय संस्कृति का संबंध मोटे तौर पर राजाओं, पुजारियों, साधुओं, मुनियों, सन्यासियों, भिक्षुओं, विद्वानों, धनपतियों एवं समृध्द समूहों के साथ जोड़ा जाता है। परन्तु यह एक प्रकार के दृष्टि असंतुलन का उदाहरण है। पारंपरिक भारतीय संस्कृति की संरचना में सबसे प्रमुख स्थान गृहस्थ किसान या शिल्पकार का है। आचार्य नरेन्द्र देव ने संस्कृति को चित की खेती कहा है। पारंपरिक भारतीय संस्कृति को समकालीन संस्कृति विमर्श के दायरे में समझा ही नहीं जा सकता। समकालीन संस्कृति विमर्श के केन्द्र में यूरोपीय 'कल्चर ' विमर्श का अतिरंजित प्रभाव है। अंग्रेजी शब्द 'कल्चर ' और संस्कृत शब्द संस्कृति में गुणात्मक अन्तर है। जर्मन विद्वानों ने 'कल्चर ' शब्द की व्याख्या      आधुनिक सभ्यता के पूंजीवादी संदर्भ को एकमात्र सभ्यता मानकर किया है। इस संदर्भ में 'कल्चर 'का संबंध अभिजात संस्कृति से है। अभिजात संस्कृति पूंजीवादी उद्योगों का एक कृत्रिम उत्पाद है। थियोडोर एडोर्नो तथा रेमण्ड विलियम्स जैसे विद्वानों ने इसी अभिजात संस्कृति को संस्कृति उद्योग के उत्पाद के रूप में विश्लेषित किया है। यह पश्चिम का दुर्भाग्य है कि इसने अपने समाज में आधुनिकता पूर्व वाले सांस्कृतिक विरासत को बचाकर नहीं रखा। पश्चिम में परंपरा एक काल्पनिक वस्तु है जिसका समाज एवं संस्कृति में कोई वजूद नहीं है। इसका अस्तित्व केवल कला, साहित्य और सिनेमा में है परंतु इस परंपरा का पश्चिम के समाज से कोई जीवंत रिश्ता न है, न हो सकता है। यह आधुनिकता से उकताये कुछ पश्चिमी कलाकारों,साहित्यकारों एवं संवेदनशील व्यक्तियों की काल्पनिक फंटैसी, स्वप्न या यूटोपिया का उदाहरण है। ऐसे ही कुछ विद्वानों ने भारत जैसे पारंपरिक देशों को अपने रूमानी यूटोपिया की अभिव्यक्ति के रूप में पेश करना चाहा है। इस तरह की प्रस्तुति आज प्राच्यवाद या भारतविद्या के नाम से आधुनिक विश्वविद्यालयों में लोकप्रिय है। इसकी भारत में बढ़ती लोकप्रियता घातक है।

यूरोप की तुलना में भारत एक जटिल सभ्यता है। इसकी संस्कृति को समझने के लिए इसकी भाषा परंपरा को समझना आवश्यक है। इसके निवासियों की प्रथाएं तथा रीति-रिवाजों को समझना आवश्यक है। इसकी विविधता के बीच इसकी एकता को समझना आवश्यक है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक, उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक, पूर्वी भारत से लेकर पश्चिमी भारत तक ; संस्कृत, पालि प्राकृत, तमिल से लेकर समकालीन भारतीय भाषाओं और बोलियों तक ; हिन्दू, जैन, बौध्द, सिक्ख से लेकर मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहुदी और प्रकृति पूजक भारतीयों के बीच तक भारतीय संस्कृति के स्वरूप में कुछ मूलभूत समानतायें हैं। उपरी मतभेदों , आवरणभेद, अभिव्यक्ति भेद के बावजूद कुछ समानतायें हैं। सबसे बड़ी समानता यह है कि भारतीय लोग संस्कृति को प्रकृति का संस्कार या परिष्कार मानते हैं। पश्चिम में प्रकृति को संस्कृति और सभ्यता का विलोम माना जाता है। फ्रायड से लेकर मार्क्स तक , हॉब्स से लेकर धार्मिक तत्ववादियों तक सभी प्रकृति को खतरनाक, अव्यवस्थित, असभ्य, अधार्मिक, अदैवीय मानते हैं। इसको सभ्य समाज का शत्रु मानते हैं। आधुनिक पश्चिमी सभ्यता में प्रकृति और संस्कृति का अस्तित्व एक साथ संभव नहीं है। इसके विपरीत भारत में संस्कृति और प्रकृति के बीच न सिर्फ सहअस्तित्व संभव है बल्कि दोनों के बीच पूरकता है।

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