Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता

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भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता

 

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 पश्चिम में मनुष्य और प्रकृति के बीच एक अवधारणात्मक खाई है जबकि भारत में मनुष्य खुद प्रकृति का अंग है। मनुष्य और प्रकृति दोनों ईश्वरीय रचना हैं। संस्कृति उसी तरह मनुष्यों के चित्त का परिमार्जन करती है जिस तरह कृषि प्रकृति का दोहन करती है। एक कृषक उसी तरह जमीन या प्रकृति का दोहन करता है जिस तरह एक बछड़ा अपनी मां (गाय) के दूध का दोहन करता है। इसी अर्थ में (गाय) भारतीय संस्कृति में पूज्य भी है और प्रतीक भी। उत्तर भारत के हिन्दी भाषी लोक में अक्सर कहा जाता है कि खुद कमाना और खाना प्रकृति है। दूसरों की कमाई खाना विकृति है। खुद कमाना, दूसरों को खिलाना और जो बचे उसे प्रसाद समझकर भक्ति भाव से खाना संस्कृति है। इस मानक पर फलदार वृक्ष एवं (गाय) सुसंस्कृत जीवों के सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। मां, सामान्य गृहणी और  गृहस्थ किसान इसके मानवीय उदाहरण हैं। इस संस्कृति का सर्वोत्तम विकास गाँव के लोक में होता रहा है। सिंधु घाटी की सभ्यता के दिनों से भारत में नगरों का निरंतर अस्तित्व रहा है लेकिन नगरों की भूमिका केन्द्रीय न होकर पूरक या सहयोगी क्षेत्र जैसी रही है। नगर या तो स्थानीय राजधानी रही है या तीर्थस्थान या वाणिज्य- व्यापार के पारंपरिक व्यवस्था के स्थान रहे हैं। इन नगरों की प्रमुख भूमिका इन गाँवों एवं कृषि केन्द्रित पारंपरिक जीवन पध्दति का संरक्षण, संवर्धन एवं पोषण करना रही है। लोक कला, गीत, संगीत एवं नृत्य भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग के रूप में सामान्यत: गाँवों  में ही फलते - फूलते रहे हैं। शिल्प भारतीय संस्कृति में उत्कृष्ट कला मानी जाती रही है। अंग्रेजी राज से पहले तक (यानि 1757 से पहले तक) इस पारंपरिक संस्कृति की संरचनात्मक बनावट में सभ्यता मूलक निरंतरता रही है। अंग्रेजी राज में भारतीय संस्कृति के संरचनात्मक  आधार में रूपांतरण होना शुरू हुआ। गाँवों कृषि, गो-पालन, पारंपरिक शिल्प एवं पारंपरिक नगरों का महत्व गौण होने लगा और अंग्रेजों द्वारा विकसित महानगरों, उधोग-धंधों, वाणिज्य - व्यापार, कोर्ट - कचहरी, अप्राकृतिक एवं असंतुलित विकास एवं राज्य संस्था का महत्व बढने लगा। 
आधुनिक काल के दौरान, अंग्रेजों द्वारा अभिव्यक्त शास्त्रीय परंपरा तथा स्थानीय लोक परंपराओं के बीच पहले जैसा सामंजस्य कायम नहीं रह पाया। पारंपरिक संतुलन को आधुनिकीकरण के कारकों तथा प्रक्रियाओं ने प्रभावित किया।  आधुनिक सामाजिक शक्तियों ने शास्त्रीय तथा लोक परंपराओं के संबंध को विघटित किया। शहरी क्षेत्रों में नये मधयमवर्ग का विकास हो रहा है तथा यह वर्ग आधुनिक पश्चिम की  शास्त्रीय परंपरा को अपनाने की कोशिश कर रहा है। मधयम वर्ग की विश्व  दृष्टि तथा अभिरूचियाँ लोक परंपरा के वाहकों से मूल रूप से भिन्न हैं। ये लोग  अधिकांशत: पश्चिमी सांस्कृतिक मूल्यों, प्रतिमानों, विचारों, अभिरूचियों एवं संस्थाओं के वाहक हैं तथा अंग्रेजी उनके लिए शास्त्रीय भाषा बन चुकी है।

सामान्यत: लोक तथा जनजातीय परंपराएँ तुलनात्मक रूप से राजनीतिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों से अप्रभावित रही हैं। शास्त्रीय परंपराओं का महत्व राजनीतिक शक्ति संरचना में परिवर्तन के साथ कई बार बदलता रहा है, परन्तु लोक तथा जनजातीय परंपराएँ हमेशा जीवंत बनी रही हैं। पारंपरिक भारत में शास्त्रीय परंपराओं ने हमेशा ही लोक तथा जनजातीय संस्कृति को उचित स्थान तथा महत्तव दिया है। परन्तु आधुनिक पश्चिम की शास्त्रीय सांस्कृतिक परंपराओं के वाहकों ने लोक तथा जनजातीय परंपराओं के प्रति कम सहिष्णुता दिखलाई है। वे लोग पांरपरिक संस्कृति को सामान्यत: आधुनिक संस्कृति की तुलना में पिछड़ा, बर्बर एवं अंधविश्वासी मानते हैं। वे लोग भारतीय संस्कृति के सभी तत्वों एवं धाराओं का आधुनिकीकरण तथा पश्चिमीकरण करने की कोशिश करते हैं। आजकल पश्चिमीकरण, औद्योगिकरण, नगरीकरण, वैश्वीकरण तथा जनतंत्रीकरण जैसी प्रक्रियाएं भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों को प्रभावित कर रही हैं। परन्तु  आधुनिकता एवं पंथ निरपेक्षता की इन शक्तियों ने भी भारतीय संस्कृति की परंपरागत धार्मिक जड़ों को पृथक नहीं किया है। समकालीन भारतीय संस्कृति के शास्त्रीय तथा लोकप्रिय दोनों रूपों में पारंपरिक संस्कृति के कुछ पहलुओं का रचनात्मक सात्मीकरण हो चुका है।

 

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